गुरचरण दास का ब्लॉग: भारत आजाद है लेकिन उसके स्कूल नहीं!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: February 28, 2020 07:19 IST2020-02-28T07:19:56+5:302020-02-28T07:19:56+5:30

सत्तर सालों से हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे स्वतंत्र सोच, आत्मविश्वास के साथ अभिनव भारतीय के रूप में विकसित हों. लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली इसमें कोई मदद नहीं करती.

Gurcharan Das blog: India is free but not its school! | गुरचरण दास का ब्लॉग: भारत आजाद है लेकिन उसके स्कूल नहीं!

गुरचरण दास का ब्लॉग: भारत आजाद है लेकिन उसके स्कूल नहीं!

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा भारत यात्र के दौरान की गई प्रशंसा से भारतीयों को गर्व महसूस हो रहा है लेकिन हमें यथार्थ से दूर नहीं जाना चाहिए. हकीकत यह है कि हर जगह हमारी आकांक्षाओं और वास्तविकता के बीच बहुत बड़ा अंतर है. और सबसे दुखद अंतर तब नजर आता है जब हमारा ध्यान अपने स्कूलों की ओर जाता है. 

सत्तर सालों से हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे स्वतंत्र सोच, आत्मविश्वास के साथ अभिनव भारतीय के रूप में विकसित हों. लेकिन हमारी शिक्षा प्रणाली इसमें कोई मदद नहीं करती. यह देखकर दिल टूट जाता है कि अपने बच्चों को किसी अच्छे स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए अभिभावकों को लंबी-लंबी लाइनें लगानी पड़ती हैं. उनमें से अधिकांश को निराश होना पड़ता है क्योंकि अच्छे स्कूलों में पर्याप्त सीटें नहीं होतीं.

हर साल एन्युअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) दुखद समाचार लाती है कि पांचवीं कक्षा के आधे से भी कम छात्र बमुश्किल एक पैराग्राफ भी ठीक से पढ़ पाते हैं या कक्षा दो के छात्र संख्याओं को जोड़ सकते हैं. कुछ राज्यों में दस  प्रतिशत से भी कम शिक्षक टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट (टीईटी) पास हैं. 

उत्तर प्रदेश और बिहार में चार में से तीन शिक्षक पांचवीं कक्षा के गणित का सवाल भी हल नहीं कर पाते. कोई आश्चर्य नहीं कि रीडिंग, साइंस और अरिथमेटिक के इंटरनेशनल पीआईएसए टेस्ट में 74 देशों के बच्चों में भारत के बच्चों को 73वां स्थान मिला है. कारण यह है कि अच्छे सरकारी स्कूल दुर्लभ हैं और अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने के लिए मजबूर हैं. 

सरकार के डीआईएसई डाटा के अनुसार 2011 से 2015 के बीच सरकारी स्कूलों में नामांकन में 1.1 करोड़ की गिरावट आई और निजी स्कूलों के दाखिले में 1.6 करोड़ का उछाल आया. इसके हिसाब से 2020 में 130000 अतिरिक्त निजी स्कूलों की आवश्यकता है. लेकिन वे खुल नहीं रहे हैं. क्यों? इसके कई कारण हैं. एक बड़ी कठिनाई यह है कि किसी ईमानदार व्यक्ति को एक स्कूल शुरू करने के लिए 30 से 45 सरकारी मंजूरियों की आवश्यकता होती है और इनमें से अधिकांश के लिए भाग-दौड़ करने के अलावा रिश्वत देनी पड़ती है. सबसे महंगी रिश्वत अनिवार्यता प्रमाणपत्र (यह साबित करने के लिए कि स्कूल की आवश्यकता है) और स्कूल बोर्ड की मान्यता पाने के लिए देनी होती है.

स्कूलों में कमी का एक अन्य कारण फीस नियंत्रण है. समस्या शिक्षा के अधिकार अधिनियम से शुरू हुई. सरकार ने महसूस किया कि सरकारी स्कूल विफल हो रहे थे और उसने निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें गरीबों के लिए आरक्षित करने का आदेश जारी कर दिया. यह एक अच्छा विचार था लेकिन खराब तरीके से क्रियान्वित किया गया. चूंकि राज्य सरकारों ने आरक्षित छात्रों के लिए निजी स्कूलों को पर्याप्त रूप से मुआवजा नहीं दिया था, इसलिए फीस देने वाले 75 प्रतिशत छात्रों की फीस बढ़ गई. इससे अभिभावकों में खलबली मच गई. कई राज्यों ने फीस पर नियंत्रण लगाया, जिससे धीरे-धीरे स्कूलों की वित्तीय हालत कमजोर हो गई. अस्तित्व बचाने के लिए स्कूलों को किफायती बनना पड़ा, जिससे गुणवत्ता में गिरावट आई. कुछ स्कूलों को तो बंद भी करना पड़ा.

निजी स्कूलों की स्वायत्तता पर नया खतरा निजी पाठय़पुस्तकों पर प्रतिबंध की आशंका का है. 2015 में, मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने सरकार द्वारा प्रकाशित एनसीईआरटी की किताबों का ही उपयोग करने की सलाह दी.  हालांकि एनसीईआरटी की किताबों में सुधार हुआ है लेकिन रटने की पुरानी विधि बनी हुई है. शिक्षक ‘हलो इंग्लिश’ और ‘गूगल बोलो’ जैसे अद्भुत एप्लिकेशन से अनजान हैं जो भारतीय छात्र को धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने में मदद कर सकते हैं. शिक्षाविदों को डर है कि किताबों से संबंधित यह प्रतिबंध भारतीय बच्चों को दुनिया में हो रही सीखने की क्रांति से काट देगा और उन्हें ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में नौकरी के अवसरों से अलग कर देगा.

गणराज्य के सत्तर सालों में, अब यह निजी स्कूलों को स्वायत्तता देने का समय है. 1991 के सुधारों ने उद्योगों को स्वतंत्रता दी लेकिन हमारे स्कूलों को नहीं, जो अभी भी लाइसेंस राज के बोझ तले दबे हुए हैं. इन सब के बावजूद, भारत के उत्थान में निजी स्कूलों का योगदान अवर्णनीय है. उनके पूर्व छात्र पेशेवर क्षेत्रों, सिविल सेवाओं, व्यवसायों के शीर्ष स्थानों पर पहुंचे हैं. उनके नेतृत्व में भारत सॉफ्टवेयर में विश्व शक्ति बना है.

यह समय है जबकि भारत अपने समाजवादी पाखंड को छोड़ दे, जो निजी स्कूलों को मुनाफा कमाने से रोकता है. अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए उन्हें लाभ कमाना ही चाहिए क्योंकि इसी से वे बेहतर स्कूलों की भारी मांग को पूरा कर सकते हैं और इसकी गुणवत्ता में सुधार व विस्तार कर सकते हैं. स्कूलों को ‘नॉन प्रॉफिट’ से ‘प्रॉफिट’ के क्षेत्र में लाना मात्र ही क्रांतिकारी साबित हो सकता है. इससे शिक्षा क्षेत्र में निवेश में तेजी आएगी. भारतीय नागरिक आज पसंद और प्रतियोगिता के मूल्य को समझते हैं. जिस तरह से वे पानी और बिजली के लिए भुगतान करते हैं वैसे ही बेहतर शिक्षा के लिए भी भुगतान करने को तैयार हैं. एक आजाद देश में, उन्हें स्कूलों के लिए अधिक भुगतान करने या बेहतर पाठय़पुस्तकें खरीदने से क्यों रोका जाना चाहिए?

निजी स्कूलों को अधिक विनियमित करने के बजाय सरकार को सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. समय आ गया है कि निजी स्कूलों को स्वायत्तता दी जाए और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता
सुधारी जाए.

Web Title: Gurcharan Das blog: India is free but not its school!

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे