राजेश बादल का ब्लॉग:पूर्वजों के कृतज्ञ देश में याद का कृतघ्न तरीका

By राजेश बादल | Published: December 3, 2019 07:30 AM2019-12-03T07:30:40+5:302019-12-03T07:30:40+5:30

ऐसा लगता है कि अपने राष्ट्रीय पूर्वजों के खिलाफ तो हम विद्रोह पर उतर आए हैं. मगर अपने पारिवारिक पुरखों के बारे में कितना जानते हैं

Grateful way of remembrance in the grateful land of ancestors | राजेश बादल का ब्लॉग:पूर्वजों के कृतज्ञ देश में याद का कृतघ्न तरीका

राजेश बादल का ब्लॉग:पूर्वजों के कृतज्ञ देश में याद का कृतघ्न तरीका

Highlightsअपने पूर्वजों के नहीं रहने पर हम उनको श्रद्धा से याद करते हैं. उनका विधि-विधान से पिंडदान और श्रद्ध करते हैं. भारतीय संस्कृति में पुरखों को कृतज्ञ भाव से याद करने की परंपरा बेमिसाल है

अपने पूर्वजों के नहीं रहने पर हम उनको श्रद्धा से याद करते हैं. उनका विधि-विधान से पिंडदान और श्रद्ध करते हैं. भारतीय संस्कृति में पुरखों को कृतज्ञ भाव से याद करने की परंपरा बेमिसाल है. इस परंपरा में तो दुश्मन की अर्थी को भी कंधा देना आवश्यक समझा जाता है. लेकिन आज का दौर इन पुरखों के वरदान से कृतज्ञ होने के बजाय उनको शापित करने का है. हम उन्हें तोहमत लगाने में गर्व महसूस करने लगे हैं. यह उनके प्रति कृतघ्नता नहीं तो और क्या है.  महात्मा गांधी के बारे में इन दिनों जिस तरह जहर के बीज बोए जा रहे हैं, क्या वे अनेक आशंकाओं को जन्म नहीं देते?

बकौल राजेंद्र माथुर, गांधी को याद रखने का यह अर्थ नहीं कि हम उन्हें मानें या उनके उसूलों पर चलें. क्या हम सिकंदर को इसलिए याद रखते हैं कि उसके सिद्धांतों पर चलें. क्या हम अपने पितरों का इसलिए तर्पण करते हैं कि उनकी अनुकृति बन जाएं? लेकिन जिस देश में श्रद्ध करने लोग गया जाते हैं, वहां राष्ट्रीय पितरों का तर्पण सचमुच कभी होता ही नहीं. श्रद्ध का अर्थ यह है कि हम अतीत की परंपराओं को अपनी मज्जा में महसूस करें और उसे भविष्य को दें. श्रद्ध का अर्थ प्रखर इतिहास चेतना है, जो भारत में  गायब है. लेकिन जो इतिहास चेतना हममें विलुप्त है, उसका प्रेत संस्करण हमारे यहां मौजूद है और उसका नाम
श्रद्ध है.

ऐसा लगता है कि अपने राष्ट्रीय पूर्वजों के खिलाफ तो हम विद्रोह पर उतर आए हैं. मगर अपने पारिवारिक पुरखों के बारे में कितना जानते हैं. गांधीजी का जीवन तो खुली किताब है लेकिन मुट्ठी भर गोरे हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों पर अरसे तक जुल्म ढाते रहे तो क्या इसका कारण यह नहीं कि हमारे अपने ही कुछ लोग  राष्ट्रद्रोह की सीमा तक अंग्रेजों की जी-हुजूरी करते रहे थे. वे क्रांतिकारियों की खुफिया खबरें हुकूमत को देते थे, आजादी मांग रहे लोगों पर कोड़े बरसाते थे, गोलियां चलाते थे, जेलों में अत्याचार करते थे, क्रांतिकारियों को पकड़वा कर गिरफ्तारी के इनाम से मूंछें ऐंठते थे. हमें उनकी इन करतूतों पर किसी तरह की शर्म का अहसास नहीं होता. उल्टे अपने परिचय संसार में छाती ठोंक कर कहते हैं कि हमारे दादा या परदादा अंग्रेजों के राज में अफसर थे. हम उनके देशद्रोह पर खेद तक नहीं जताते. और जिस महापुरुष ने इस देश के करोड़ों लोगों में आजादीकी अलख जगाई उसे मारनेवाले सिरफिरे को हम देशभक्त होने का प्रमाणपत्न दे रहे हैं. यह कैसाघात है?  

एक सांसद का महात्मा गांधी के हत्यारे को देशभक्त कहना भी अपने आप में इसलिए आपत्तिजनक है क्योंकि उन्होंने जिस संविधान की शपथ ली है, उसी की रक्षा करने वाली न्यायपालिका ने हत्यारे को फांसी की सजा दी है. यदि निर्वाचित सांसद हत्यारे को देशभक्त कहता है तो सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका में भी उसका भरोसा नहीं है. एक स्वतंत्न देश की न्यायपालिका ने इस सांसद के इस तथाकथित देशभक्त को फांसी की सजा क्यों दी? यह दंड तो बरतानवी हुकूमत ने नहीं दिया था. क्या यह न्यायपालिका की अवमानना नहीं है? यदि कोई आम आदमी मौत की सजा सुनाए गए अपराधी को देशभक्त कहे तो अदालत उसकी बलैयां नहीं लेगी. उसे घनघोर दंड मिलेगा क्योंकि वह ऐसे कानून की खिल्ली उड़ा रहा है जो हत्यारे को दंडित करता है. लेकिन कोई सांसद खुलेआम कानून की धज्जियां उड़ाए तो इसका क्या अर्थ है? अपने बचाव में सांसद कह सकती हैं कि उन्होंने तो माफी मांग ली है. लेकिन इस मासूमियत पर शर्म ही आएगी. आवेग, आवेश या अनजाने में की गई टिप्पणी के लिए तो माफ किया जा सकता है, पर कोई बार-बार उस कथन को दोहराए तो आखिर माफी का मतलब क्या है ?

सवाल यह है कि क्या भारत के लोग इस मुल्क और महात्मा के रिश्ते को समझ पाए हैं? एक दुबला पतला हमारे जैसा ही हाड़ मांस का आदमी अफ्रीका से आता है और भारत के इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों को प्रेरित करता है कि वे अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संघर्ष करें. हम अनगिनत छोटे-छोटे पोखरों में बंटे थे. यह पोखर राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल नहीं ले सकते थे. लेकिन गांधी असंख्य पोखरों में जी रहे मुल्क में समंदर की लहरों का ऐसा आवेग पैदा करता है, जिसकी बाढ़ में समूची गोरी हुकूमत बह जाती है. इस तरह गांधी हजारों साल से ऊसर भारतीय जमीन में पहली बार आजादी की फसल को लहलहाने और उसे हम सबको काटने का अवसर देता है और हम गांधी के प्रयासों से मिले वरदान को अभिशाप में बदलना चाहते हैं. तकलीफदेह बात तो यह है कि उस वर्ग ने गांधी को सवालों के घेरे में लाने की कोशिश की है, जिन्होंने कभी उन्हें समझा नहीं, पढ़ा नहीं और जाना नहीं. क्या ऐसे लोगों के लिए समाज की ओर से कोई सद्बुद्धि यज्ञ होगा?

Web Title: Grateful way of remembrance in the grateful land of ancestors

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