गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: चुनावी कुरुक्षेत्र के ब्रह्मास्त्र हैं जाति, वंश और धन

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: April 29, 2019 07:50 AM2019-04-29T07:50:30+5:302019-04-29T07:50:30+5:30

इस आम चुनाव में वंशवाद को दूसरे अस्त्न के रूप में लिया गया है। यह स्पष्ट हो रहा है कि हर नेता परिश्रम से कमाई गई अपनी राजनैतिक हैसियत को दूसरों के साथ बांटने और साझा करने से कतरा रहा है।

Girishwar Mishra's Blog: caste, race and money are the Brahmastra of Kurukshetra Elections | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: चुनावी कुरुक्षेत्र के ब्रह्मास्त्र हैं जाति, वंश और धन

गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: चुनावी कुरुक्षेत्र के ब्रह्मास्त्र हैं जाति, वंश और धन

महाभारत के युद्ध में महारथी योद्धा अनेक अस्त्नों का उपयोग कर अपने प्रतिद्वंद्वी को परास्त करते थे। आधुनिक भारत का चुनावी महासमर भी कुछ उसी तर्ज पर लड़ा जा रहा है, जब सूरमा लोग टीवी, सोशल मीडिया, रोड शो आदि के धरातल पर अपने-अपने पक्ष में प्रचार कर रहे हैं। उन्होंने जांच-पड़ताल और सूझ से कई ब्रह्मास्त्र भी खोजे हैं जिनकी सहायता से विजय को सुनिश्चित करने का प्रयास हो रहा है। इस क्र म में जाति सर्वोपरि है। आजकल राज नेताओं में अपनी-अपनी जाति की चेतना तेजी से हिलोरें लेने लगी है और हर कोई अपनी जाति की पहचान को आगे ला रहा है तथा यथासंभव अपने को ‘सबसे पिछड़ा’ साबित करने पर तुला हुआ है। जातीय स्वाभिमान का अभूतपूर्व खेल आज जोरों से खेला जा रहा है। कुछ-एक अपवादों को छोड़ दें तो जाति (और उपजाति!) का दुराग्रह कमोबेश सभी पार्टियों द्वारा अपने प्रत्याशियों के चयन में देखा जा सकता है। 

इस आम चुनाव में वंशवाद को दूसरे अस्त्न के रूप में लिया गया है। यह स्पष्ट हो रहा है कि हर नेता परिश्रम से कमाई गई अपनी राजनैतिक हैसियत को दूसरों के साथ बांटने और साझा करने से कतरा रहा है। वह अपने बेटा, बेटी, भाई, भतीजे अर्थात स्वजन मात्न को ही अपनी विरासत सौंपने को तैयार है। उसकी दृष्टि अपने स्वार्थ के सीमित दायरे के बाहर जाती ही नहीं है। थोड़े दिनों पहले तक राजनीति एक तरह की तपस्या हुआ करती थी और किसी घर से जब कोई नेतागीरी करने निकलता था तो वह बड़े ही निरपेक्ष भाव से परिजनों से अलग हो जाता था। उससे परिवार को कुछ लेना-देना नहीं रहता था। और यदि कोई उसके साथ लगता भी था तो उसे भी बड़ी मशक्कत करनी पड़ती। राजनीति में अपनी साख अर्जित करने के लिए व्यक्ति को यत्न करना पड़ता था और स्वयं को उसके योग्य प्रमाणित करना पड़ता था। आज ऐसा नहीं हो रहा है।

अंतिम और सबसे मारक अस्त्न के रूप में धन आ रहा है। चुनाव के दौर में आजकल भारत के कोने-कोने से लावारिस रुपयों की खेप पकड़ी जा रही है और मुसीबत यह कि उसके मालिक उस खेप पर दावा भी नहीं कर पाते। पार्टी के टिकटों की भी कहानियां सुनने को मिलती हैं कि उसमें भी लेन-देन चलता है। दूसरी ओर, सभी राजनीतिक पार्टियां अपने अज्ञात हितैषियों से गुप्त दान पा रही हैं। विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्नी चुनाव में सरकारी खर्च और पार्टियों का खर्च मिला दें तो दिमाग चकराने लगता है। कुल मिला कर धन बल की बढ़ती प्रभुता ने चुनाव की साख में बट्टा लगाया है। इससे पार पाने की कोशिश बेहद जरूरी है।

यह चुनाव भारत में संसदीय लोकतंत्न के लिए परीक्षा की घड़ी है। यह सजग जनता की विचार-शक्ति और निर्णायक क्षमता के लिए चुनौती है। पर यह अपनी राजनीतिक संस्कृति को जांचने पहचानने और उसमें नवाचार लाने की जरूरत को भी रेखांकित करता है। 

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