गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भारतीय ज्ञान परंपरा और भाषा के अभ्युदय का अवसर

By गिरीश्वर मिश्र | Published: January 5, 2021 12:34 PM2021-01-05T12:34:31+5:302021-01-05T12:34:44+5:30

"शिक्षा का उद्देश्य देश के मानस का निर्माण करना होता है और वह देश-काल और शिक्षा संस्कृति से विलग नहीं होनी चाहिए"

Girishwar Mishra's Blog: An opportunity for the rise of Indian knowledge tradition and language | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भारतीय ज्ञान परंपरा और भाषा के अभ्युदय का अवसर

गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: भारतीय ज्ञान परंपरा और भाषा के अभ्युदय का अवसर

पिछले दिनों काशी में देव दीपावली के पावन अवसर पर प्रधानमंत्नी ने देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति को, जिसे तस्करी में चुरा कर एक सदी पहले कनाडा की रेजिना यूनिवर्सिटी के संग्रहालय में पहुंचा दिया गया था, बंधक से छुड़ाकर देश को वापस सौंपे जाने की चर्चा की थी. तब वहां के कुलपति टामस चेज ने बड़ी मार्के की बात कही थी कि ‘यह हमारी जिम्मेदारी है कि ऐतिहासिक गलतियों को सुधारा जाए और उपनिवेशवाद के दौर में दूसरे देशों की विरासत को जो नुकसान पहुंचा है उसे ठीक करने की हरसंभव कोशिश हो.’

दरअसल विपन्नता की स्थिति में अपनी बहुमूल्य संपत्ति को गिरवी रखना और स्थिति सुधरने पर उसे छुड़ाकर वापस लाना कोई नई बात नहीं है और इसका दस्तूर अभी भी जारी है. भारत की समृद्ध ज्ञान संपदा और उसकी अभिव्यक्ति को भी इतिहास के एक बिंदु पर अंग्रेजों के पास बंधक रख दिया गया. पर परेशानी यह है कि उसकी एवज में जो लिया गया या मिला, उसकी परिधि में ही शिक्षा का आयोजन हुआ और अभ्यासवश उसके मोहक भ्रम में हम सब कुछ ऐसे गाफिल हुए कि अपनी संपदा को अपनाना तो दूर, उसे पहचानने से भी इंकार करते रहे. मैकाले ने जो तजवीज भारत के लिए की, उसे हमने कुछ इस तरह कबूल कर आत्मसात कर लिया कि स्मृति-भ्रंश जैसा होने लगा और विकल्पहीन होते गए. 

शिक्षा का उद्देश्य देश के मानस का निर्माण करना होता है और वह देश-काल और शिक्षा संस्कृति से विलग नहीं होनी चाहिए. फिर भी इस प्रश्न को छेड़ने से हम बचते-बचाते रहे और भारत की समझ की भारतीय दृष्टि की संभावना के प्रति संवेदनहीन बने रहे. राजा बदलने के बावजूद व्यवहार के स्तर पर राजकाज में बहुत कुछ लगभग वैसा ही बना रहा. संभवत: औपनिवेशक दृष्टि की औपनिवेशिकता ही दृष्टि से ओझल हो गई और उसकी अस्वाभाविकता भी बहुतों के लिए सहज स्वीकार्य हो गई मानो मात्न वही संभव हो. ज्ञान का केंद्र पश्चिम हो गया और उसी का पोषण और परिवर्धन ही औपचारिक शिक्षा का ध्येय बन गया और इस कार्य के लिए अंग्रेजी भाषा को भी अबाध रूप से प्रश्रय दिया गया. इसके सामाजिक-सांस्कृतिक आशय से बेखबर हम उसी मॉडल को आगे बढ़ाते गए और बिना जांचे-परखे भारतीय ज्ञान परंपरा को हाशिए पर धकेलते गए. 

भाषा, जो ज्ञान का प्रमुख माध्यम है, वह ज्ञान का पैमाना बन गई. अंग्रेजी उन्नति की सीढ़ी बन गई. सामाजिक भेदभाव और सामाजिक दूरी ही नहीं स्वास्थ्य, कानून और न्याय आदि से जुड़ी नागरिक जीवन की सामान्य सहूलियतें भी इससे जुड़ गईं. बारह-पंद्रह प्रतिशत लोगों की अंग्रेजी अस्सी प्रतिशत से अधिक भारतीय जनों की भाषाओं पर भारी पड़ रही है. इस बाध्यता के चलते पढ़ाई-लिखाई और अध्ययन-अनुसंधान परोपजीवी होता चला गया.

मौलिकता और सृजनात्मकता की जगह अनुकरण, पुनरुत्पादन और पिष्ट-पेषण की जो प्रबल धारा प्रवाहित हुई उसने घोर अंधानुकरण को बढ़ावा दिया. उसने देश-काल और संस्कृति से काटने के साथ जिस दृष्टिकोण को स्थापित और संवर्धित किया उसके चलते हम बिना किसी द्वंद्व के उस यूरो-अमेरिकी नजरिये को सार्वभौमिक मान बैठे जो मूलत: सीमित, स्थानीय और एक खास तरह का ‘देसी’ ही था परंतु आर्थिक-राजनीतिक तंत्न के बीच पश्चिम से निर्यात किया गया. यह कितना अनुदार रहा यह इस बात से प्रमाणित होता है कि इसने भारतीय ज्ञान परंपरा को अप्रासंगिक और अप्रामाणिक ठहराते हुए प्रवेश ही नहीं दिया या फिर उसे पुरातात्विक अवशेष की तरह जगह दी गई. उसका ज्ञान सृजन के साथ कोई सक्रिय रिश्ता नहीं बन सका.

यह संतोष की बात है कि नई शिक्षा नीति गहनता से इन विसंगतियों से रूबरू होते हुए विषयगत, प्रक्रियागत और संरचनागत बदलाव की दिशा में अग्रसर हो रही है. भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृत समेत सभी भारतीय भाषाओं को बड़े लंबे समय से पराभव में रखा जाता रहा है. आशा है नई शिक्षा नीति उनके साथ न्याय कर सकेगी.

Web Title: Girishwar Mishra's Blog: An opportunity for the rise of Indian knowledge tradition and language

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