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गौतम लाहिड़ी का ब्लॉग: प्रणब मुखर्जी- एक आम आदमी के राजनीतिक सपनों की पूर्ति का सफर

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: September 1, 2020 13:46 IST

प्रणब मुखर्जी पश्चिम बंगाल के एक छोटे से शहर से आए थे लकिन वो जिस ऊंचाई पर पहुंचे, ऐसे उदाहरण बहुत कम ही मिलते हैं। भारत में शक्ति के सर्वोच्च स्थान तक पहुंचना, एक आम आदमी के राजनीतिक सपनों की पूर्ति का सफर ही था। 

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ठळक मुद्देप्रणब मुखर्जी की जीवनयात्रा ओलंपिक की स्टीपलचेज दौड़ से कम चुनौती भरी नहींबांग्लादेश की आजादी की जंग ने प्रणब दा की जिंदगी को एक बड़ा राजनीतिक मोड़ दिया

भला कौन सोच सकता है कि प. बंगाल के बीरभूम जिले के सुदूर गांव मिराती का एक बच्चा, जो हर रोज मीलों चलकर मिट्टी भरे रास्तों को पार करता हुआ प्राथमिक शिक्षा हासिल करने जाता था, एक दिन भारत की राष्ट्रीय राजधानी की दमकती गौरवशाली इमारत तक पहुंचेगा. इस बच्चे को प्यार से सब पल्टू कहकर बुलाते थे. 

रायसीना हिल्स पहुंच कर देश के पहले नागरिक बनने तक उसेपांच दशक का लंबा सफर तय करना पड़ा. ऐसे थे प्रणब मुखर्जी जिनकी जीवनयात्रा ओलंपिक की स्टीपलचेज दौड़ से कम चुनौती भरी नहीं थी. जिसमें कभी कामयाबी थी तो कभी हताशा. उनका सशक्त भारत में शक्ति के सर्वोच्च स्थान तक पहुंचना, एक आम आदमी के राजनीतिक सपनों की पूर्ति का सफर था. 

मोदी सरकार के कार्यकाल में भारत रत्न से हुए सम्मानित

देश की अनवरत सेवा के लिए उन्हें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया. समकालीन भारतीय राजनीतिक इतिहास में प्रणब मुखर्जी का उल्लेख एक जननेता नहीं रणनीतिकार के तौर पर किया जाएगा. अपनी संसदीय कुशाग्रता और राजनीतिक कौशल के बूते वह राजधानी नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों तक पहुंचे. मगर अनेक बार राजनीतिक आकाओं ने उन्हें गलत समझा. 

प्रणब मुखर्जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में तकरीबन सभी प्रमुख मंत्रालयों का कामकाज देखा. लेकिन बांग्लादेश की आजादी की जंग ने उनकी जिंदगी को एक बड़ा राजनीतिक मोड़ दे दिया. दिल और व्यवहार से पूरी तरह से बंगाली प्रणब दा को पूर्वी पाकिस्तान की बंगाली आबादी की पीड़ा ने झकझोर दिया. मुखर्जी जब भी किसी राजनीतिक मीटिंग में जाते तो ठेठ बंगाली धोती और कुर्ते में सबसे अलग दिखते और धीरे-धीरे वह सबके बीच दादा के तौर पर लोकप्रिय हो गए. 

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में वह हमेशा एक समर्पित कांग्रेसी की तरह गांधी टोपी ही पहना करते थे. यही श्रीमान मुखर्जी जब कार्यालय पहुंचते थे तो बंद गले का सूट और जूते पहन लेते थे. उनकी ऊपरी जेब से हमेशा एक सोने की चेन बाहर लटकती दिखती थी. दरअसल उस जेब में वह अपने पिताजी स्व. कामदा किंकर मुखर्जी द्वारा भेंट घड़ी रखा करते थे.

इंदिरा गांधी जब हुई थीं प्रणब मुखर्जी से प्रभावित

17 जून 1971 को एक कनिष्ठ सांसद के तौर पर प्रणब मुखर्जी ने मुजीबनगर में बांग्लादेश की स्वतंत्र अंतरिम सरकार को समर्थन देने का प्रस्ताव रखा. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उनके तेजतर्रार भाषण से इतना ज्यादा प्रभावित हुई कि उन्होंने सार्वभौम बांग्लादेश के लिए समर्थन जुटाने की खातिर उन्हें यूरोपियन देशों के दौरे पर भेज दिया. बाद में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने उनके सहयोग को पहचान देते हुए, मुखर्जी के बांग्लादेश के दौरे के वक्त, देश के दूसरे सर्वोच्च सम्मान से नवाजा.

लेकिन श्रीमती गांधी की एकाएक हत्या ने उनके लिए परिस्थितियों को मुश्किल बना डाला. उन पर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नजर रखने का आरोप लगा और वह तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के नापसंदों की सूची में आ गए. बाद में उन्हीं राजीव गांधी ने न केवल उन्हें वापस बुलाया बल्कि उन्हें अपने सलाहकारों में भी स्थान दिया.

प्रधानमंत्री बनने का टूटा भरोसा

दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि जब-जब उन्होंने राजनीतिक नेतृत्व का विश्वास जीता, उनकी राजनीतिक किस्मत ने उनका साथ छोड़ दिया. 2004 में मुखर्जी को पूरा भरोसा था कि वह प्रधानमंत्री बनेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2007 में उनका नाम भारत के 12वें राष्ट्रपति के तौर पर चर्चा में आया, लेकिन उनकी अपरिहार्यता का हवाला देते हुए सोनिया गांधी सहमत नहीं हुई.

2012 में उन्हें फिर संकेत मिले कि वह प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह राष्ट्रपति बनेंगे, लेकिन यह भी नहीं हुआ. वह 13वें राष्ट्रपति बने और उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया, जिसका उन्हें ताउम्र अफसोस रहा. मुझे याद है जब भी कांग्रेस का उम्मीदवार उपचुनाव जीतता था तो वह यह कहते हुए प्रसन्नता जताते कि तुम्हें पता है हम जीत गए. राष्ट्रपति के तौर पर वह इस भावना को प्रदर्शित नहीं कर सकते थे. यही वजह है उन्हें भारतीय गणतंत्र के राजनीतिज्ञ राष्ट्रपतिजी के तौर पर याद किया जाएगा.

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