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विकसित होते भारत को अस्त-व्यस्त करती बाढ़

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: September 12, 2025 07:20 IST

सभी शीर्ष सरकारी अधिकारी, भाजपा नेता, नीति-निर्माता, जान-माल के भारी नुकसान और सैकड़ों लोगों की असामयिक मौतों के कारणों को जानते हैं, लेकिन ‘विकसित भारत’ के पीछे भागते लालची सरकारी अधिकारी व नेता निर्माण कार्यों को बंद नहीं करेेंगे.

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अभिलाष खांडेकर

पंजाब, दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र - आप किसी भी राज्य का नाम लीजिए और आपको प्रकृति द्वारा शहरों और खेतों को तबाह करने के साथ-साथ लोगों को भी बुरी तरह से तबाह करने की भयावह कहानियां सुनने को मिलेंगी. हालांकि सरकार लगभग चुपचाप और असहाय होकर इस भीषण बाढ़ को देखती रही.

जब हम जलवायु परिवर्तन के दैनिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों की बात करते हैं, तो हम भूल जाते हैं कि जलवायु पहले ही बदल चुकी है और हम अब बहुत कुछ नहीं कर सकते. भविष्य में होने वाले नुकसान और जन हानि को रोकने के लिए हम शायद यही कर सकते हैं कि जहां हैं वहीं रुक जाएं! बहुत हो गया. धार्मिक स्थलों के विकास के नाम पर श्रद्धालुओं की वहां बढ़ाई जाने वाली भीड़ को भी रोकना होगा. ईश्वर उन लोगों पर ज्यादा दयालुता नहीं दिखाते जो प्रकृति द्वारा मानव जाति को दिए गए बेशकीमती उपहारों से खिलवाड़ कर रहे हैं.

मनुष्यों के अंतहीन लालच, बढ़ती जनसंख्या और सरकारों की दोषपूर्ण नीतियों ने पारिस्थितिकी तंत्र को अक्षम्य सीमा तक क्षति पहुंचाई है. जब मैं ये पंक्तियां लिख रहा था तब भोपाल में सितंबर के दूसरे हफ्ते में अभूतपूर्व भारी बारिश हो रही थी. ऐसी भारी बारिश, पारंपरिक रूप से, जुलाई और अगस्त के महीनों में ही होती थी.

उधर, सोनिया गांधी द्वारा विशाल बुनियादी ढांचा परियोजना पर लिखे गए एक लेख के जवाब में, भाजपा के एक शीर्ष नेता ने सोशल मीडिया हैंडल एक्स पर भारत सरकार की निकोबार विस्तार परियोजना का खूब बचाव किया है. यह परियोजना खूबसूरत द्वीपों के प्राकृतिक पर्यावरण को एक और गंभीर झटका देगी; पर्यावरणविदों और अन्य विशेषज्ञों की चौतरफा आलोचना, दुर्भाग्य से, अनसुनी कर दी गई है.

केरल में पश्चिम घाट समिति की अनुशंसाओं को अनदेखा करने का खामियाजा पुनः याद  दिलाता है. पिछले एक पखवाड़े में हमने जो कहानियां पढ़ीं और जो विभीषिका हम सबने अपने टीवी पर देखी, वह राजधानी दिल्ली से लेकर संकटग्रस्त उत्तराखंड, आर्थिक केंद्र मुंबई और धार्मिक नगरी मथुरा - हर तरफ यह बताती है कि इस बरसात में हालात बद से बदतर कैसे होते गए हैं. सभी शीर्ष सरकारी अधिकारी, भाजपा नेता, नीति-निर्माता, जान-माल के भारी नुकसान और सैकड़ों लोगों की असामयिक मौतों के कारणों को जानते हैं, लेकिन ‘विकसित भारत’ के पीछे भागते लालची सरकारी अधिकारी व नेता निर्माण कार्यों को बंद नहीं करेेंगे.

वे अवैध वन कटाई और अतिक्रमण पर भी आंखें मूंदे रखेेंगे जबकि समय कुछ और इंगत कर रहा है. अगर एक योजनाबद्ध ‘स्मार्ट सिटी’ दिल्ली में कई कॉलोनियों में बाढ़ आ गई, तो इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाए? अगर मुंबई के लोग हर साल अंतहीन मुसीबतों से जूझते हैं, तो उन्हें टैक्स क्यों देना चाहिए? इन प्रश्नों का उत्तर तो देश चाहता है. दिल्ली में बाढ़ 2023 में भी आई थी, लेकिन तब भाजपा के पास अरविंद केजरीवाल और आप सरकार के रूप में एक ‘पंचिंग बैग’ था जिस पर वे हमेशा हमला कर सकते थे. अब ऐसा नहीं है.

गंगा की अधूरी सफाई, यमुना पर अतिक्रमण हटाने में नाकामी, विशेषज्ञों की सलाह के बावजूद चार धाम यात्रा मार्गों का चौड़ीकरण, हर जगह पेड़ों की लगातार कटाई और प्रकृति की घोर उपेक्षा आदि का नतीजा है कि प्रकृति भयानक गुस्से में है. धराली में बाढ़ग्रस्त नदियों में बह रहे पेड़ों के तने जो और शाखाओं की बेतहाशा संख्या ने सुप्रीम कोर्ट तक को झकझोर दिया, लेकिन भारत के पर्यावरण और वनों के संरक्षक, असंवेदनशील वन एवं पर्यावरण मंत्रालय को शायद ही कोई फर्क पड़ा हो.

पंजाब के सभी 23 जिलों में भारी तबाही हुई है और लगभग 1900 बड़े गांवों के 50 से ज्यादा लोग मारे गए. यह संख्या अधिक भी होगी. कृषि और स्थानीय अर्थव्यवस्था को हुए नुकसान का अभी आकलन नहीं किया जा सकता किंतु सरकार यह कहकर बच नहीं सकती कि बारिश को नियंत्रित नहीं किया जा सकता. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान की सराहना की जानी चाहिए कि उन्होंने पंजाब के दुर्गम क्षेत्रों का दौरा करके नुकसान का तुरंत आकलन किया.

यदि हम इस मानसून के मौसम में मुंबई से लेकर उत्तराखंड या हिमाचल प्रदेश के किसी भी छोटे गांव तक की व्यापक तस्वीर देखें, तो एक ही कारण उभर कर आता है : विकास और केवल विकास की असीम आकांक्षाओं वाले लोगों और सरकारों द्वारा प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को लगातार व अपरिमित नुकसान पहुंचाया जाना.

मैं और अनगिनत अन्य लेखक व विशेषज्ञ पर्यावरण संबंधी चिंताओं को नजरअंदाज करके अंधाधुंध ढंग से बुनियादी ढांचे के विकास के पीछे भागने के वास्तविक खतरों के बारे में चेतावनी देते रहे हैं. पौधे लगाने के राजनीतिक नारे राजमार्गों, मेट्रो आदि के लिए सभी राज्यों में लाखों पेड़ों की निर्दयतापूर्वक कटाई का विकल्प कभी नहीं हो सकते. मैं व्यक्तिगत रूप से पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक वरिष्ठ सचिव को जानता हूं, जिन्होंने चार धाम यात्रा के लिए सड़कों को चौड़ा करने का विरोध किया था, लेकिन सत्ताधारियों ने उन्हें फटकार लगाई थी. वह ईमानदार थे और उन्होंने अपनी पदोन्नति की चिंता के बगैर सही को सही कहा था. लेकिन सरकार ने न तो उनकी राय पर ध्यान दिया और न ही इस विषय पर गठित विशेषज्ञ समिति पर. इसका नतीजा दो छोटे हिमालयी राज्यों में सबके सामने है. यह सब बेहद दुःखद है.

अगर दिल्ली की कॉलोनियों में बाढ़ आ रही है तो इसका कारण यमुना नदी के खादर में अतिक्रमण है, जिसके खिलाफ पूर्व वन अधिकारी स्वर्गीय मनोज मिश्रा ने वर्षों तक संघर्ष किया था. प्लास्टिक प्रदूषण, अवैध निर्माण, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, जैव विविधता का ह्रास और राजधानी में अनियोजित विकास दिल्ली में बाढ़ का कारण बने हैं. क्या हम अब भी इसे ‘स्मार्ट सिटी’ कहेंगे और अपनी पीठ थपथपा कर खुश रहेंगे?

टॅग्स :बाढ़Nature Foodमानसूनमोदी सरकार
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