चंपारण से अनुबंध खेती तक किसानों की यात्रा, फिरदौस मिर्जा का ब्लॉग
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: September 26, 2020 01:39 PM2020-09-26T13:39:01+5:302020-09-26T13:39:01+5:30
भारत लौटने के बाद 1917 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पहला आंदोलन चंपारण के किसानों का संघर्ष था. चंपारण के किसान स्थानीय जमींदारों और ब्रिटिश कंपनी के साथ कृषि समझौते के तहत नील (इंडिगो) की खेती करते थे, जिनकी उपज का भारत से निर्यात किया जाता था.
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास वास्तव में भारतीय किसानों के संघर्ष की कहानी है. ऐसे ही एक किसान विद्रोह ने देश को अपना पिता ‘महात्मा गांधी’ प्रदान किया था.
भारत लौटने के बाद 1917 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में पहला आंदोलन चंपारण के किसानों का संघर्ष था. चंपारण के किसान स्थानीय जमींदारों और ब्रिटिश कंपनी के साथ कृषि समझौते के तहत नील (इंडिगो) की खेती करते थे, जिनकी उपज का भारत से निर्यात किया जाता था.
किसानों को अपनी भूमि में नील की खेती करने के लिए मजबूर किया गया. इस बीच, कुछ देशों ने नील के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया और अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमतें गिर गईं. घाटे को दूर करने के लिए जमींदारों और ब्रिटिश सरकार ने करों में वृद्धि की और किसानों पर अन्य शुल्क लगाए जिससे वे तबाह हो गए.
संसद में किसानों से संबंधित हालिया विधेयकों के पारित होने ने मुझे भारतीय इतिहास के इस हिस्से की याद दिला दी. संसद ने कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन विधेयक, 2020 और कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 पारित किया है. इन विधेयकों का उद्देश्य एक ऐसे तंत्र का निर्माण करना बताया जा रहा है जहां किसान और व्यापारी दोनों को अपनी पसंद के चुनाव की स्वतंत्रता होगी. सत्तारूढ़ पार्टी इन विधेयकों को ‘ऐतिहासिक’ करार दे रही है, जबकि विपक्ष उन्हें ‘दमनकारी’ कह रहा है.
कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन विधेयक, 2020 में ‘फार्मिंग एग्रीमेंट’ का प्रावधान है जो एक किसान को अपनी कृषि उपज बेचने के लिए प्रायोजक के साथ समझौता करने की अनुमति देता है. ऐसे समझौते के तहत खरीदी गई कृषि उपज की कोई स्टॉक सीमा नहीं होगी.
किसी भी स्थिति में समझौते का इस्तेमाल किसान की भूमि या परिसर की बिक्री, पट्टे और बंधक सहित हस्तांतरण के उद्देश्य के लिए नहीं किया जा सकता है और न ही कोई स्थायी ढांचा खड़ा किया जा सकता है. विवाद की स्थिति में, मामले को समझौते के लिए पार्टियों द्वारा नियुक्त बोर्ड के पास भेजा जाना है और उसकी अनुपस्थिति में, सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट 30 दिनों के भीतर विवाद का फैसला करेंगे. सब डिवीजनल अथॉरिटी का आदेश कलेक्टर के समक्ष अपील योग्य है, किसी भी सिविल कोर्ट के पास इस विषय पर क्षेत्राधिकार नहीं होगा.
कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 किसानों को अपनी कृषि उपज कहीं भी बेचने का अधिकार देता है, खरीदने वाले के पास कोई लाइसेंस होना जरूरी नहीं है. स्थायी खाता संख्या (पैन) या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित कोई भी दस्तावेज रखने वाला कोई भी ट्रेडर अब पूरे देश में किसी भी राज्य या स्थान पर कृषि उपज खरीद सकता है, लेकिन उसे अधिकतम 3 कार्य दिवसों के भीतर भुगतान करना अनिवार्य होगा.
वर्ष 2005 में, महाराष्ट्र विधानसभा ने महाराष्ट्र कृषि उपज विपणन (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1963 में संशोधन किया, जिसमें धारा 5-डी को जोड़ा गया. इसमें किसानों को पारंपरिक एपीएमसी के साथ या निजी यार्ड में भी अपनी उपज बेचने का विकल्प दिया गया. इसमें निजी यार्ड का लाइसेंस पाने के लिए पर्याप्त जमानत राशि की शर्त रखी गई थी ताकि किसी आकस्मिक घटना की स्थिति में किसानों को होने वाले नुकसान से बचाया जा सके.
वर्ष 2006 में एक और संशोधन द्वारा धारा 5-ई को जोड़ा गया, जिसे ‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एग्रीमेंट’ कहा गया. दिलचस्प है कि महाराष्ट्र के ‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एग्रीमेंट’ के ही समान कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) मूल्य आश्वासन विधेयक, 2020 का ‘फार्मिंग एग्रीमेंट’ भी है, जिसे वर्तमान में केंद्रसरकार द्वारा लाया गया है. तथ्य यह है कि यह पहली बार नहीं है जब इस तरह के प्रावधान किए जा रहे हैं और आजादी के बाद से सरकार के संरक्षणवादी दृष्टिकोण के विपरीत खुले बाजार का प्रयोग शुरू किया गया है.
एक बात स्पष्ट है कि यह न तो एक ऐतिहासिक कदम है और न ही वर्तमान सरकार का कोई नवाचार है, बल्कि यह केवल राज्य अधिनियम का अनुकूलन है. अब सत्तारूढ़ और विपक्ष के बीच विवाद का दूसरा आयाम यह है कि महाराष्ट्र अधिनियम में दोनों संशोधन जब किए गए थे तब राज्य में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार थी और भाजपा महाराष्ट्र में विपक्ष में थी.
राजनेता मुद्दों का राजनीतिकरण करने में भले व्यस्त हों लेकिन मेरी राय में जब समान प्रावधान लागू थे, तो पूरे देश के लिए इस तरह के प्रावधान करने से पहले किसानों पर उनके प्रभाव का अध्ययन किया जाना चाहिए था. आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन मुझे भारतीय इतिहास में एक और काले अध्याय की याद दिलाता है.
नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार 1942-43 में बंगाल के भयावह अकाल में लगभग 30 लाख लोगों की मौत होने का एक प्रमुख कारण यह था कि मूल्य वृद्धि की उम्मीद में व्यापारियों ने खाद्यान्न का बेशुमार स्टॉक इक ट्ठा कर लिया था.
मैं चाहता हूं कि सरकार और वर्तमान प्रशासक नए कानूनों को लागू करते समय अतीत के अनुभवों को ध्यान में रखें, खासकर इसलिए भी कि अब महात्मा गांधी किसानों का नेतृत्व करने के लिए उपलब्ध नहीं हैं और कानून के किसी भी विरोध को राजद्रोह करार दिया जाता है.