आर्थिक आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट का समानता सुनिश्चित करने वाला ऐतिहासिक फैसला

By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: November 8, 2022 02:06 PM2022-11-08T14:06:02+5:302022-11-08T14:06:02+5:30

सुप्रीम कोर्ट का सोमवार का फैसला शायद आरक्षण चाहनेवाले सभी समुदायों की भावना को शांत कर दे. मगर राजनीतिक दल शायद आरक्षण के मसले को खत्म होते देखना नहीं चाहेंगे। अब नई लड़ाई निजी प्रतिष्ठानों में आरक्षण के लिए शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं।

EWS Reservation: Supreme Court's historic decision to ensure equality | आर्थिक आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट का समानता सुनिश्चित करने वाला ऐतिहासिक फैसला

आर्थिक आरक्षण: सुप्रीम कोर्ट का समानता सुनिश्चित करने वाला ऐतिहासिक फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण को वैध ठहराते हुए ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इस फैसले से उन जातियों तथा समुदायों के लोगों के लिए भी न्याय का रास्ता सुनिश्चित हो जाएगा जो आरक्षण से वंचित हैं। इस फैसले को जाति एवं संप्रदाय से परे सामाजिक न्याय की दिशा में दूरगामी पहल भी कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

जब न्यायमूर्ति शरद बोबड़े प्रधान न्यायाधीश थे, तब उनकी पीठ ने आर्थिक आधार पर आरक्षण के मसले को पांच संसदीय खंडपीठ के हवाले सौंपा था। सोमवार को पांच सदस्यीय पीठ ने 3-2 के बहुमत से ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए संविधान के 103 वें संशोधन को वैध ठहराया। 

प्रधान न्यायाधीश के रूप में सोमवार 7 नवंबर न्यायमूर्ति यू.यू. ललित का अंतिम दिन था। भले ही वह तथा एक अन्य न्यायाधीश जस्टिस एस. रवींद्र भट 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस आरक्षण से असहमत रहे, लेकिन उनकी अध्यक्षता में उनके बारे में एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला सुनाया गया जो गरीब होने के बावजूद जाति के आधार पर सरकारी नौकरियों तथा शिक्षा संस्थानों में आरक्षण से अब तक वंचित हैं. इस वर्ग की लंबे समय से मांग रही है कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए।

न्यायमूर्ति ललित तथा न्यायमूर्ति भट ने इस आधार पर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आरक्षण की सुविधा देने वाले संविधान के 103वें संशोधन का विरोध किया कि उससे आरक्षण की अधिकतम संवैधानिक सीमा का हनन होता है। वे ईडब्ल्यूएस आरक्षण से एससी, एसटी तथा ओबीसी को वंचित रखना नहीं चाहते थे।

सामाजिक न्याय के लिए वे इसे जरूरी मानते थे। खंडपीठ के अन्य तीन न्यायाधीशों दिनेश माहेश्वरी, बेला एम. त्रिवेदी तथा जे.बी. पारदीवाला ने बहुमत से 103 वें संविधान संशोधन का समर्थन किया और माना कि इससे संविधान का मूल ढांचा किसी तरह प्रभावित नहीं होता। 

फैसला भले ही खंडित हो लेकिन इससे सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक समानता का मार्ग भी प्रशस्त होगा। आरक्षण के मौजूदा ढांचे ने समाज में भेदभाव की दीवार खड़ी कर दी है। संविधान में अनुसूचित जाति-जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान का उद्देश्य सदियों से शोषित इन तबकों को विकास की मुख्य धारा से जोड़ना था।

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने संविधान में आरक्षण का प्रावधान कर सामाजिक समता तथा न्याय की नींव रखी थी। इस प्रावधान से एससी, एसटी के लोगों के आर्थिक-सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। बाद में आरक्षण बड़ा राजनीतिक मसला बनता चला गया।

आरक्षण से वंचित समुदायों ने भी आवाज उठानी शुरू कर दी कि उनमें भी गरीबों की तादाद अच्छी-खासी है लेकिन आरक्षण का लाभ न मिलने से उनकी प्रगति अवरुद्ध हो रही है तथा आर्थिक-सामाजिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा है। राजनीतिक लाभ के लिए समय-समय पर राज्यों में विभिन्न सत्ताधारी दलों ने आरक्षण की तय सीमा से पार जाकर अन्य तबकों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करना चाहा लेकिन अदालत ने उन्हें बैरंग लौटा दिया।

तमिलनाडु में एम.जी. रामचंद्रन, जयललिता, करुणानिधि, अविभाजित आंध्रप्रदेश में वाई. राजशेखर रेड्डी, आंध्र के विभाजन के बाद बने तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव, राजस्थान में अशोक गहलोत, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव तथा अखिलेश यादव, कर्नाटक में सिद्धारमैया की सरकारों ने अन्य वर्गों को आरक्षण देने का प्रयास किया लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली।

महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की लड़ाई सड़क से लेकर विधानमंडल, संसद और अदालत तक लड़नी पड़ रही है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान में जाट एवं गुर्जर आरक्षण के लिए जूझ रहे हैं और भी कई जातियां हैं जो सरकारी सेवाओं तथा शिक्षा संस्थानों में खुद के लिए आरक्षण चाहती हैं।

सुप्रीम कोर्ट का सोमवार का फैसला शायद आरक्षण चाहनेवाले सभी समुदायों की भावना को शांत कर दे. मगर राजनीतिक दल शायद आरक्षण के मसले को खत्म होते देखना नहीं चाहेंगे। अब नई लड़ाई निजी प्रतिष्ठानों में आरक्षण के लिए शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं।

Web Title: EWS Reservation: Supreme Court's historic decision to ensure equality

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