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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: जीना है तो धरती की भी सुनें

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: April 22, 2022 14:44 IST

पूरी दुनिया में 22 अप्रैल को 'अर्थ डे' के तौर पर मनाया जाता है। पृथ्वी को आने वाली पीढ़ियों के लिए कैसे बचाया जाए और इसके संसाधनों को कैसे भविष्य के लिए बचाया जा सके, ये इसी मसले पर बात करने का दिन है।

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जाने कब से यह धरती मनुष्य समेत सभी प्राणियों, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि के लिए आधार बनकर जीवन और भरण-पोषण का भार वहन करती चली आ रही है. कभी मनुष्य भी कोई विशिष्ट प्राणी न मान कर अपने को प्रकृति का अंग समझता था. मनुष्य की स्थिति शेष प्रकृति के अवयवों के एक सहचर के रूप में थी. मनुष्य को प्रकृति के रहस्यों ने बहुत आकृष्ट किया. अग्नि, वायु, पृथ्वी, शब्द आदि सब में देवत्व की प्रतिष्ठा होने लगी और वे पूज्य और पवित्र माने गए. 

प्रकृति के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखते हुए उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखा गया. उसके उपयोग को सीमित और नियंत्रित करते हुए त्यागपूर्वक भोग की नीति अपनाई गई. विराट प्रकृति ईश्वर की उपस्थिति से अनुप्राणित होने के कारण मनुष्य उसके प्रति स्नेह और प्रीति के रिश्तों से अभिभूत था.

धीरे-धीरे बुद्धि, स्मृति और भाषा के विकास के साथ और अपने कार्यों के परिणामों से चमत्कृत होते मनुष्य की दृष्टि में बदलाव शुरू हुआ. प्रकृति की शक्ति के भेद खुलने के साथ मनुष्य स्वयं को शक्तिवान मानने लगा. धीरे-धीरे प्रकृति के प्रच्छन्न संसाधनों के प्रकट होने के साथ दृश्य बदलने लगा और मनुष्य ने उनको स्रोत मान कर उनका दोहन शुरू किया. 

औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण और विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों में उलटफेर शुरू हुआ. प्रकृति को नियंत्रित करना और अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति में लगाना स्वाभाविक माना जाने लगा.  प्रकृति में उपलब्ध कोयला, पेट्रोल और विभिन्न गैसों ने ऊर्जा के ऐसे अजस्र स्रोत प्रदान किए कि मनुष्य की सांस्कृतिक यात्रा को मानों पर लग गए. धरती की कोख में छिपे नाना प्रकार के खनिज पदार्थ की सहायता से नए-नए उपकरणों और वस्तुओं का निर्माण संभव है. इन उपलब्धियों के साथ मनुष्य की शक्ति और लालसा निरंतर बढ़ती गई है. 

आज हम जिस दौर में पहुंच रहे हैं उसमें पृथ्वी को पवित्र और पूज्य न मान कर उपभोग्य सामग्री माना जा रहा है. आज स्वार्थ की आंधी में जिसे जो भी मिल रहा है उस पर अपना अधिकार जमा रहा है. विकास के नाम पर आसपास के वन, पर्वत, घाटी, पठार, मरुस्थल, झील, सरोवर, नदी और समुद्र जैसी भौतिक रचनाओं को ध्वस्त करते हुए मनुष्य के हस्तक्षेप पारिस्थितिकी के संतुलन को बार-बार छेड़ रहे हैं. 

यह प्रवृत्ति जबर्दस्त असंतुलन पैदा कर रही है जिसके परिणाम अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओला, तूफान, भू-स्खलन और सुनामी आदि तरह-तरह के प्राकृतिक उपद्रवों में दिखाई पड़ती है. मनुष्य के हस्तक्षेप के चलते जैव विविधता घट रही है और बहुत से जीव-जंतुओं की प्रजातियां समाप्त हो चुकी हैं, कई विलोप के कगार पर पहुंच रही हैं. मौसम का क्रम उलट-पलट रहा है.  जीवन की प्रक्रिया से इस तरह का खिलवाड़ अक्षम्य है, पर विकास के चश्मे में कुछ साफ नहीं दिख रहा है और हम सब जीवन के विरोध में खड़े होते जा रहे हैं. एक दूसरा कारण यह है कि प्रकृति और पर्यावरण किसी अकेले का नहीं होता और उसकी जिम्मेदारी समाज या समुदाय की होती है और लोग उसे सरकार पर छोड़ देते हैं. इसका परिणाम उपेक्षा होता है. अत्यंत पवित्र मानी जाने वाली नदियों का प्रदूषण इस तरह की गतिकी की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है. आज काशी में गंगा और दिल्ली में यमुना घोर प्रदूषण की गिरफ्त में हैं पर राह नहीं निकल रही है. 

ऐसे ही वायु-प्रदूषण, मिलावट और तरह-तरह की सीमाओं के अतिक्रमण के फलस्वरूप जीवन खतरे में पड़ रहा है. अर्थात् धरती का स्वास्थ्य खराब हो रहा है और उसे रोगी बनाने में मनुष्य के दूषित आचरण की प्रमुख भूमिका है. विकास की दौड़ में भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और बाजार-प्रधान युग में मनुष्यता चरम अहंकार और स्वार्थ के आगे जिस तरह नतमस्तक हो रही है वह स्वयं जीवन-विरोधी होती जा रही है. 

संयम, संतोष और अपरिग्रह के देश में हम निर्दय हो कर प्रकृति और धरती की नैसर्गिक सुषमा को जाने अनजाने नष्ट कर दे रहे हैं. यदि जीवन से प्यार है तो धरती की सिसकी भी सुननी होगी और उसकी रक्षा अपने जीवन की रक्षा के लिए करनी होगी. प्रकृति हमारे जीवन की संजीवनी है, भूमि माता है और उसकी रक्षा और देख-रेख सभी प्राणियों के लिए लाभकर है. इस दृष्टि से नागरिकों के कर्तव्यों में प्रकृति और धरती के प्रति दायित्वों को विशेष रूप से शामिल करने की जरूरत है. प्रकृति के हितों की रक्षा के प्रावधान और भी मजबूत करने होंगे.

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