डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: देश में शर्म और दर्द की बेचैनी क्यों नहीं ?

By विजय दर्डा | Published: July 24, 2023 07:46 AM2023-07-24T07:46:30+5:302023-07-24T07:46:30+5:30

मणिपुर में महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाने और उनके साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने सांस्कृतिक रूप से महिलाओं को पूजने वाले हिंदुस्तान को पूरी दुनिया में शर्मसार किया है लेकिन देश में वह आक्रोश क्यों नहीं जो छोटी-छोटी बात पर उबल पड़ता है...?

Dr. Vijay Darda's Blog: Manipur incident, Why no restlessness of shame and pain in country | डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: देश में शर्म और दर्द की बेचैनी क्यों नहीं ?

डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: देश में शर्म और दर्द की बेचैनी क्यों नहीं ?

मणिपुर की हिंसा को लेकर ढाई महीनों में मेरा यह तीसरा कॉलम है लेकिन दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके सड़कों पर घुमाने और सामूहिक बलात्कार की घटना से मेरा तो हृदय फट पड़ा है, मन बेहद बोझिल है, शर्मसार है, वेदना से भरा हुआ है. इतनी बेदर्दी और इतनी बेशर्मी कहां से आती है? उसमें से एक महिला के पति सेना के एक सेवानिवृत्त सूबेदार हैं जिन्होंने कारगिल की लड़ाई लड़ी. श्रीलंका में शांति सेना में शामिल होकर लड़े. 

जरा सोचिए कि देश की रक्षा में सदा तत्पर रहने वाले ऐसे बहादुर सूबेदार पर क्या गुजरी होगी...? उन्होंने कहा भी है कि पत्नी की आबरू न बचा पाने का उन्हें अफसोस है. उनके ये शब्द पिघले सीसे की तरह मेरे कानों में पड़े हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सही ही कहा है कि मणिपुर में औरतों को निर्वस्त्र घुमाने, बेइज्जत करने और बलात्कार की घटना से पूरे देश को शर्मसार होना पड़ा है. लेकिन मेरा जेहन मुझसे बार-बार यह सवाल पूछ रहा है कि मणिपुर के दंगों में बलात्कार को हथियार बना लेने की अत्यंत शर्मनाक घटनाओं और जलते मणिपुर के दर्द की बेचैनी देश में तीव्रता के साथ दिखाई क्यों नहीं पड़ रही है? 

किसी भी धर्मस्थल के संबंध में छोटी सी भी घटना को लेकर तत्काल उबल पड़ने वाले समाज के नुमाइंदे अब कहां हैं? मणिपुर में इंसानियत का कत्ल हो रहा है, इंसानियत की आबरू लूटी जा रही है और देश खामोश बैठा है! शर्मनाक व दुखदायी है ये खामोशी!

मैंने महसूस किया है कि पूर्वोत्तर  के राज्यों को लेकर देश के बाकी हिस्सों में वह चेतना नहीं है जो होनी चाहिए. हकीकत यही है कि उनकी शक्ल-ओ-सूरत के कारण लोगों का नजरिया बदल जाता है. जरा सोचिए कि आज जो मणिपुर में हो रहा है वह यदि महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान,  बिहार या उत्तरप्रदेश में हो रहा होता तो पूरे देश का नजारा क्या होता? 

उस दर्द में सारा देश उबल पड़ता, क्रोध की ज्वाला भड़क उठती लेकिन मणिपुर को लेकर देश में ऐसा कोई माहौल नहीं है. भावनाओं का उबाल कहीं नहीं दिख रहा है. मैं लगातार प्रवास पर रहता हूं. लोगों से मिलता रहता हूं और मैंने पाया है कि बहुत से लोगों को तो पता ही नहीं है कि मणिपुर में हो क्या रहा है? जिन्हें पता है, उन्हें यह नहीं पता कि मणिपुर दंगों का कारण क्या है और कितनी नृशंस घटनाएं हो रही हैं. ये बेरुखी बेहद दर्दनाक है!

अब संसद के भीतर मणिपुर को लेकर चर्चा की बात हो रही है. चर्चा निश्चित रूप से होनी चाहिए क्योंकि संसद में होने वाली चर्चा का असर पूरे देश में होता है. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यह चर्चा निष्पक्ष होनी चाहिए.  राजनीतिक दृष्टिकोण से नहीं होनी चाहिए. कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर विपक्षी दलों को भी राजनीति नहीं करनी चाहिए. 

ढाई महीने में भी दंगों पर काबू न हो पाने को लेकर कुछ वाजिब सवाल जरूर हैं लेकिन यह आरोप बेबुनियाद है कि प्रधानमंत्री कुछ नहीं कर रहे हैं, गृह मंत्री कुछ नहीं कर रहे हैं. ऐसा नहीं होता है. स्थानीय स्तर पर विभिन्न कारणों से विफलताएं हो सकती हैं. होती भी हैं! नक्सलवाद इसका उदाहरण है! 

पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से 1967 में शुरू हुए नक्सलवादी उग्रवाद ने देश के कई हिस्सों को निशाना बनाया. चार दशक से भी ज्यादा समय से नक्सली हिंसा पर काबू पाने की कोशिशें हो रही हैं लेकिन उनका सफाया नहीं हो सका है. हमारे कई बड़े राजनेता मारे गए, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बहुत से अधिकारी और सैकड़ों जवानों ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिए अपनी जान दी है! 

इसके बावजूद हम नक्सलियों को खत्म नहीं कर पाए लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि सरकार कुछ नहीं कर रही या पुलिस फोर्स कुछ नहीं कर रही है. मामला चाहे किसी भी तरह के उग्रवाद का हो या फिर मणिपुर के दंगों का, यह कहना आसान है कि उन्हें गोलियों से भून देना चाहिए. निस्संदेह गुस्सा आना स्वाभाविक है, चिढ़ होना स्वाभाविक है लेकिन प्रशासनिक व्यवस्था में संयम से काम लेना पड़ता है.  

यह तो ध्यान रखना ही पड़ता है कि कोई निर्दोष न मारा जाए. मुहावरे की भाषा में कहें तो गेहूं के साथ घुन नहीं पिसना चाहिए. मणिपुर के हालात से संबंधित सभी संदर्भों को ध्यान में रखकर सभी राजनीतिक दलों को मिलकर हल निकालना चाहिए. यह केवल सरकार का मामला नहीं है.

महाराष्ट्र में मणिपुर के कई लोग काम करते हैं. कुछ पायलट हैं, एयर होस्टेस हैं, कुछ महिलाएं ब्यूटी पार्लर, स्पा में कार्यरत हैं तो कुछ दूसरे व्यवसाय में. हाल के दिनों में मैंने वहां की परिस्थितियों को समझने के लिए उनमें से बहुत से लोगों से बातचीत की. उन सभी लोगों का कहना है कि यह राजनीतिक मामला नहीं है. ये दो समुदायों मैतेई और कुकी के बीच प्रभुत्व की लड़ाई है. 

मैतेई ज्यादातर हिंदू धर्म को मानने वाले हैं जबकि कुकी जनजाति में ज्यादातर ईसाई धर्म को और कुछ अन्य धर्म को मानने वाले हैं. इस लड़ाई को इसी संदर्भ में देखना चाहिए क्योंकि पूर्वोत्तर भारत में जनजातियों के बीच भीषण युद्ध का लंबा इतिहास रहा है. नगालैंड में तो कभी एक कबीले के लोग दूसरे कबीले के लोगों के सिर भी काट लिया करते थे.

मगर विकास के इस नए दौर के लोकतांत्रिक भारत में समुदायों के बीच इस तरह का वैमनस्य कि दूसरे समुदाय की महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाएं, सामूहिक बलात्कार करें, एंबुलेंस जला दें जिसमें नवजात भी जल मरे, घर जला दें! यह सब अत्यंत वेदनादायक तो है ही, देश के लिए भी खतरे की घंटी है. आंकड़े भयानक हैं. 

ढाई महीने के दंगे में 150 से ज्यादा मौतें, 300 से ज्यादा जख्मी, 6 हजार से ज्यादा एफआईआर और 60 हजार बेघर! जरा सोचिए उनके बारे में जिनके साथ बलात्कार होता है, जिनका घर तबाह हो जाता है. भय का खौफनाक मंजर  भीतर बैठ जाता है. 

एक वाक्य में कहें तो मणिपुर की जिंदगी लुट गई है. देश को मैरी कोम, मीराबाई चानू, कुंजुरानी, सरिता देवी, संजीता चानू और न जाने कितने खिलाड़ी देने वाले मणिपुर के खेल मैदान सूने पड़े हैं क्योंकि वहां खून की होली खेली जा रही है. उन सबके बारे में सोचते और लिखते हुए मेरे हाथ कांप रहे हैं और कलेजा बैठा जा रहा है. हे प्रभु! खूबसूरत वादियों को उनका सुकून लौटा दो..!

Web Title: Dr. Vijay Darda's Blog: Manipur incident, Why no restlessness of shame and pain in country

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