डॉ. एस.एस मंठा का ब्लॉगः संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता से न हो छेड़छाड़ 

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 18, 2018 12:25 PM2018-11-18T12:25:03+5:302018-11-18T12:25:03+5:30

संवैधानिक प्रावधानों को हमेशा सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए. लेकिन राजनेता हमेशा यह मानते हैं कि उन्हें उच्चतम शक्तियां पाने का अधिकार है और इसलिए वे विधायिका या कार्यपालिका के जरिए संस्थागत स्वायत्तता को कमजोर करने की कोशिश करते हैं. 

Dr. S.S. Mantha Blog: Constitutional bodies do not tamper with autonomy | डॉ. एस.एस मंठा का ब्लॉगः संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता से न हो छेड़छाड़ 

डॉ. एस.एस मंठा का ब्लॉगः संवैधानिक निकायों की स्वायत्तता से न हो छेड़छाड़ 

कई अन्य लोकतांत्रिक देशों, जो कानून के शासन में विश्वास रखते हैं,  की तरह भारतीय संविधान में भी शक्तियों के विभाजन और नियंत्रण तथा संतुलन का सिद्धांत काम करता है, जिसे मांटेस्क्यू और जॉन लॉक द्वारा तैयार किया गया था. ‘शक्ति’ कभी भी किसी एक व्यक्ति या एकल संस्थान में निहित नहीं होनी चाहिए. हमारे संविधान ने एक तरफ तो संसद, कार्यपालिका और न्यायपालिका तथा दूसरी तरफ केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय निकाय के विभाजन के जरिये यह शक्ति संतुलन स्थापित किया है. कुछ शक्तियां बुनियादी अधिकारों के रूप में भी संविधान द्वारा देश के नागरिकों को प्रदान की गई हैं. 

सभी कार्यकारी कार्रवाइयां न्यायिक समीक्षा के अधीन होती हैं. बदले में संसद के पास सुप्रीम कोर्ट/हाईकोर्ट के न्यायाधीशों के खिलाफ अभियोग लाने का अधिकार होता है. यूपीएससी, सीएजी और चुनाव आयोग जैसे अन्य संवैधानिक निकाय भी नियंत्रण और संतुलन की अतिरिक्त परतें प्रदान करते हैं. दिक्कत यह है कि न तो राजनीतिक वर्ग और न ही नौकरशाही या अन्य जिम्मेदार लोगों द्वारा संवैधानिक मूल्यों को पूरी तरह से आत्मसात किया जाता है. एक तरह से, संविधान या कोई भी कानून किसी भी संस्थान को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान नहीं करता है. संसद एक निर्धारित प्रक्रिया के जरिए संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन कर सकती है, लेकिन वह उसकी ‘बुनियादी संरचना’ के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती. संवैधानिक निकायों को निश्चित रूप से बिना किसी भय और दबाव के काम करना चाहिए, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर खुद संविधान के उद्देश्य ही जोखिम में पड़ सकते हैं. 

संवैधानिक प्रावधानों को हमेशा सबसे ऊपर रखा जाना चाहिए. लेकिन राजनेता हमेशा यह मानते हैं कि उन्हें उच्चतम शक्तियां पाने का अधिकार है और इसलिए वे विधायिका या कार्यपालिका के जरिए संस्थागत स्वायत्तता को कमजोर करने की कोशिश करते हैं. 

संस्थागत स्वायत्तता के बारे में हालिया बहसें कई महत्वपूर्ण मुद्दों से किनारा करती दिखाई देती हैं, चाहे वे आरबीआई के बारे में हों या सीबीआई के बारे में. सरकारें चाहती हैं कि केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीति को अत्यधिक ढीली करें, क्योंकि इससे अर्थव्यवस्था को अस्थायी लाभ पहुंचता है और उन्हें इसका चुनावों में फायदा मिलता है. लेकिन इस तरह के दुस्साहसिक कदमों का दीर्घावधि में भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है, महंगाई बढ़ती है और अर्थव्यवस्था को कोई वास्तविक लाभ नहीं पहुंचता. अधिकांश विकसित अर्थव्यवस्थाएं और कुछ विकासशील अर्थव्यवस्थाएं भी  वास्तव में अपने केंद्रीय बैंक को राजनीतिक दखलंदाजी से परे रखती हैं. सरकार का सुपर नियामक होने का विचार निश्चित रूप से अच्छी बात नहीं है, यह न केवल नवाचार को बाधित करता है बल्कि ‘बॉस’ संस्कृति को भी जन्म देता है. 

Web Title: Dr. S.S. Mantha Blog: Constitutional bodies do not tamper with autonomy

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