राजेश बादल का ब्लॉग: संसदीय लोकतंत्र का अपमान भी है दलबदल

By राजेश बादल | Published: May 7, 2024 10:07 AM2024-05-07T10:07:42+5:302024-05-07T10:09:05+5:30

मुरैना जिले से पार्टी के वरिष्ठतम विधायक रामनिवास रावत और छिंदवाड़ा जिले से ही निर्वाचित कांग्रेस विधायक कमलेश शाह भी अपनी पुरानी पार्टी छोड़ चुके हैं. 

Defection is also an insult to parliamentary democracy | राजेश बादल का ब्लॉग: संसदीय लोकतंत्र का अपमान भी है दलबदल

राजेश बादल का ब्लॉग: संसदीय लोकतंत्र का अपमान भी है दलबदल

Highlightsपचहत्तर साल के लोकतंत्र के लिए इस तरह की घटनाएं बड़े हादसों से कम नहीं हैं. एक ऐसी जम्हूरियत मुल्क के सामने होगी, जिसमें राजनीति का कोई वैचारिक आधार नहीं होगा. मध्यप्रदेश में रविवार को कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे ने पार्टी छोड़कर भाजपा ज्वाइन कर ली.

हालिया दौर संसदीय लोकतंत्र के नजरिये से बड़ा भारी बीता है. अलग-अलग स्तर पर राजनेताओं के पार्टियां छोड़ने की खबरें आती रहीं. इनमें निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं, लोकसभा चुनाव के प्रत्याशी हैं और संगठन के नेता भी हैं. 

पचहत्तर साल के लोकतंत्र के लिए इस तरह की घटनाएं बड़े हादसों से कम नहीं हैं. इतनी लंबी अवधि के बाद अपने नुमाइंदों से यह अपेक्षा तो देश रख ही सकता है कि वे सरकार चलाने की प्रचलित शासन शैलियों के आधार पर ही अपनी राजनीतिक सोच विकसित करें. 

हजार साल की गुलामी के बाद यह तो तय था कि आजाद भारत में सामूहिक नेतृत्व की प्रजातांत्रिक शैली के अलावा कोई अन्य प्रणाली कामयाब नहीं हो सकती, इसीलिए तो भारतीय संविधान निर्माताओं ने करीब तीन साल तक बारीकी से हर बिंदु पर बहस करने के बाद संसदीय लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को स्वीकार किया था. तब शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि आने वाली पीढ़ियां सियासत को सेवा के माध्यम की जगह कारोबार बना देंगी. 

एक ऐसी जम्हूरियत मुल्क के सामने होगी, जिसमें राजनीति का कोई वैचारिक आधार नहीं होगा. निश्चित रूप से यह एक कड़वे सच के रूप में हमारे सामने है. सुनने में अटपटा लगता है कि चंद महीने पहले जो राजनेता विधानसभा के लिए किसी एक पार्टी के टिकट पर चुना जाता है, वह लोकसभा का चुनाव आते-आते अपनी पार्टी छोड़कर प्रतिद्वंद्वी पार्टी में चला जाता है. 

मध्यप्रदेश में रविवार को कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे ने पार्टी छोड़कर भाजपा ज्वाइन कर ली. वे सागर जिले से इकलौती महिला कांग्रेस विधायक थीं. इस तरह बीते डेढ़ महीने में तीन नवनिर्वाचित कांग्रेस विधायक भाजपा में प्रवेश ले चुके हैं. मुरैना जिले से पार्टी के वरिष्ठतम विधायक रामनिवास रावत और छिंदवाड़ा जिले से ही निर्वाचित कांग्रेस विधायक कमलेश शाह भी अपनी पुरानी पार्टी छोड़ चुके हैं. 

इस तरह बुंदेलखंड, चंबल और महाकौशल से कांग्रेस को तगड़े झटके लगे हैं. रही सही कसर मालवा ने पूरी कर दी. वहां भी कांग्रेस के लोकसभा प्रत्याशी अक्षय बम ने ऐन वक्त पर अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और अगले दिन भाजपा की सदस्यता ले ली. कुछ ऐसी ही खबर छत्तीसगढ़ से आई. कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता राधिका खेड़ा ने रायपुर में पार्टी कार्यकर्ताओं पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया और पार्टी ही छोड़ दी. 

इसी कड़ी में ओडिशा से एक कांग्रेस प्रत्याशी सुचरिता मोहंती ने पार्टी का टिकट लौटा दिया. उनका कहना था कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं हैं और पार्टी ने कोई सहायता नहीं की है. इंदौर की घटना पर कांग्रेस को झटका लगना स्वाभाविक ही था. पार्टी प्रत्याशी के चुनाव में हुई गफलत के लिए बगलें झांक रही है. मगर इस घटनाक्रम की प्रतिक्रिया भाजपा में हुई. 

आठ बार सांसद रहीं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इस तरह पार्टी में प्रवेश को गलत परंपरा बताया. उनका कहना था कि समझदार मतदाता यह सवाल करते हैं कि इसकी क्या आवश्यकता थी? भाजपा के भीतर अब यह सवाल भी उठ रहे हैं कि संगठन में सदस्यता से पहले क्या किसी राजनीतिक कार्यकर्ता का वैचारिक आधार नहीं देखा जाना चाहिए. 

इन दिनों बड़ी संख्या में कांग्रेस से राजनेता भाजपा में आ रहे हैं. क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि उन्होंने अपनी विचारधारा छोड़ दी है? यदि नहीं छोड़ी और छोड़ भी दी है तो इसका आकलन करने का क्या पैमाना है? यदि वे अपनी विचारधारा के साथ पार्टी में शामिल हो रहे हैं तो इसका संगठन को नुकसान होना तय है. 

दूसरी बात यह है कि यदि भविष्य में उन्हें लगा कि उनका राजनीतिक हित फिर मूल पार्टी में है तो इस बात की क्या गारंटी है कि वे वापस अपनी पार्टी में लौटकर नहीं जाएंगे? यदि वे वापस नहीं जाते तो दल के आंतरिक तंत्र में नए किस्म की अवसरवादी विचारधारा पनपेगी, जो राष्ट्रहित में नहीं होगा.
असल प्रश्न यहां उत्पन्न होता है.

कोई राजनेता एक पार्टी के चिह्न पर चुनाव मैदान में उतरता है और जीत भी जाता है तो स्पष्ट है कि मतदाताओं ने उसे पराजित प्रत्याशी की विचारधारा के खिलाफ मत दिया है. यही उस उम्मीदवार की सार्वजनिक पहचान होती है.

लोकतंत्र में जनादेश का सम्मान इसी ढंग से होता है. लेकिन जीतने के बाद उस दल को छोड़ने का क्या किसी प्रत्याशी को कोई नैतिक अधिकार रह जाता है? लेकिन गंभीर चेतावनी यह है कि उस समय तो राजनेता अपने हित में दलबदल करने का फैसला कर लेता है, पर दूरगामी नुकसान भी उसे ही उठाना पड़ता है. बरसों की मेहनत से अर्जित साख मिट्टी में मिल जाती है. 

भारत के सियासी इतिहास में अनेक उदाहरण हैं, जब किसी राजनेता ने दल बदल करके तात्कालिक लाभ तो ले लिया, मगर अपनी छवि को हमेशा के लिए क्षति पहुंचाने का सामान भी जुटा लिया. लगभग साढ़े तीन दशक पहले दलबदल कानून बनाए जाने का मुख्य उद्देश्य यह भी था कि भारतीय लोकतंत्र को ऐसी बीमारियों से बचाया जा सके. 

यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इस कानून को पारित करते समय कमोबेश सभी दलों ने एकजुट होकर इसका समर्थन किया था. उन्होंने समझ लिया था कि दलबदल एक ऐसा जहर है, जो किसी भी राजनीतिक दल की देह में फैल सकता है. अफसोस यह है कि जब लग रहा था कि भारतीय प्रजातंत्र परिपक्व हो रहा है और कई देशों के लिए प्रेरणा का प्रतीक बन रहा है, तो दलबदल ने फिर फन उठाया और सियासत को डस लिया.

Web Title: Defection is also an insult to parliamentary democracy

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