गंभीर चेतावनी दे रहा है नदियों का घटता जलस्तर
By लोकमत समाचार सम्पादकीय | Published: April 4, 2024 12:23 PM2024-04-04T12:23:27+5:302024-04-04T12:28:57+5:30
देश में इस वर्ष भीषण गर्मी की भविष्यवाणी के बीच चिंता पैदा करने वाली एक और खबर आई है। देश की सभी बड़ी नदियों का जलस्तर तेजी से गिर रहा है जिससे देश का बड़ा हिस्सा स्थायी जल संकट की चपेट में आ सकता है।
देश में इस वर्ष भीषण गर्मी की भविष्यवाणी के बीच चिंता पैदा करने वाली एक और खबर आई है। देश की सभी बड़ी नदियों का जलस्तर तेजी से गिर रहा है जिससे देश का बड़ा हिस्सा स्थायी जल संकट की चपेट में आ सकता है। केंद्रीय जल आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक ब्रम्हपुत्र, गंगा, सिंधु, पेन्नार, ताप्ती, साबरमती, गोदावरी, महानदी, कावेरी, नर्मदा, यमुना नदियों में पानी तेजी से घट रहा है।
ये नदियां न केवल करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती हैं बल्कि कृषि के लिए भी संजीवनी हैं। ये नदियां बिजली उत्पादन में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रही हैं। इनका जलस्तर कम होने का गर्मी एक तात्कालिक कारण है लेकिन हम जिस तरह से इन नदियों के बहाव क्षेत्र पर अतिक्रमण करते जा रहे हैं, उनमें मिलने वाले नालों तथा अन्य जलस्रोतों को जिस तरह से पाटते जा रहे हैं, उससे नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता जा रहा है।
पिछले वर्ष देश के बड़े हिस्से में सामान्य से कम वर्षा हुई. उसके कारण सभी छोटी-बड़ी नदियों, जलाशयों तथा बांधों में जल संग्रहण अपेक्षा से कम हुआ। इस वर्ष मौसम विभाग के अनुमान के मुताबिक अगर भीषण गर्मी पड़ी तो नदियों एवं अन्य जल संसाधनों में जल स्तर बहुत कम हो जाएगा।
इस बात की प्रबल संभावना है कि हजारों छोटी नदियां, तालाब, जलाशय पूरी तरह से सूख जाएं। कुछ दशक पहले हालात उतने भयावह नहीं होते थे, जितने आज हो रहे हैं। छोटी-बड़ी नदियों में पानी बारहों महीने रहा करता था लेकिन जैसे-जैसे शहरीकरण की रफ्तार बढ़ती गई, नदियों का अस्तित्व खतरे में पड़ता गया।
हजारों छोटी नदियां जो ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल और खेतों में सिंचाई के लिए उपयोगी हुआ करती थीं, भूमिगत जलस्तर को संतुलित रखने का काम करती थीं, खत्म हो गई हैं। देश के छोटे-बड़े शहरों को भी छोटी तथा मध्यम दर्जे की नदियां जलापूर्ति का साधन हुआ करती थीं। सीमेंट-कांक्रीट के जंगल खड़ा करने की होड़ ने इन नदियों का अस्तित्व या तो पूरी तरह से खत्म कर दिया या वे छोटा सा नाला बनकर रह गई हैं।
महाराष्ट्र का मराठवाड़ा जैसा क्षेत्र हमेशा जलसंकट से घिरा रहता है क्योंकि इस इलाके में छोटी नदियां लुप्त हो चुकी हैं और बचीखुची कसर पर्यावरण से छेड़छाड़ ने पूरी कर दी है। यही स्थिति पश्चिम विदर्भ के अकोला, यवतमाल, वाशिम तथा बुलढाणा जिलों की है। मराठवाड़ा तथा पश्चिम विदर्भ के कई इलाकों में हफ्ते-पंद्रह दिन या महीने में एक बार पेयजल आपूर्ति इस वक्त हो रही है।
महाराष्ट्र के नदियों से समृद्ध इलाके पश्चिम महाराष्ट्र में देश की प्रमुख नदियां हैं लेकिन उनकी सहायक नदियों का अस्तित्व लगभग खत्म हो जाने तथा उनके तटों को काटकर इमारतें खड़ी कर देने के कारण उनमें जल स्तर तेजी से गिरा है। गंगा का आकार भी लगातार सिकुड़ता जा रहा है और उसके तट पर बसे कानपुर, वाराणसी, प्रयागराज तथा अन्य प्रमुख शहरों में हर वर्ष गर्मियों में भीषण जलसंकट पैदा हो जाता है।
यही स्थिति मध्यप्रदेश में नर्मदा तथा ताप्ती नदियों की है। जल संरक्षण की बात तो खूब होती है। उसके लिए योजनाएं भी बनाई जाती हैं लेकिन धरातल पर उतना काम नहीं होता, जितना होना चाहिए। छोटे और मध्यम शहरों में छोटे नदी-नालों, तालाबों पर अतिक्रमण रोकने की कोई कोशिश नहीं होती, नदियों की गोद को रेती का अंधाधुंध खनन कर सूना करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, विकास के नाम पर पर्यावरण के साथ बुरी तरह छेड़छाड़ की जा रही है। इन सबका असर नदियों पर पड़ना स्वाभाविक है। पिछले दो-तीन दशकों में स्थिति ज्यादा बिगड़ी है।
हम सबक सीखने को तैयार नहीं हैं और सारा दोष सरकार पर मढ़कर खामोश हो जाते हैं. नदियों को उनकी उपयोगिता के कारण भारतीय संस्कृति में देवी माना जाता है, उनकी पूजा की जाती है लेकिन उनका अस्तित्व हम खुद खत्म करने पर तुले हुए हैं।
हम नदियों को खत्म कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं तथा भावी पीढ़ियों का जीवन संकट में डाल रहे हैं। देश के कई हिस्सों में भयावह जलसंकट हमें हर वर्ष आगाह करता है। अगर हम संभल गए तो बेहतर होगा अन्यथा आने वाली पीढ़ियां पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसेंगी और हमें माफ नहीं करेंगी।