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ब्लॉग: हवा के रुख के अनुसार चल रहा चुनाव आयोग! शिवसेना के मामले में 8 महीने में फैसला, पर लोक जनशक्ति पार्टी पर इतनी शांति क्यों?

By हरीश गुप्ता | Updated: February 23, 2023 14:33 IST

दिवंगत रामविलास पासवान की अध्यक्षता वाली लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के मामले में निर्वाचन आयोग अभी तक फैसला नहीं दे सका है. ये दिलचस्प है कि कि शिवसेना के मामले में केवल 8 महीने में चुनाव आयोग नतीजे पर पहुंच गई.

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शिवसेना चुनाव चिन्ह विवाद में चुनाव आयोग ने बड़ी तत्परता से कदम उठाया और एक साल से भी कम समय में अपना फैसला सुना दिया. शिंदे गुट ने पिछले साल जून में शिवसेना के 40 विधायकों के साथ विद्रोह किया और असली शिवसेना होने का दावा पेश किया. चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह (धनुष बाण) को फ्रीज कर दिया और दोनों गुटों को अस्थायी रूप से दो अलग-अलग चुनाव चिन्ह आवंटित किए. 

चुनाव आयोग ने तेजी से कार्रवाई की और फरवरी तक उसने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना को असली पार्टी घोषित कर दिया और उन्हें मूल चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिया. फैसला विभाजन के 8 महीने के भीतर आ गया जो हाल के इतिहास में एक तरह का रिकॉर्ड है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों को आश्चर्य हो रहा है कि चुनाव आयोग दिवंगत रामविलास पासवान की अध्यक्षता वाली लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के मामले में क्यों शांत बैठा है. 

उनकी मृत्यु के बाद, उनके भाई पशुपति कुमार पारस छह में से पांच लोकसभा सांसदों के साथ अलग हो गए और जून 2021 में दावा किया कि वे असली लोजपा हैं. लेकिन दिवंगत रामविलास पासवान के पुत्र और लोकसभा सांसद चिराग पासवान ने दावा किया कि वे पासवान की विरासत के असली उत्तराधिकारी हैं और उन्होंने चुनाव चिन्ह पर अपना दावा ठोंक दिया. चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर दिया और दोनों गुटों को दो अलग-अलग चुनाव चिन्ह आवंटित कर दिए. 

अजीब बात है कि दोनों गुट एनडीए के प्रति अपनी निष्ठा रखते हैं और पीएम मोदी के नेतृत्व की प्रशंसा करते हैं. पशुपति कुमार पारस कैबिनेट मंत्री हैं जबकि चिराग पासवान अगला फेरबदल होने पर मौका पाने का इंतजार कर रहे हैं. लेकिन इस बात का कोई जवाब नहीं है कि 2021 में बंटवारे के दो साल बीत जाने के बाद भी चुनाव आयोग मामले का फैसला क्यों नहीं कर रहा है.

अब ऑल इज वेल

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सार्वजनिक मंचों पर होने वाली कड़वी बहस अब शांत होती दिख रही है. यदि तिलक मार्ग स्थित भारत की सर्वोच्च अदालत और साउथ ब्लॉक में मोदी प्रतिष्ठान से निकलने वाली रिपोर्टों की मानें तो लोकतंत्र के दोनों महत्वपूर्ण स्तंभ एक अनौपचारिक सहमति पर पहुंच गए हैं. सार्वजनिक रूप से छोटी-छोटी बातों और सामयिक बयानों को छोड़कर, दोनों पक्षों ने शांत रहने का फैसला किया है. 

सूत्रों का कहना है कि दोनों के बीच अनौपचारिक सहमति बन गई है. पता चला है कि भारत के प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाला कॉलेजियम उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति, स्थानांतरण और नियुक्ति के संबंध में सरकार की भावनाओं व सुझावों को ध्यान में रखेगा. एक महीने के भीतर सुप्रीम कोर्ट में हुई सात नई नियुक्तियों पर करीब से नजर डालने से पता चलता है कि मोदी सरकार के विचारों को ध्यान में रखा गया है. 

इसने एक तरह का इतिहास रच दिया क्योंकि उच्चतम न्यायालय 34 की अपनी पूरी क्षमता के साथ कार्य कर रहा है. सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़ के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट के लिए यह एक दुर्लभ उपलब्धि है. सरकार द्वारा एक महीने के भीतर सभी सात नियुक्तियों को मंजूरी दे दी गई. केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजु को लगता है कि उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान एक तरह की असाधारण उपलब्धि हासिल की है.

राहुल के वफादार की उपेक्षा

कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ने के बाद भी राहुल गांधी भले ही के.सी. वेणुगोपाल, रणदीप सुरजेवाला जैसे अपने वफादारों के माध्यम से पार्टी चला रहे थे लेकिन अब उनके कुछ करीबी वफादारों को उस्ताद मल्लिकार्जुन खड़गे का दांव चित कर रहा है. ‘निर्वाचित’ कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे को 100 फीसदी अनुगामी के रूप में नहीं आंका जा सकता है. राहुल गांधी के करीबी अजय माकन पार्टी में खड़गे शासन का स्वाद चख रहे हैं.

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ तीखी नोकझोंक के बाद उन्होंने राजस्थान के प्रभारी महासचिव के पद से इस्तीफा दे दिया. बिना एक पल गंवाए खड़गे ने उनका इस्तीफा स्वीकार कर लिया और उन्हें कोई काम नहीं दिया. 

अजय माकन अब नाराज हैं क्योंकि उनके पास उन राज्यों में भी काम नहीं है जहां चुनाव होने वाले हैं. दूसरी ओर, खड़गे ने रणदीप सुरजेवाला को चुनावी राज्य कर्नाटक का प्रभारी महासचिव बनाकर पुरस्कृत किया है. सुरजेवाला ने बेंगलुरु में किराये पर एक घर लिया है और वहां स्थायी रूप से डेरा डाले हुए हैं. यह खड़गे का गृह राज्य है और वहां दांव पर बहुत कुछ लगा है. माकन की नजर चुनाव रणनीति विभाग के उस पद पर है जिसे एआईसीसी 2024 के चुनावों के लिए स्थापित करने की योजना बना रही है.

तीसरा सेवा विस्तार

भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) शेयर बाजार में एक प्रमुख भूमिका निभाता है और यह तय करने में सक्षम है कि बाजारों को किस तरह से आगे बढ़ना चाहिए. मौजूदा चेयरमैन एम.आर. कुमार से सरकार काफी खुश नजर आ रही है और उन्हें एक के बाद एक एक्सटेंशन दिए जा रहे हैं. सरकार ने कुमार को 2019 में एलआईसी प्रमुख के रूप में नियुक्त किया था और उन्हें 30 जून, 2021 तक इस पद पर रहना था. पहला सेवा विस्तार उन्हें जुलाई 2021 से मार्च 2022 तक दिया गया था और इसके बाद दूसरा विस्तार मार्च 2023 तक दिया गया. 

अब खबरें आ रही हैं कि कुमार को छह महीने की अवधि के लिए एक और विस्तार मिल सकता है क्योंकि नए अध्यक्ष के चयन की प्रक्रिया अभी तक शुरू नहीं हुई है. केंद्र द्वारा एलआईसी अध्यक्ष के पद के लिए आवेदन आमंत्रित करने की संभावना है और जब तक प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती तब तक कुमार इस पद पर बने रह सकते हैं. नॉर्थ ब्लॉक में किसी को पता नहीं है कि सरकार चयन प्रक्रिया जल्दी शुरू क्यों नहीं कर रही है. हो सकता है, कुमार ‘काम के आदमी’ हों.

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