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ब्लॉगः सियासत में पनप रहा क्रूर सामंती मिजाज, नौकरशाही में सच बोलने का साहस नहीं रहा..

By राजेश बादल | Updated: May 10, 2023 15:56 IST

यह विडंबना है कि कार्यपालिका भी उन सामंती बाहुबलियों के सामने सिर झुकाती है। मौजूदा नौकरशाही में गलत के सामने सच बोलने का साहस नहीं रहा। मैंने देखा है कि अच्छे और ईमानदार अफसरों से सामंती प्रवृत्ति वाले राजनेता भी खौफ खाते थे।

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जिस सामंतशाही या राजशाही को हिंदुस्तान ने आजादी के बाद ही दफना दिया था, वास्तव में वह समाप्त नहीं हुई है। लोकतांत्रिक देह की शिराओं और धमनियों में प्रदूषित और जहरीले रूप में आज भी यह दौड़ रही है। कुछ ऐसा समय अवश्य आया, जब लगा कि भारतीय सियासत में इस बीमारी पर काबू पा लिया गया है। पर यह भ्रम था। सामंती कीड़े फिर भी पनपते रहे। नतीजतन आज यह अपने विकराल स्वरूप में है। जब डेढ़ सौ करोड़ नागरिक लोकतांत्रिक प्रणाली के आदी हो चुके हैं तो यह महामारी फैलती ही जा रही है। भारतीय इतिहास ने मध्ययुग में नवाबों और राजा-महाराजाओं के कालखंड की क्रूर व भयानक कथाएं देखी हैं। उस दरम्यान शासन संचालन का कोई सूत्र प्रजा के हाथ नहीं होता था। कोई लिखित संविधान नहीं था। पीढ़ी दर पीढ़ी राजा और उसके उत्तराधिकारी के सनक भरे फैसलों को स्वीकार करना ही अवाम का धर्म था। ताज्जुब है कि जब राष्ट्र साक्षरता के शिखर पर पहुंच रहा है तो आदिम सोच उस पर हावी हो रही है।

हाल ही में अपराध जगत का भारी भरकम रिकॉर्ड रखने वाले बाहुबलियों के तमाम किस्से सामने आए। उत्तर प्रदेश के एक विधायक का वीडियो प्रसारित हुआ। उसमें वे अपने घरेलू नौकर को डंडों से पीटते नजर आ रहे हैं। नौकर का कुसूर था कि उसने अपने काम का पारिश्रमिक मांग लिया था। भले ही ऐसे नेता मतदाताओं के बीच से चुनकर आते हैं लेकिन उनकी कार्यशैली कतई लोकतांत्रिक नहीं होती। कुछ समय पहले तो अनेक प्रदेशों में राजनेताओं ने अपने साथ सैकड़ों हथियारबंद समर्थक रखना शुरू कर दिया था। ज्यादातर ये हथियार बिना लाइसेंस के होते थे। एक तरह से यह निजी सेना ही थी। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में इसके अनेक उदाहरण मिलते थे। 

आज भी बहुत से जनप्रतिनिधि ऐसा करते हैं। उनके सशस्त्र समर्थक चुनाव के दिनों में खौफ पैदा करने का काम करते हैं ताकि नेताजी चुनाव जीत जाएं। चुनाव जीतने के बाद पैसे लेकर मतदाताओं का काम कराना, अवैध धंधों को संचालित करना और भ्रष्टाचार की फसल फैलाते जाने का काम करना इनका मुख्य कारोबार बन जाता है। बिना ठेका लिए वे नदियों की रेत निकालते हैं, खनिजों का उत्खनन कराते हैं और बजट में प्रावधान नहीं होते हुए भी सरकारी पैसों से निजी निर्माण कार्य कराते हैं। वे साम, दाम, दंड और भेद के जरिये अपनी पार्टियों तथा स्वयं को रौबदार बनाए रखते हैं। हर पार्टी दशकों से चुनाव पूर्व कहती आई है कि वह जीतने वाले को ही टिकट देगी। बताने की जरूरत नहीं कि टिकट किसी बाहुबली को ही मिलता है क्योंकि वही धनबल और बाहुबल से चुनाव जीतने की क्षमता रखता है। 

मैं याद कर सकता हूं कि करीब तीन दशक पहले मध्य प्रदेश के एक बाहुबली निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे। उन्हें हाथी चुनाव चिह्न आवंटित किया गया। इसके बाद पूरे इलाके में उनका नारा गूंजा - मुहर लगेगी हाथी पर, नहीं तो गोली खाओ छाती पर, लाश मिलेगी घाटी पर। इसके बाद उनके जीतने में कोई संदेह नहीं रह जाता था। जब वे जीत गए तो उनके घर दरबार लगने लगा। वे निर्वाचित विधायक थे, इसलिए किसी विभाग का अधिकारी उनके दरबार में जाने से मना नहीं कर सकता था। इस दरबार में ही सारे फैसले होते थे। चाहे वे विधि सम्मत हों अथवा नहीं। उन दिनों ऐसे मामले अपवाद स्वरूप ही सामने आते थे। आज हम देखते हैं कि हर जिले में एक या दो ऐसे निर्वाचित जनप्रतिनिधि चुनकर आने लगे हैं, जो अपने स्तर पर ही सारे निर्णय कराते हैं। करीब तीन दशक पहले मैंने टीवी न्यूज के कार्यक्रम के लिए एक रिपोर्ट कवर की थी। एक निर्वाचित जनप्रतिनिधि के भाई ने अपने घर में ही यातना गृह बना रखा था। उसमें अपने से असहमत लोगों अथवा विरोध करने वालों को क्रूर और अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। ठीक अंग्रेजों के जमाने जैसी। भाई की दबंगई के दम पर ही विधायक चुनाव जीता करते थे।

लगभग बीस साल पहले राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में सक्रिय चम्बल घाटी के दुर्दांत डाकू सरगना निर्भय गुर्जर से मैंने कैमरे पर बातचीत रिकॉर्ड की थी। उस समय उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव संपन्न हुए थे और राजस्थान तथा मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने वाले थे। इस डाकू ने बताया कि उसे पार्टी से कोई मतलब नहीं है। वह हर पार्टी को पैसे देता है और अपने उम्मीदवार खड़े करता है। जीतने के बाद यह विधायक उसके लिए काम करते हैं। यही निर्वाचित जनप्रतिनिधि अपनी पसंद के पुलिस अधिकारी उस डाकू के प्रभाव क्षेत्र में तैनात कराते। वे पुलिस अधिकारी कभी डाकू निर्भय गुर्जर को परेशान नहीं करते थे।

यह विडंबना है कि कार्यपालिका भी उन सामंती बाहुबलियों के सामने सिर झुकाती है। मौजूदा नौकरशाही में गलत के सामने सच बोलने का साहस नहीं रहा। मैंने देखा है कि अच्छे और ईमानदार अफसरों से सामंती प्रवृत्ति वाले राजनेता भी खौफ खाते थे। यदि उन्होंने एक बार फाइल पर लिख दिया कि अमुक मामला विधि सम्मत नहीं है तो फिर कोई उस फैसले में बदलाव नहीं कर सकता था। लेकिन आज देखने में आता है कि अफसर नेता के मनमाफिक नोट शीट लिखने और निर्णय लेने के लिए उतावले रहते हैं। उसके पीछे उनके अपने आर्थिक हित भी रहते हैं। प्रशासनिक रीढ़ कमजोर होने का बड़ा नुकसान लोकतंत्र को हुआ है। यह परिदृश्य आने वाले दिनों के लिए खतरे की घंटी इसलिए भी है क्योंकि इन सामंत जनप्रतिनिधियों के बेटे-बेटियां भी सियासत में उनके उत्तराधिकारी बन रहे हैं। वे लोकतंत्र के मायने नहीं समझते और न ही पढ़ते हैं। उनकी दृष्टि में असली लोकतांत्रिक प्रणाली वही है जो उन्होंने अपने पिता के व्यवहार में देखी है। इस तरह अगली पीढ़ी सामंतवाद का और विकराल व भयानक संस्करण उपस्थित करती है।

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