कोविड विषाणु से उपजी महामारी के अप्रत्याशित प्रकोप ने आज सबको हिला कर रख दिया है. इसके पहले स्वास्थ्य की विपदाएं स्थानीय या क्षेत्रीय विस्तार तक सीमित रहती थीं पर कोविड-19 से उपजी स्वास्थ्य की समस्या विश्वव्यापी है और उसकी दूसरी लहर पूरे भारत पर ज्यादा ही भारी पड़ रही है.
आज कोविड की सुनामी में कई-कई लाख लोग प्रतिदिन इसकी चपेट में आ रहे हैं और सारी व्यवस्थाएं तहस-नहस हो रही हैं. कोविड के प्रसार और जीवन के तीव्र नाश की कहानी दिल दहलाने वाली होती जा रही है. इसके आगोश में युवा वर्ग के लोग भी आने लगे हैं और संक्रमण के वायु के माध्यम से होने की पुष्टि ने अज्ञात भय की मात्रा बढ़ा दी है और कुछ समझ में न आने से आम जनता में भ्रम और भय का वातावरण बन रहा है.
टीवी पर पुष्ट-अपुष्ट सूचनाओं की भरमार हो रही है और उन सब को देख कर मन को दिलासा मिलने की जगह मौत के मंडराने का अहसास ही बढ़ता जा रहा है. सोशल मीडिया में भी तरह-तरह के सुझाव और सरोकार को साझा करते लोग नहीं थक रहे. इस माहौल में जिस धैर्य और संयम से स्वस्थ जीवनशैली अपनाने की जरूरत है उसकी तरफ बहुत थोड़े चैनल ही ध्यान दे रहे हैं.
ऐसे में चिंता, भय और दुविधा की मनोवृत्तियां हावी हो रही हैं. लोग दहशत में आ रहे हैं और जीवन की डोर कमजोर लगने लगी है. भारत की आबादी, जनसंख्या का घनत्व, पर्यावरण-प्रदूषण और खाद्य सामग्री में मिलावट, स्वास्थ्य-सुविधाओं की उपेक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण जैसे बदलाव ने साधारण नागरिक के लिए स्वस्थ रहने की चुनौती को ज्यादा ही जटिल बना दिया.
पिछले कुछ वर्षों में स्वास्थ्य की आधी-अधूरी, लंगड़ाती चलती सार्वजनिक या सरकारी व्यवस्था और भी सिकुड़ती चली गई और सरकारों ने इसे निजी मसला बनाना शुरू कर दिया. स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजीकरण ने स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच को आम जनता से दूर करना शुरू कर दिया. निजी क्षेत्र में जन-सेवा की जगह व्यापार में नफा कमाना ही मुख्य लक्ष्य बन गया.
दूसरी ओर इसका दबाव झेलती जनता के सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आचरण में विसंगतियां भी आने लगीं. कोविड जैसी विकट त्रासदी ने सबकी पोल खोल दी है. यह अलग बात है कि त्रासदी का ठीकरा हर कोई दूसरे के सिर पर फोड़ने को तत्पर है और जीवन-मृत्यु के प्रश्न में भी सियासी फायदा ढूंढ़ा जा रहा है. फरवरी महीने तक कोविड के असर में गिरावट दिखने से सबके नजरिये में ढिलाई आ गई थी.
इतनी कि जो स्वास्थ्य सुविधाएं कोविड के लिए शुरू हुई थीं उनको बंद या स्थगित कर दिया गया था. साथ ही आम आदमी राहत की सांस लेने लगे थे मानो इस कष्ट से मुक्ति मिलने वाली है. बाजार और विभिन्न आयोजनों में भीड़-भाड़ बढ़ने लगी तथा सामाजिक दूरी बनाए रखने और मास्क लगाने की बचाव की तरकीबों को नजरअंदाज किया जाने लगा. पर मार्च में सब कुछ बदलने लगा.
अचानक तेजी से कोविड के मरीजों की संख्या बढ़ी तो जो चारों ओर अफरातफरी मची, उसका किसी को अनुमान नहीं था. आज मरीज और अस्पताल सभी त्राहिमाम की गुहार लगा रहे हैं. दिल्ली, लखनऊ, बनारस, बेंगलुरु, बंबई और अन्य सभी शहरों में चिकित्सकीय ढांचा चरमराने लगा और अस्पताल में बेड, दवा और आक्सीजन की किल्लत शुरू हो गई. इन सबकी कालाबाजारी शुरू हो गई.
नैतिकता और मानवीयता को दरकिनार कर बाजार में कई-कई गुना महंगे मूल्य पर दवा, आक्सीजन सिलेंडर और इंजेक्शन बिकने लगे. दूसरी तरफ सप्ताहांत की बंदी की खबर के साथ शराब की दुकानों पर लम्बी कतार लग गई थी. आज की त्रासदी यह है कि सरकारी व्यवस्था ऐसी है कि लोग वहां जाने से घबरा रहे हैं और अक्सर उसका लाभ जिनकी पहुंच है उन्हीं को मयस्सर है.
वहीं निजी अस्पताल सेवा की मनचाही कीमत मांगते हैं. हम सब एक समाज के रूप में इतने लाचार कैसे होते जा रहे हैं और कहां पहुंचेंगे, यह बड़ा प्रश्न है जो हमारे स्वभाव में लगातार आ रही गिरावट की गहन तहकीकात चाहता है. पर तत्काल की जरूरत यह है कि महामारी से उपज रही त्रासदी का सारे दुराग्रहों से मुक्त होकर एकजुट हो कर सामना किया जाए.
हम सब को संयम और धैर्य के साथ यह कठिन जंग जीतनी होगी. मन में दृढ़ता के साथ जीवन की रक्षा ही सर्वोपरि है. यदि जीवन बचा रहा तो सब कुछ फिर हो सकेगा. जीवन का कोई विकल्प नहीं है. आज मन और शरीर दोनों के लिए सकारात्मक रूप से प्रतिबद्धता की जरूरत है. इसके लिए सबको आगे आ कर सहयोग करने की जरूरत है.