डॉ. एस.एस. मंठा का ब्लॉग: श्रमिकों के लिए कठिन होती परिस्थितियां
By डॉ एसएस मंठा | Published: June 19, 2020 11:51 AM2020-06-19T11:51:00+5:302020-06-19T11:51:00+5:30
देश का लगभग 90 प्रतिशत कार्यबल असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है. नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च का अनुमान है कि देश की जीडीपी का लगभग 62 प्रतिशत, राष्ट्रीय बचत का 50 प्रतिशत और राष्ट्रीय निर्यात का 40 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र पर निर्भर है.
हमने हाल ही में श्रमिकों को अपने परिवारों के साथ बड़े पैमाने पर पलायन करते देखा है, जो विभिन्न राज्यों से अपने गांवों की ओर लौट रहे थे. उनके भूखे-प्यासे, नंगे पैर सैकड़ों किमी पैदल चलने के दृश्य बेहद निराशाजनक थे. लगभग अचानक किए गए संपूर्ण लॉकडाउन ने उन्हें शब्दश: सड़क पर ला दिया था. क्या उनकी यात्र को बेहतर ढंग से प्रबंधित करना संभव नहीं था? ट्रकों में मवेशियों की तरह ठुंसे लोग किसी की भी आंखों में आंसू लाने के लिए पर्याप्त थे. बड़े पैमाने पर इस मानवीय संकट से निपटने की योजना बनाई जानी चाहिए थी और लोगों को उनके घरों तक पहुंचाने का प्रबंध किया जाना चाहिए था.
दुर्भाग्य से, पैदल जाने वाले कई लोगों की रास्ते में ही मौत हो गई, कई बीमार हो गए. ऐसा लग रहा था कि मानवता खत्म हो गई है और संवेदनाएं मर गई हैं. आम तौर पर ग्रामीणों का प्रवास बेहतर अवसरों की तलाश में होता है. गरीबी, खाद्य असुरक्षा, रोजगार के अवसरों की कमी, प्राकृतिक संसाधनों की कमी आमतौर पर प्रवास के प्रमुख कारण होते हैं. अचानक किए गए लॉकडाउन ने उस बहुत ही नाजुक रिश्ते को उजागर कर दिया है जो प्रवासी श्रमिकों का अपने नियोक्ताओं के साथ था.
देश का लगभग 90 प्रतिशत कार्यबल असंगठित क्षेत्र में कार्यरत है. नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च का अनुमान है कि देश की जीडीपी का लगभग 62 प्रतिशत, राष्ट्रीय बचत का 50 प्रतिशत और राष्ट्रीय निर्यात का 40 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र पर निर्भर है. वर्ष 2018 में 50 प्रतिशत भारतीय आबादी का श्रमबल में योगदान था, जिसमें से 81 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में थे. असंगठित क्षेत्र में प्राय: ऐसे उद्यम होते हैं जिनमें कठोर परिश्रम करना पड़ता है. उनके लिए न्यूनतम वेतन की कोई अवधारणा नहीं है और न ही उन्हें कोई सुरक्षा प्रदान की जाती है. प्रवासी मजदूर गरीबी में जीवन बिताते हैं, मुश्किल से अपनी आजीविका चलाते हैं और गांव में अपने परिवार को कुछ सौ रु. ही भेज पाते हैं.
अब जब लॉकडाउन को धीरे-धीरे उठाया जा रहा है, क्या प्रवासी मजदूर शहरों की ओर वापस लौटेंगे? आखिरकार उन्हें अपने घरों तक पहुंचने में महीनों का समय लगा है. आम तौर पर प्रवासी मजदूरों को कांट्रैक्टर या ठेकेदार द्वारा नियोजित किया जाता है. इस व्यवस्था के कारण कई श्रमिकों को पता ही नहीं होता कि उन्होंने किस कंपनी के लिए काम किया है. लॉकडाउन लागू होने के बाद इन ठेकेदारों ने भी श्रमिकों को उनके भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था. मजदूर उन परिस्थितियों में कड़ी मेहनत करते हैं जो उनके लिए कभी सुरक्षित नहीं होती है. महामारी ने श्रमिकों के लिए परिस्थितियों को और असुरक्षित बना दिया है.