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ब्लॉग: आरक्षण-नीति की अंत्येष्टि हो चुकी है, बस बच गया है इसका लगातार होता राजनीतिक दोहन

By अभय कुमार दुबे | Updated: November 15, 2022 10:10 IST

आर्थिक आधार पर आरक्षण को मंजूरी आरक्षण के प्रावधानों को राजनीतिक गोलबंदी के लिए इस्तेमाल करने का सबसे बड़ा उदाहरण है. कोई शक नहीं कि आरक्षण-नीति की अंत्येष्टि हो चुकी है.

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भारतीय जनता पार्टी 1990 से ही कोशिश कर रही थी कि आरक्षण देने की शर्तों में किसी न किसी प्रकार आर्थिक आधार जोड़ दिया जाए. केवल इसी तरह भाजपा ऊंची जातियों के खाते-पीते हिस्सों को स्थायी लाभार्थी के रूप  में अपना स्थायी वोटर बना सकती थी. भाजपा सरकार ने संसद में इसी मकसद से संविधान संशोधन पेश किया, और तीन दिन के भीतर-भीतर ज्यादातर राजनीतिक दलों की मदद से उस संविधान को बदल दिया गया जिसे बनाने वाली संविधान सभा ने ऊंची जातियों को आरक्षण देने पर विचार तक करने से इनकार कर दिया था. 

सुप्रीम कोर्ट में जब इस संशोधन को चुनौती दी गई तो उसने भी काफी दिन तक लटकाने के बाद इस  पर अपनी मुहर लगा दी. आरक्षण के प्रावधानों को राजनीतिक गोलबंदी के लिए इस्तेमाल करने का यह सबसे बड़ा उदाहरण है. सामाजिक-आर्थिक रूप से रंग-रुतबे वालों के सामने आरक्षण को रख कर लंबे अरसे से उनके वोट हासिल किए जा रहे थे. यह काम भी भाजपा ने शुरू किया था जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने राजस्थान में जाटों को आरक्षण देकर उनके वोट कांग्रेस के खाते से निकाल लिए थे.

शायद इसीलिए समाजशास्त्री प्रोफेसर सतीश देशपांडे ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कहा है कि इससे सामाजिक न्याय और आरक्षण-नीति की अंत्येष्टि हो गई है. मोटे तौर पर उनकी बात सही मानी जा सकती है. लेकिन, ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर यह एक अधूरा सच ही लगता है. यह तथ्य आम तौर से प्रकाश में आने से रह जाता है कि मंडल आयोग की रपट सर्वसम्मत नहीं थी. 

आयोग के एकमात्र दलित सदस्य आर.एल. नायक ने आयोग की सिफारिशों  पर अपनी असहमति दर्ज कराई थी. नायक का कहना था कि अन्य पिछड़े वर्ग को मोटे तौर पर बराबर-बराबर के दो हिस्सों में बांट कर देखना चाहिए. एक हिस्सा उन जातियों का है जो खेतिहर हैं. दूसरा हिस्सा उनका है जो कारीगर जातियां हैं. खेतिहर जातियां अपेक्षाकृत संसाधन-संपन्न हैं, और कारीगर जातियां छुआछूत को छोड़ कर ऐसी प्रत्येक दुर्बलता की शिकार हैं जिनका सामना पूर्व-अछूत समुदाय करते हैं. ऊपर से बाजार और तकनीक के विकास के कारण उनकी रोजी-रोटी की संभावनाओं का लगातार क्षय होता जा रहा है. 

दरअसल, इन जातियों को आरक्षण की कहीं अधिक आवश्यकता है. इस विश्लेषण का नतीजा यह था कि पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण में से एक अच्छा-खासा हिस्सा कारीगर जातियों के लिए अलग से निर्धारित किया जाना चाहिए. नायक की इस सिफारिश को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता वाले आयोग ने ठुकरा दिया. उनकी असहमति का दस्तावेज आयोग की रपट का अंग बन कर रह गया. 

बाद में जब विश्वनाथ प्रताप  सिंह ने अपनी राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने के लिए इन सिफारिशों को लागू किया तो उन्होंने भी नायक की आपत्तियों को नजरअंदाज कर दिया. सामाजिक न्याय की आकर्षक बातों को अगर एकबारगी अलग रख दिया जाए तो कुल मिलाकर मंडल कमीशन की रपट खेतिहर जातियों के सशक्तिकरण और कारीगर जातियों को दुर्बलता के लिए अभिशप्त रखने की कवायद ही साबित हुई.

उसी कहानी को आज दूसरे रूप  और संदर्भ में दोहराया जा रहा है. संविधान संशोधन और उसकी तस्दीक करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार जिन ऊंची जातियों की आमदनी आठ लाख या उससे कम है, वे दस फीसदी आरक्षण की हकदार हैं. यानी ऊंची जातियों के जो परिवार 67,000 रुपए प्रति माह कमाते हैं, वे इस सीमा के मुताबिक आर्थिक रूप से दुर्बल माने जाएंगे. क्या यह सीमा निर्धारित करते समय सरकार या सुप्रीम कोर्ट ने भारत में गरीबी की सीमा-रेखा पर विचार नहीं किया था?

ताजे आंकड़ों के अनुसार इस सीमा-रेखा पर मौजूद पांच सदस्यीय परिवार साल में महज 72,000 रुपए ही कमा पाता है. यानी, यह फैसला इससे दस गुना से ज्यादा कमाने वाले लोगों को आरक्षण प्रदान कर देगा. पहली नजर में ही यह उन लोगों और परिवारों को विशेष सुविधा देने का प्रावधान है जो कहीं से भी गरीबी के दायरे में नहीं हैं. उन्हें आराम से निम्न-मध्यम वर्ग या मध्यम वर्ग की श्रेणी में रखा जा सकता है. 

दूसरे, इस विडंबना पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि संविधान सभा जिन समुदायों को आरक्षण देने के बारे में सोचने के लिए भी तैयार नहीं थी, उन्हें आठ लाख रुपए आमदनी की सीमा सकारात्मक रूप से विशेष सुविधाएं प्रदान कर देती है. और, जिन समुदायों को संविधान आरक्षण देने की जद्दोजहद कर रहा था, उन पिछड़े समुदायों को मलाईदार परत से जुड़ी आमदनी की यही सीमा आरक्षण से वंचित करने की पेशकश करती हुई दिखती है.

इसमें कोई शक नहीं कि आरक्षण-नीति की अंत्येष्टि हो चुकी है. जो शेष रह गया है वह है इसका निरंतर होता हुआ राजनीतिक दोहन. जब वी.पी. सिंह ने नब्बे में ओबीसी आरक्षण लागू किया था, उसी समय भाजपा अकेली ऐसी राजनीतिक ताकत थी जिसने अपने घोषणा पत्र में आर्थिक आधार के नाम पर आरक्षण देने की मांग की थी. वह ओबीसी आरक्षण का विरोध नहीं कर सकती थी, लेकिन अपने ऊंची जातियों के जनाधार को संबोधित करना उसके लिए जरूरी था. विडंबना यह है कि आज तकरीबन हर पार्टी उसके तय किए गए इस एजेंडे को ही आगे बढ़ाते हुए दिख रही है.

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