ब्लॉग: कांग्रेस की न्याय यात्रा और विपक्षी एकता

By राजेश बादल | Published: January 17, 2024 11:58 AM2024-01-17T11:58:18+5:302024-01-17T11:59:25+5:30

राजनीतिक पंडित इन दिनों हैरान हैं। देश आम चुनाव के मुहाने पर है और कांग्रेस पार्टी अपनी अलग खिचड़ी पकाने में लगी है। राहुल गांधी की न्याय यात्रा सियासी है अथवा उसका चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। अगर लेना-देना है तो यह इंडिया की यानी संयुक्त प्रतिपक्ष की ओर से क्यों नहीं निकाली जा रही है? क्या न्याय यात्रा से मतदाता प्रभावित होंगे? 

Congress Nyaya Yatra and opposition unity | ब्लॉग: कांग्रेस की न्याय यात्रा और विपक्षी एकता

फाइल फोटो

Highlightsदेश आम चुनाव के मुहाने पर है और कांग्रेस पार्टी अपनी अलग खिचड़ी पकाने में लगी हैराहुल गांधी की न्याय यात्रा सियासी है अथवा उसका चुनाव से कोई लेना-देना नहींक्या यह यात्रा मतदाताओं के समर्थन को वोट में बदल सकेगी?

राजनीतिक पंडित इन दिनों हैरान हैं। देश आम चुनाव के मुहाने पर है और कांग्रेस पार्टी अपनी अलग खिचड़ी पकाने में लगी है। राहुल गांधी की न्याय यात्रा सियासी है अथवा उसका चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है। अगर लेना-देना है तो यह इंडिया की यानी संयुक्त प्रतिपक्ष की ओर से क्यों नहीं निकाली जा रही है? क्या न्याय यात्रा से मतदाता प्रभावित होंगे? 

क्या यह यात्रा मतदाताओं के समर्थन को वोट में बदल सकेगी? ऐसे ही तमाम सवाल विश्लेषकों में चर्चा का विषय बने हुए हैं। अवाम के बीच भी इस यात्रा के असर पर दुविधा दिखाई दे रही है। हालांकि इंडिया गठबंधन के घटक दल भी नहीं समझ पा रहे हैं कि एक तरफ गठबंधन का न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय नहीं हुआ है, सीटों के तालमेल का कोई स्पष्ट रूप सामने नहीं है। प्रचार अभियान की रूपरेखा नहीं बनी है और न्याय यात्रा निकाली जा रही है।

राजनीतिक और कूटनीतिक प्रेक्षकों के बीच इन प्रश्नों का उभरना वाजिब है। कांग्रेस अपने अस्तित्व में आने के बाद से पहली बार गहरे गंभीर संकट का सामना कर रही है। इतने दुर्बल और निर्बल आकार में मतदाताओं ने इस विराट आकार वाली पार्टी को कभी नहीं देखा। इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं कि भारतीय लोकतंत्र की सेहत के मद्देनजर मजबूत प्रतिपक्ष का होना अत्यंत आवश्यक है। लेकिन हुआ इसका उल्टा है। दस वर्षों में प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी कांग्रेस और क्षेत्रीय तथा प्रादेशिक दलों की संसद और विधानसभाओं में नुमाइंदगी कम होती जा रही है। उसका संगठन चरमराया सा है। 

वर्षों से साथ रहे नेता और कार्यकर्ता दल से किनारा कर चुके हैं। पार्टी के आनुषंगिक संगठन कमजोर हुए है। इसके बाद भी सबसे पुरानी और दशकों तक सत्ता में रहने वाली कांग्रेस की ओर यदि विपक्षी पार्टियां आशा भरी निगाहों से देख रही हैं तो इसमें क्या अनुचित है। अपने बेहद महीन आकार में भी कांग्रेस करीब 14 करोड़ वोटों के ढेर पर बैठी है। उसकी तुलना में उसके सारे सहयोगी दल पौन करोड़ से लेकर दो ढाई करोड़ मतदाताओं के समर्थन के साथ सत्ता में भागीदारी का सपना देख रहे हैं। 

जाहिर है कि उनकी महत्वाकांक्षा बिना कांग्रेस को साथ लिए पूरी नहीं हो सकती। ऐसे में उनका विरोधाभासी रवैया यकीनन हैरान करने वाला है। वे एक तरफ कांग्रेस की इस बात के लिए अरसे तक आलोचना करते रहे हैं कि बड़ी पार्टी होने के नाते वह एकता की पहल नहीं कर रही है। जब कांग्रेस ने इसकी शुरुआत की तो भी वे आक्रामक मूड में दिखाई देते हैं। सीटों के तालमेल पर वे रत्ती भर टस से मस नहीं होना चाहते। चाहे वह तृणमूल कांग्रेस हो अथवा समाजवादी पार्टी। 

उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना हो या फिर आम आदमी पार्टी। वे अपने आग्रह पर अड़े हुए हैं। बंगाल और उत्तर प्रदेश में ममता और अखिलेश एक-दो सीटों से ज्यादा कांग्रेस को नहीं देना चाहते। जिस दल की कोख से उनका वोट बैंक निकला है, उसी को लेकर वे भयभीत दिखाई देते हैं। उन्हें डर है कि कांग्रेस से जो मतदाता छिटक कर समाजवादी पार्टी या तृणमूल कांग्रेस में आए हैं, वे कहीं वापस कांग्रेस के खाते में न लौट जाएं। अल्पसंख्यक मतदाताओं का तो वैसे भी अब प्रादेशिक और क्षेत्रीय दलों से मोहभंग होने लगा है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर ये दल उनके हितों की रक्षा करने में कामयाब नहीं रहे हैं। इसके अलावा इन पार्टियों में उनका प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है। 

ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि असुरक्षा और भय की मानसिकता के साथ क्या क्षेत्रीय और प्रादेशिक दल सचमुच लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका के साथ न्याय कर सकेंगे? कांग्रेस ने अपने हालिया ऐलान में तीन सौ के आसपास उम्मीदवार ही मैदान में उतारने का फैसला किया है। इतनी कम सीटों पर तो उसने कभी चुनाव नहीं लड़ा। इसके बावजूद विपक्षी दल उससे और अपेक्षा कर रहे हैं। यह लोकतांत्रिक गठबंधन की स्वस्थ्य अपेक्षा नहीं मानी जा सकती। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने विस्तार और मजबूती के लिए काम करना चाहेगी। अगर यह छूट छोटे दल लेना चाहते हैं तो फिर कांग्रेस क्यों न सोचे?

क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा का भी बहुत खुले दिल से स्वागत नहीं किया था और अनमने अंदाज में उसका समर्थन किया था। इसके बाद राहुल गांधी की न्याय यात्रा के साथ भी वे न्याय नहीं कर रहे हैं। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले उन्हें जिस आक्रामक ढंग से इस यात्रा में शामिल होना चाहिए था, वैसा नहीं हुआ। खुलकर वे न्याय यात्रा के साथ भी नहीं आ रहे हैं। एकाध अपवाद को छोड़ दें तो हम पाते हैं कि वे राहुल गांधी के नेतृत्व को लेकर सहज नहीं हैं। उन्हें लगता है कि न्याय यात्रा बंगाल, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार समेत चौदह राज्यों से निकलेगी तो कहीं कांग्रेस का खोया हुआ जनाधार न उसे मिल जाए। इसलिए वे घूंघट की ओट में समर्थन देते हैं और आपसी चर्चाओं में घूंघट हटाकर बात करते हैं। वैचारिक आधार पर देखें तो उनकी यह भूमिका उन्हें लोकतांत्रिक रूप से परिपक्व नहीं बनाती।

इंडिया गठबंधन में शामिल पार्टियों की एक मुश्किल और है। वे लोकतंत्र बचाने के नाम पर तो एकजुट होते हैं, तानाशाही से दूर रहने का नारा देते हैं, मगर उनके अपने दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। यह क्षेत्रीय पार्टियां एक बड़े नाम और उसके कुनबे के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई हैं। उनके भीतर भी स्थानीय स्तर पर संगठन के वैध चुनाव का कोई तरीका विकसित नहीं हुआ है। जब तक कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष का बाकायदा निर्वाचन नहीं कराया था,तब तक वे कांग्रेस के साथ बहुत शत्रुतापूर्ण व्यवहार नहीं करते थे। 

अब कांग्रेस ने अपने भीतर निर्वाचन कराए और मल्लिकार्जुन खड़गे के रूप में एक दलित नेता को चुन लिया तो फिर वे इसे स्वाभाविक ढंग से पचा नहीं पा रहे हैं। नैतिक धरातल पर वे अब कांग्रेस से अपेक्षाकृत नीचे खड़े नजर आ रहे हैं। कांग्रेस पर वे चाहे जितने मतभेद रखें, पर उन्हें अपने को वैचारिक और नैतिक रूप से कांग्रेस के समकक्ष तो लाना ही होगा। यह काम मुश्किल तो नहीं, मगर आसान भी नहीं है। यदि वे भारतीय जनता पार्टी से वाकई मुकाबला करके प्रतिपक्ष को मजबूत बनाना चाहते हैं तो उन्हें अपने कुछ राजनीतिक हितों की कुर्बानी देनी ही होगी।

Web Title: Congress Nyaya Yatra and opposition unity

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