अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: बसपा के जनाधार पर कांग्रेस की है नजर!

By अभय कुमार दुबे | Published: October 17, 2023 10:14 AM2023-10-17T10:14:30+5:302023-10-17T10:15:19+5:30

आंबेडकरवादियों और बहुजनवादियों की परियोजना अपनी गोधूलि बेला में प्रतीत हो रही है. ऐसे में कांग्रेस द्वारा कांशीराम की राजनीतिक विरासत के जरिये दलित वोटों की गोलबंदी का प्रयास करना एक दिलचस्प रणनीति है.

Congress has its eye on BSP's support base | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: बसपा के जनाधार पर कांग्रेस की है नजर!

फाइल फोटो

Highlightsमायावती की राजनीतिक निष्क्रियता और रणनीतिक रूप से भाजपा समर्थक रुझान उनके भविष्य को सांसत में डाल रहे हैं.चुनावों में दलित वोटों की खींचतान मच जाती है.उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख पहलू गैर-जाटव दलित वोटों को अपनी ओर खींचना है.

दलित राजनीति अपने होने के बावजूद आज वैसी नहीं रह गई है जैसी वह शुरुआत में थी या जैसा उसे वैचारिक रूप से कल्पित किया गया था. आज की तारीख में दलित नामक छतरी के नीचे खड़ी अनुसूचित जातियों की वोटिंग प्राथमिकताओं के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं रह गया है. 

आंबेडकरवादियों और बहुजनवादियों की परियोजना अपनी गोधूलि बेला में प्रतीत हो रही है. ऐसे में कांग्रेस द्वारा कांशीराम की राजनीतिक विरासत के जरिये दलित वोटों की गोलबंदी का प्रयास करना एक दिलचस्प रणनीति है. यह कितनी सफल होगी, कितनी विफल- यह इस बात पर निर्भर है कि मायावती और बसपा की तरफ से इसकी प्रतिक्रिया में क्या कदम उठाए जाते हैं. 

फिलहाल मायावती की राजनीतिक निष्क्रियता और रणनीतिक रूप से भाजपा समर्थक रुझान उनके भविष्य को सांसत में डाल रहे हैं. कांग्रेस ने कांशीराम की तस्वीर लगा कर उनकी राजनीतिक विरासत को अपनाने का योजनाबद्ध अभियान शुरू कर दिया है. हम जानते हैं कि कांशीराम के कांग्रेस के बारे में क्या विचार थे. वे चाहते थे कि कांग्रेस किसी न किसी प्रकार कमजोर होती चली जाए और अंतत: खत्म हो जाए. 

ऐसा लगता है कि पिछड़ी जातियों की गोलबंदी के दायरे में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में कांग्रेस के उतरने के पीछे इरादा यह है कि अतिपिछड़ी जातियों को पूरी तरह से भाजपा के पाले में जाने से रोका जा सके. दूसरी तरफ संभवत: कांग्रेस को यह भी लग रहा है कि मायावती की निष्क्रियता से बहुजन समाज पार्टी का दलित जनाधार ‘फ्लोटिंग’ होने की तरफ बढ़ रहा है. 

इससे पहले कि उसे भाजपा हड़प ले, कांग्रेस चाहती है कि उसे अपनी ओर खींचने का प्रयास किया जाए. आखिर एक लंबे समय तक ये दलित मतदाता कांग्रेस को वोट दे कर जिताते रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं कि पहले डॉ. आंबेडकर और फिर कांशीराम द्वारा चलाया गया दलित राजनीतिक प्रोजेक्ट अगर बिखरा नहीं तो बंट अवश्य गया है. 

इस विडंबना को कैसे नजरंदाज किया जा सकता है कि जो दलित शब्द सत्तर के दशक से ही धीरे-धीरे अनगिनत छोटी-बड़ी बिरादरियों में बंटी अनुसूचित जातियों की राजनीतिक अस्मिता का प्रतिनिधि वाहक बनता चला गया था, उसके विश्लेषण को एक श्रेणी की तरह इस्तेमाल करने पर अब इन जातियों की राजनीति एकता का बोध नहीं होता. 

चुनावों में दलित वोटों की खींचतान मच जाती है. उत्तर प्रदेश में भाजपा की रणनीति का एक प्रमुख पहलू गैर-जाटव दलित वोटों को अपनी ओर खींचना है. उसे भरोसा है कि वह ऐसा कर पाएगी. इसी तरह समाजवादी पार्टी को भी बीच-बीच में लगता रहता है कि अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जाटवों के बाद संख्याबल में सबसे मजबूत पासी जाति के वोट इस बार उसे मिल सकते हैं. 

दलित एकता का बिखराव इस कदर बढ़ चुका है कि अब कोई औपचारिक रूप से भी नहीं पूछता कि बहुजन समाज पार्टी को जाटव वोटों के अलावा कौन सी दलित बिरादरी के वोट मिलने वाले हैं. यह एक राजनीतिक समझ बन चुकी है कि मायावती अब वास्तविक अर्थों में ‘दलित नेता’ न रह कर महज जाटव नेता बन कर रह गई हैं. 

उनकी मुश्किल और भी बढ़ने वाली है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में जाटवों पर उनके दबदबे को भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावण से चुनौती मिल रही है. कांशीराम को एक जाटव नेता की खोज थी (उ.प्र. की अनुसूचित जातियों में सत्तर फीसदी जाटव ही हैं), जो उनके बामसेफ और डीएस-फोर के सहयोगियों में नहीं था. इस खोज में उनके हाथ मायावती लगीं जो आज ‘बहिनजी’ के रूप में बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा हैं. 

लेकिन क्या बहुजन थीसिस के आईने में देखने पर उन्हें कांशीराम का उत्तराधिकारी माना जा सकता है? कांशीराम ने जाटवों के नेतृत्व में अन्य दलित जातियों, अति-पिछड़ों और गरीब मुसलमानों को जोड़ कर एक बहुजन गुलदस्ता बनाया था. मायावती द्वारा पिछले बीस साल में जिस शैली की राजनीति की गई, उसके संचित परिणाम के कारण आज उनके साथ न तो अति-पिछड़े हैं, न ही मुसलमान. 

ये वोट उन्हें तब मिलते हैं जब वे इनमें से किसी को टिकट देती हैं. जाटव मतदाता आज भी हाथी पर बटन दबाता है, लेकिन अगर मायावती इसी तरह चुनाव की होड़ में मुख्य खिलाड़ी बनने से चूकती रहीं तो अगले चुनावों में वह अपना वोट बर्बाद करने से बचने के बारे में सोचने लगेगा. मायावती की इन अनिश्चितताओं की झलक 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा की चुनावी रणनीति में भी देखी जा सकती है. 

मीडिया मंचों पर सक्रिय भाजपा-रुझान वाले टिप्पणीकारों और भाजपा नेताओं के वक्तव्यों से पहले तो यह दिखाने का प्रयास हुआ कि लड़ाई सीधी सपा और भाजपा में है. लक्ष्य यह था कि गैर-जाटव वोटों को अपनी ओर खींचे रहने की सुविधा मिले. 

लेकिन जब भाजपा ने देखा कि गैर-जाटव वोट केवल उसी को नहीं सपा को भी मिलने वाले हैं, और उसे यह भी लगा कि मायावती के होड़ में रहने के कारण कुछ भाजपा-विरोधी जाटव वोट भी सपा की तरफ जा सकते हैं, तो मीडिया मंचों पर बसपा की ‘ताकत’ को कम करके न आंकने की चेतावनियां दर्ज कराई जाने लगीं.

Web Title: Congress has its eye on BSP's support base

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