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पुस्तक समीक्षाः एकसाथ कई मोर्चे पर लड़ता है देश का किसान, लेकिन इसका कोई संगी नहीं!

By आदित्य द्विवेदी | Updated: August 10, 2019 15:58 IST

Tera Koi Sangi Nahi (Book Review) इस उपन्यास को पूरा पढ़ने के बाद आपके मन में कुछ सवाल खड़े होते हैं। आप इनके संभावित जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे। आपको महसूस होगा कि इसे थोड़ा और विस्तार दिए जाने की जरूरत थी। आखिर, बलेसर ऐसा कदम क्यों उठाते हैं?

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किताबः तेरा कोई संगी नहीं (उपन्यास)लेखकः मिथिलेश्वरप्रकाशकः लोकभारती पेपरबैक्सपेजः 174मूल्यः 200 रुपये

'हमारी खेती में उतार-चढ़ाव कब नहीं हुए हैं। कभी बाढ़ तो कभी सूखे से हमारा सामना होता रहा है। लेकिन अपनी खेती के सुख-दुख में हमारे मन को जी इत्मीनान रहा है वह किसी दूसरे धंधे में नहीं रह सकता। बुजर्गों ने ठीक ही कहा है- उत्तम खेती, मध्यम बान... नीच चाकरी, भीख निदान।'

गांव की चौपाल को संबोधित करते हुए बलेसर ये बातें पूरे आत्मविश्वास के साथ कहता है। लेकिन शायद उस वक्त तक उसे एहसास नहीं हुआ होता कि एक किसान को सिर्फ बाढ़ और सूखे का ही सामना नहीं करना पड़ता। कई मोर्चे पर एकसाथ लड़ना होता है। मिथिलेश्वर ने 'तेरा कोई संगी नहीं' उपन्यास में किसानों की समस्याओं का राई-रक्स पेश किया है।

भारत को आजादी मिले सात दशक से ज्यादा वक्त गुजर चुका है। यहां की करीब 70 प्रतिशत आबादी खेती पर निर्भर है। लेकिन इसके बावजूद यह यह काम निरंतर उपेक्षित और परेशानी भरा माना जाता है। मिथिलेश्वर का यह उपन्यास किसानों की समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए इसके नतीजों के प्रति भी सचेत करता है। आखिर क्या कारण है कि एक किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता? यह उपन्यास इस सवाल का भी जवाब देता है।

बलहारी गांव के बलेसर 'बत्तीस बिगहवा' (बत्तीस बीघे खेत) के मालिक हैं। नहर के पानी, खेती का बढ़ता खर्च और मुनाफे में कमी जैसी समस्याओं से जूझते हुए भी उन्हें अपने खेत देखकर गर्व की अनूभूति होती है। उनका मानना है कि वो किसी के गुलाम तो नहीं हैं। लेकिन उनके तीन बेटों की सोच उनसे बिल्कुल अलग है। बेटे पलायनवादी धारा पर विश्वास रखते हैं। उनका मानना है कि शहर में निवेश का समय है। गांवों में सिवाए जिल्लत के कुछ नहीं रखा। गांव की खेती-बाड़ी बेचकर शहर में रहना चाहिए।

तीनों बेटों की खेती बेचने की समस्या के सामने वो डंटकर खड़े रहते हैं तभी उनकी पत्नी को लकवा मार जाता है। ना चाहते हुए भी इलाज के लिए उन्हें शहर जाना पड़ता है। क्या बलेसर अभी भी अपने बेटों के सामने उसी दृढ़ निश्चियता के साथ खड़े रह पाएंगे? क्या उनके बेटे अपने मंसूबों में कामयाब हो पाएंगे? इस सवाल का जवाब जानने के लिए इस किताब को पढ़ना चाहिए। बाप-बेटों के बीच संवाद किसानों की समस्याओं की कई परत खोलकर रख देते हैं।

'तेरा कोई संगी नहीं' कृषक समाज और कृषि की समस्याओं की जमीनी पड़ताल करने वाला उपन्यास है। इसको लिखते हुए मिथिलेश्वर ने कृषि जीवन में इस्तेमाल होने वाली आम बोली के कई शब्दों का इस्तेमाल किया है जिससे एक जुड़ाव सा महसूस होता है। खेती की समस्या पर केंद्रित रहने की वजह से कथानक थोड़ा सपाट हो गया है। अपने बेटों के साथ होने वाले संवाद में एकरूपता की वजह से कई बार उपन्यास बोझिल-सा लगने लगता है।

इस उपन्यास को पूरा पढ़ने के बाद आपके मन में कुछ सवाल खड़े होते हैं। आप इनके संभावित जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे। आपको महसूस होगा कि इसे थोड़ा और विस्तार दिए जाने की जरूरत थी। आखिर, बलेसर ऐसा कदम क्यों उठाते हैं? फिर इसके जवाब आपको रोजाना के अखबारों में दिखने लग जाएंगे।

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