अक्सर आपने सुना होगा कि औरतों को समझना बहुत मुश्किल होता है। मजाक में तो लोग अक्सर ये भी कह जाते हैं कि औरतों को समझने के लिए इंसान को दूसरा जन्म लेना पड़ता है। हां...मैं इस बात से सहमत हूं...औरतों को समझना मुश्किल है मगर असंभव नहीं। एक औरत जो अपने प्यार के लिए घर छोड़ दे, एक औरत जो अपनी आजादी के लिए अपने प्यार को छोड़ दे। कितने अजीब हैं ना दोनों पहलू!
औरतों की इसी कहानी और उनकी ताकत को दिखाती है अंकिता जैन की नई किताब 'बहेलिए'। उनकी दोनों ही पुरानी किताबों, 'ऐसी-वैसी औरत' और 'मैं से मां' तक में भी अंकिता ने औरतों को खूबसूरती से पिरोया था। अलग-अलग रूप-रंग धर्म और जाति की महिलाओं को एक साथ जोड़ कर एक बार फिर अंकिता की नई किताब लोगों को लुभा रही है।
किताब और कहानियां
अंकिता जैन वो लेखिका हैं जिनकी अभी तक लिखी तीनों किताब में औरतों का जिक्र है। उनकी ये शॉर्ट स्टोरीज कम शब्दों में औरतों की भावनाओं को दिखाता है। बहेलिए किताब 7 शॉर्ट स्टोरीज का कलेक्शन हैं। जिसमें एक नहीं, दो नहीं बल्कि बहुत सारी कहानियां पिरोई गई है। मजबह, रैना बीति जाए, एक पागल की मौत, कशमकश, कन्यादान, प्रायश्चित और बंद खिड़कियां जैसी कहानी आपके दिल को छू जाएंगी।
कैसी है किताब
कहानी के बाद बात करें लेखनी की तो लेखक ने पहले दो कहानियों में देश में चल रहे हालिया कुछ मुद्दों को उठाने की कोशिश की है। इस समय देश के हालात जिस तरह हैं, हर तरफ दंगे फसाद और हिन्दू-मुस्लिम की लड़ाई के बीच, दो 'मजहब' के बीच प्यार की इस लड़ाई में सिस्टर जूली या जूली चौरसिया किस तरह आगे बढ़ती हैं और सालों बाद भी उसी दंगों के बीच आ फसंती है इसे पढ़ना अच्छा लगता है।
एक पागल की मौत में अंकिता ने बड़ी बखूबी से भारत में होने वाली राजनीति और उस राजनीति की आग में धधकने वाले लोगों का दर्द दिखाया है। अपने परिवार को राजनीति की आग में भस्म होते देखने के बाद एक औरत को ये समाज तब तक नहीं छोड़ता जब तक उनके प्राण नहीं निकल जाते। मानसिकता तब और नीच लगती है जब उस पागल के साथ मंदिर के पीछे जबरदस्ती तक की जाती है।
रैना बीती जाए...चैप्टर में उस औरत का जिक्र है जो जितनी आत्मनिर्भर है उतनी ही आजाद भी। जितना वो सब के बारे में सोचती है उतना अपने बारे में भी। प्यार करती है तो उसे निभाने की हिम्मत भी रखती है। इस कहानी में मुख्य पात्र के बीच रोमांस को बखूबी से पिरोया गया है। ये ना सिर्फ आपको पढ़ने में शालीन लगेंगे बल्कि आप इन्हें पढ़कर अपने दिमाग में इसका चित्रण भी कर पाएंगे।
इसके अलावा कशमकश हो या गरीबी को और मजबूरी को दिखाती कहानी कन्यादान। अपनी बेटी को पढ़ाकर अपनी ही पत्नी के लिए किया गया पश्चाताप हो या बंद खिड़कियां। सभी कहानियों में जो एक बात कॉमन है वो ये कि इन सभी में लड़कियों की भावनाएं उकेरी गई हैं। वो लड़कियां या औरतें जिनपर अक्सर ये मीम बन जाया करते हैं कि औरतों को समझना मुश्किल है।
कहां चूक गए
अंकिता जैन की ये किताब जब आप पढ़ना शुरू करेंगे तो पहले दो चैप्टर्स के बाद आप भी इसी चीज की उम्मीद करेंगे कि आपको आज के मुद्दों पर कहानी मिले। राजनीति और दंगे के बीच पनपने वाली दो कहानी के बाद आप तीसरी कहानी में भी यही एक्सपेक्ट करेंगे, मगर वो आपको नहीं मिलेगी। कहीं-कहीं कुछ चीजें अधूरी सी लगेंगी फिर चाहे वो सिस्टर जूली की बेटी का एक्सीडेंट हो या रैना बीती जाए में मीरा और आकाश का प्यार।
ओवरऑल किताब की कहानी आपको खुद से जुड़ी हुई लगेगी। कहीं ना कहीं कभी ना कभी आपने इन सभी किरदारों को अपने आस-पास महसूस जरूर किया होगा और यही इस किताब का यूनीक प्वॉइंट भी है। 127 पन्नें और सात चैप्टर्स की ये किताब आपका दिल भी भर जाएगी और संतुष्टी भी दे जाएगी।