ऐ दीवाने दिल, चल कहीं दूर निकल जाएं..!, ‘साम-दाम-दंड-भेद’ सब चलता?
By Amitabh Shrivastava | Updated: December 27, 2025 06:00 IST2025-12-27T06:00:49+5:302025-12-27T06:00:49+5:30
शिवसेना शिंदे गुट तथा राकांपा अजित पवार गुट इतनी बेताबी से दूसरे दलों के नेताओं को अपनी-अपनी पार्टी से जोड़ रहे हैं, जैसे उनके पास नेताओं और कार्यकर्ताओं का अकाल हो.

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इन दिनों मौसम सर्द है, लेकिन सत्ताधारी महागठबंधन के लिए यह चुनावी उत्सव की ऊर्जा से निकली गरमी का आनंद लेने का समय है. उसे एकतरफा कामयाबी ऐसे समय में मिली है, जब महानगर पालिका के चुनावों की घोषणा हो चुकी है और आगे जिला परिषद चुनावों के होने की संभावना है. अभी तक स्थानीय निकाय प्रशासकों के हाथों में थे. हालांकि अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें सत्ताधारी दलों के नेता चला रहे थे, किंतु पदाधिकारियों की अनुपस्थिति से गली-कूचों में जनप्रतिनिधियों की धमक नहीं थी. समस्याओं को अधिकारी सरकारी ढंग से और पूर्व पदाधिकारी असहाय बन किनारे कर रहे थे.
अब चुनाव की घोषणा के साथ राजनीतिक दलों में निचले स्तर तक बांछें खिल चुकी हैं. पहले दौर के परिणामों को देख महागठबंधन का उत्साह इतना बढ़ गया है कि वह सभी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपने साथ जोड़ने में जुट गया है. पिछले दस साल से भाजपा और तीन साल से अधिक समय से सत्ता के इर्द-गिर्द रहे शिवसेना शिंदे गुट तथा राकांपा अजित पवार गुट इतनी बेताबी से दूसरे दलों के नेताओं को अपनी-अपनी पार्टी से जोड़ रहे हैं, जैसे उनके पास नेताओं और कार्यकर्ताओं का अकाल हो.
मगर ताजा परिणामों की खुशी इसी रास्ते उन्हें बहुत आगे निकलने का मंत्र दे रही है. राज्य की राजनीति में यदि शिवसेना के शिंदे गुट और राकांपा के अजित पवार गुट को नया मान भी लिया जाए तो 45 साल पुरानी भाजपा को पुरानी पार्टी ही कहा जा सकता है. भले ही राज्य की राजनीति के पटल पर उसका कद वर्ष 1995 के बाद ही बढ़ा हो, जब शिवसेना के साथ गठबंधन सरकार बनी थी.
उसके बाद 30 साल गुजर जाने पर भी भाजपा अपने दम पर बहुमत पाने की स्थिति में नहीं आ पाई है. विधानसभा चुनाव या फिर छोटे स्थानों को छोड़कर ज्यादातर स्थानीय निकायों के चुनावों में दलीय गठबंधन उसकी मजबूरी बन चुका है. दस साल से अधिक की अवधि में केंद्र की सत्ता और इतने समय में उसने राज्य के पक्ष-विपक्ष की कुर्सी संभाली है.
ताजा चुनावों के परिणाम के बाद माना जा सकता है कि उसने छोटे कस्बों में अपना आधार मजबूत किया है. बावजूद इसके पार्टी में दूसरे दलों के नेताओं की भरती का अनंत सिलसिला जारी है. मुंबई से लेकर नागपुर तक हर दल से नेता आयात किए जा रहे हैं. दूसरी ओर यह दावे किए जा रहे हैं कि मनपा चुनाव में पार्टी का टिकट मांगने वालों की कतारें लगी हैं.
साक्षात्कार देने के लिए मेले लग रहे हैं. परंतु आगंतुकों का सिलसिला थम नहीं रहा है. आने वालों में अधिकतर वही नेता हैं, जो पूर्व में निकायों में पदाधिकारी थे. जिससे स्पष्ट है कि वे अगला चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़ेंगे. भाजपा की तुलना में शिवसेना शिंदे गुट और राकांपा अजित पवार गुट में नेताओं की आवाजाही को समझा जा सकता है.
दोनों दल अपनी मूल पार्टी से टूट कर बने हैं और उन्हें पार्टी की मजबूती के लिए नेताओं और कार्यकर्ताओं की आवश्यकता है. फिर भी दूसरे दलों से ‘मेगा’ भरती कहीं आत्मविश्वास में कमी का संकेत देती है. पिछले अनेक वर्षों से देखा जाता रहा कि नए कार्यकर्ताओं को तैयार करने को लेकर कोई दल अधिक गंभीर नहीं दिखता है.
नई पीढ़ी का राजनीति के प्रति आकर्षण नहीं है और उसे दलीय राजनीति प्रभावित नहीं करती है. किंतु छात्र राजनीति से जुड़े दल भी भविष्य की पीढ़ी तैयार करने में विफल साबित हो रहे हैं. अक्सर भाजपा के लिए कहा जाता है कि वह ‘कैडर बेस’ पार्टी है. उसमें सिद्धांतों से समझौता नहीं होता है. पार्टी की नीतियां सभी के लिए समान होती हैं.
किंतु गुरुवार को नासिक में जिस प्रकार मनसे के नेताओं को भाजपा में शामिल किया गया, उससे सिद्ध होता है कि वह सत्ता की दौड़ में हर प्रकार के समझौते के लिए तैयार है. वह रोते-चिल्लाते निष्ठावान नेताओं को भी किनारे कर सकती है. दरअसल आगे बढ़ने की यह होड़ शून्य से आरंभ नहीं हो रही है. यह बीच के किसी आंकड़े से सीधे जादुई अंक तक पहुंचना चाहती है.
जिसमें ‘साम-दाम-दंड-भेद’ सब चलता है. सत्ताधारी तीनों दल कार्यकर्ताओं की नई पीढ़ी को तैयार करने से अधिक जोड़-तोड़ में पूरा विश्वास रखते हैं. विकास के नाम पर शामिल होने वाले नेता उनसे पहले प्रवेश करने वालों से कभी विकास का हिसाब नहीं मांगते हैं. इस स्थिति में यदि पार्टी में शामिल होना विकास की सौदेबाजी है तो पक्ष-विपक्ष का कोई लाभ नहीं हो सकता है.
चुनावों के पश्चात दलों के बड़े नेताओं से अक्सर सुना जाता है कि वे परिणामों के बाद मत देने और नहीं देने वाले दोनों का काम करेंगे. कहीं किसी किस्म का भेदभाव नहीं होगा. फिर विपक्ष के नेताओं के समक्ष विकास के नाम पर सत्ताधारी दल में शामिल होने की मजबूरी क्यों बन पड़ती है? इस सवाल का जवाब भी यही हो सकता है कि सत्ता के पास रहने के लाभ अनेक होते हैं.
जिसे देख द्विपक्षीय मेलमिलाप का सिलसिला इतना बढ़ चुका है कि चुनावों में घटती सीटों की तरह ही कहीं विपक्षी दलों के संगठनों की हालत न हो जाए. सत्ता पक्ष को लगता है कि मौसम उसका है तो वह दीवाने दिल की तरह कहीं दूर निकल जाए. उसके मन में एक ऐसी कल्पना उफान ले रही है कि जहां अकेलापन है, लेकिन उसमें निराशा नहीं, बल्कि चरम उत्साह है.
बस समय यही कहता है कि एकछत्र राज्य होना तब तक बुरा नहीं है जब तक स्वयं का अस्तित्व कायम रहे. राजनीति में मंजिलें बदलती रहती हैं. कभी नीचे और कभी ऊंची मंजिल को पाने का लक्ष्य बनता-बिगड़ता रहता है. इसलिए अच्छा यही है कि थोड़ा संभल भी जाएं...!