ब्लॉगः भाजपा की चुनावी जीत का सबसे बड़ा कारण क्या है, जानें इसका सामाजिक समीकरण...

By अभय कुमार दुबे | Published: April 15, 2023 01:09 PM2023-04-15T13:09:37+5:302023-04-15T13:11:48+5:30

साठ के दशक में जनसंघ के मुख्य संगठनकर्ता दीनदयाल उपाध्याय ने द्विज जातियों (ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य) के साथ दो तरह के सामाजिक समुदायों को जोड़ने का योजनाबद्ध प्रयत्न शुरू किया था। ये दो तरह के समुदाय थे शूद्रों (यानी पिछड़ी जातियों) के कुछ हिस्से और हिंदू समाज के वे हिस्से (जैसे जाट, भूमिहार और कायस्थ) जो द्विज तो नहीं थे, लेकिन जिनकी आत्मछवि ऊंची जातियों वाली ही थी।

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ब्लॉगः भाजपा की चुनावी जीत का सबसे बड़ा कारण क्या है, जानें इसका सामाजिक समीकरण...


1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चली हमदर्दी की लहर में हुए चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की केवल दो सीटें रह गई थीं। बड़े-बड़े नेता चुनाव हार गए थे। पार्टी के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया। क्या उस समय भाजपा का कोई नेता, उसके मुखिया, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई पदाधिकारी या हिंदुत्व का कोई अन्य हमदर्द कभी सोच सकता था कि 39 साल बाद यह पार्टी अपना स्थापना दिवस एक ऐसी सत्तारूढ़ शक्ति के रूप में मनाएगी जो न केवल पिछले नौ साल से बहुमत की सरकार चला रही है, बल्कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी उसके हारने का कोई अंदेशा नहीं है।

निश्चित रूप  से दो सीटों से एक महाप्रबल पार्टी तक का सफर हर तरह से असाधारण ही कहा जाएगा। यह उपलब्धि कैसे हासिल हुई? मेरे विचार से यह पिछले साठ साल से एक खास तरह के सामाजिक समीकरण को साधने का संचित परिणाम है। साठ के दशक में जनसंघ के मुख्य संगठनकर्ता दीनदयाल उपाध्याय ने द्विज जातियों (ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य) के साथ दो तरह के सामाजिक समुदायों को जोड़ने का योजनाबद्ध प्रयत्न शुरू किया था। ये दो तरह के समुदाय थे शूद्रों (यानी पिछड़ी जातियों) के कुछ हिस्से और हिंदू समाज के वे हिस्से (जैसे जाट, भूमिहार और कायस्थ) जो द्विज तो नहीं थे, लेकिन जिनकी आत्मछवि ऊंची जातियों वाली ही थी। यह हिंदू एकता बनाने का पहला चरण था। दूसरे चरण में यानी 1975 के बाद और विशेष तौर से अस्सी के दशक में संघ परिवार ने समाज के बेहद कमजोर हिस्सों को अपने साथ जोड़ने का उद्यम किया। उसने आदिवासियों में, दलित जातियों में और शहरी गरीबों में काम करना शुरू किया। यह इन कोशिशों का परिणाम ही है कि आज भाजपा को अपने प्रभाव क्षेत्रों में 45 से 50 फीसदी हिंदुओं के वोट मिलते हैं। चुनाव-दर-चुनाव उसकी जीत का सबसे बड़ा कारण यही है।

इसके पीछे जो विचारधारात्मक तर्क है वह बेहद सरल और व्यावहारिक किस्म का है। संघ परिवार ने इसे दो चरणों में संसाधित किया। पहले उसने ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में वर्णित विराट पुरुष के अंगों और उनके पूर्व-निर्धारित कर्तव्यों की व्याख्या खास तरीके से की। इसके जरिये संघ ने लगातार यह दिखाने की कोशिश की कि शूद्र समाज को अन्य वर्णों से कमतर नहीं समझा जाना चाहिए। हिंदू-राष्ट्र की स्थापना के प्रोजेक्ट में पिछले 99 साल से लगा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पुरुष सूक्त की व्याख्या के जरिये अक्सर ‘ऑर्गनिक यूनिटी’ या समाज की ‘आंगिक एकता’ की दावेदारी करता रहा। इसका एक नमूना जनसंघ के नेता दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में देखा जा सकता है : ‘चार जातियों के हमारे विचार में, उन्हें विराट पुरुष के चार अंगों के रूप में माना गया है। 

माना जाता है कि विराट पुरुष के सिर से ब्राह्मण, हाथों से क्षत्रिय, उदर से वैश्य और पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। जब हम इस विचार का विश्लेषण करते हैं तो हमारे सामने यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या विराट पुरुष के सिर, हाथ, पेट और पैरों के बीच  कोई संघर्ष खड़ा हो सकता है। अगर संघर्ष मूलभूत है तो शरीर काम ही नहीं कर पाएगा। एक ही शरीर के विभिन्न हिस्सों के बीच कोई संघर्ष हो ही नहीं सकता। इसके विपरीत ‘एक व्यक्ति’ प्रबल होता है। ये अंग एक-दूसरे के पूरक ही नहीं हैं, बल्कि इससे भी ज्यादा ये स्वतंत्र इकाई हैं। वहां पूरी तरह से अनुराग और आत्मीयता का भाव है। जाति व्यवस्था की उत्पत्ति ऊपर बताए आधार पर ही हुई। अगर इस विचार को नहीं समझा गया तो जातियों में एक दूसरे का पूरक बनने की बजाय संघर्ष पैदा होगा। लेकिन तब यह विकृति है। यह व्यवस्थित व्यवस्था नहीं है, बल्कि इसमें कोई योजना या व्यवस्था नहीं है। सचमुच हमारे समाज की आज यही दशा है..। परस्परानुकूलता और परावलंबन वर्ण व्यवस्था का आंतरिक भाव है। सर्वसमभाव ही वर्ण व्यवस्था है।

दिलचस्प बात यह है कि पहले तो संघ परिवार ने वर्णव्यवस्था को सर्वसमभाव के रूप में प्रदर्शित किया, और फिर दूसरे चरण में 1974 में सरसंघचालक बालासाहब देवरस ने कह दिया कि ‘वास्तव में देखा जाए तो आज की संपूर्ण परिस्थिति इतनी बदल चुकी है कि समाज धारण के लिए आवश्यक ऐसी जन्मत: वर्ण-व्यवस्था अथवा जाति-व्यवस्था आज अस्तित्व में ही नहीं है। सर्वत्र अव्यवस्था है, विकृति है। अब यह व्यवस्था केवल विवाह संबंधों तक ही सीमित रह गई है। इस व्यवस्था की स्पिरिट समाप्त हो गई है, केवल ‘लैटर’ ही शेष रह गया है। भाव समाप्त हो गया, ढांचा रह गया। प्राण निकल गया, पंजर रह गया। समाज धारण से उसका कोई संबंध नहीं है। अत: सभी को मिलकर सोचना चाहिए कि जिसका समाप्त होना उचित है, जो स्वयं ही समाप्त हो रहा है, वह ठीक ढंग से कैसे समाप्त हो।’

संघ को इस विचारधारात्मक रुझान पर पूरी भाजपा और पूरे संघ को लाने में काफी समय लगा। इस रास्ते पर वह धीमी गति से चला, लेकिन चलता रहा। इसके जरिये संघ ने कमजोर जातियों के राजनीतिक तत्वों को यह भरोसा देने में कामयाबी हासिल की कि अगर वे हिंदुत्व की राजनीतिक परियोजना से जुड़ेंगे तो उन्हें दूसरों जितने मौके ही मिलेंगे। मेरे विचार से इस प्रोजेक्ट की कामयाबी ही भाजपा की असाधारण सफलता के मर्म में है।

Web Title: Blog What is the biggest reason for BJP's electoral victory know its social equation

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