राजनीति में भाषा का लगातार गिरता स्तर चिंताजनक
By विश्वनाथ सचदेव | Published: December 17, 2021 04:07 PM2021-12-17T16:07:37+5:302021-12-17T16:08:14+5:30
पिछले दिनों समाजवादी पार्टी की लाल टोपी के संदर्भ में नेताजी ने सही कहा कि लाल रंग खतरे का प्रतीक माना जाता है, पर लच्छेदार भाषा बोलने के चक्कर में वे यह भूल गए कि लाल रंग शौर्य का भी प्रतीक होता है और जिन्हें वे देश के लिए खतरा बताना चाह रहे हैं वे इस लाल रंग को अपने शौर्य से भी जोड़ सकते हैं.
था कोई जमाना जब देश में पांच साल में एक बार चुनाव होते थे, पर अब तो चुनाव जैसे एक निरंतर चलती रहने वाली प्रक्रिया बन गए हैं. पहले पांच साल में एक बार नेताओं के चुनावी भाषण हुआ करते थे, अब नेता लगातार चुनावी भाषण देते रहते हैं. चुनावी भाषण का मतलब बन गया है लच्छेदार भाषा, तर्कहीन हमले, लोक-लुभावन वादे और झूठे दावे. एक बात और भी हुई है इस दौरान, नेताओं की भाषा में ऐसे शब्द लगातार बढ़ते जा रहे हैं जिन्हें कल तक अशोभनीय समझा जाता था. हाल ही में एक नेता ने ऐसे ही एक शब्द का इस्तेमाल करने का बचाव करते हुए तो यहां तक कह दिया कि, ‘मुझसे ज्यादा अपशब्द तो भाजपा नेता बोलते हैं.’ असल में भाजपा की एक महिला नेता ने उनके खिलाफ पुलिस में शिकायत कर दी है. अब नेताजी यह कहकर अपना बचाव कर रहे हैं कि उस कथित अपशब्द का मतलब ‘हिंदी में बेवकूफ’ होता है.
सवाल उठता है नेताजी को यदि किसी को बेवकूफ ही कहना था तो यही शब्द काम में क्यों नहीं ले लिया? इस सीधे-से सवाल का जवाब यह है कि हमारे राजनेता भाषा की मर्यादा के पालन की आवश्यकता नहीं समझते अथवा समझना नहीं चाहते. अप्रिय शब्दों का इस्तेमाल करने की तो जैसे हमारे नेताओं में होड़ लगी रहती है. यही नहीं, कई बार तो ये नेता अच्छे-भले शब्दों के अर्थ बिगाड़ देते हैं. ऐसा ही एक शब्द ‘अब्बाजान’ है. उर्दू में पिता के लिए यह शब्द काम में लिया जाता है. पर हमारे एक नेता ने एक पूरे समुदाय को नीचा दिखाने के लिए इस शब्द को ही नीचा बना दिया. इन नेताजी की दृष्टि में इस शब्द का ‘कसूर’ यह है कि यह उर्दू का शब्द है और उर्दू को एक समुदाय-विशेष की भाषा मान लिया गया है.
उर्दू को एक समुदाय-विशेष की भाषा मानना भी गलत है और उर्दू के एक आदरसूचक शब्द को अपने चुनावी लाभ के लिए हिकारत के अर्थ में काम में लेना भी. सच पूछा जाए तो भाषा का इस तरह का इस्तेमाल अभद्रता का ही परिचायक है. सभ्य समाज के तौर-तरीकों का तकाजा है कि अभद्रता से बचा जाए. हमारे नेताओं का यह आचरण राजनीति को ही घटिया नहीं बनाता, राजनेताओं के कद को बौना भी बनाता है.
इसी बौनेपन का एक और उदाहरण कपड़ों और रंगों से लोगों या जमातों की पहचान करना भी है. यह सही है कि कपड़े समाज-विशेष की पहचान भी हुआ करते हैं, पर जब कोई बड़ा नेता यह कहता है कि ‘ऐसे लोग कपड़ों से ही पहचाने जा सकते हैं’ तो वह कुल मिलाकर उन लोगों को हेय दृष्टि से देखने का संकेत ही देता है. जैसे चोटी और जनेऊ हिंदुओं की एक पहचान है, वैसे ही एक खास तरह की टोपी मुसलमानों की भी पहचान मानी जाती है. उस टोपी का मजाक उड़ाने का मतलब समुदाय-विशेष पर निशाना साधना है- और इस तरह की निशानेबाजी घटिया राजनीति का ही उदाहरण है.
भारतीय समाज और परंपरा में टोपी या पगड़ी इज्जत का प्रतीक हुआ करती है. मजाक की नहीं, गरिमा की चीज होती है- टोपी या पगड़ी. इन्हें किसी के मजाक का माध्यम बनाना घटिया राजनीति ही कही जाएगी. पिछले दिनों समाजवादी पार्टी की लाल टोपी के संदर्भ में नेताजी ने सही कहा कि लाल रंग खतरे का प्रतीक माना जाता है, पर लच्छेदार भाषा बोलने के चक्कर में वे यह भूल गए कि लाल रंग शौर्य का भी प्रतीक होता है और जिन्हें वे देश के लिए खतरा बताना चाह रहे हैं वे इस लाल रंग को अपने शौर्य से भी जोड़ सकते हैं. जोड़ा भी उन्होंने. जितनी तालियां लाल टोपी को खतरे का प्रतीक बताने वाले को मिली थीं, उससे कहीं ज्यादा तालियां शौर्य का प्रतीक बताने वाले को मिलीं. पर सवाल कम या ज्यादा का नहीं है, सवाल है राजनीति के स्तर के लगातार गिरते जाने के परिणामों का. दुर्भाग्य से, पिछले एक अर्से में इस फिसलन की गति कुछ ज्यादा ही तेज हुई है. प्रतिपक्षी के तर्कों को खारिज करना, उसे नीचा दिखाना हमारी राजनीतिक व्यवस्था का एक हिस्सा है.
आरोप-प्रत्यारोप राजनीतिक बहस का साधन हैं. प्रतिपक्षी की कमजोरियों पर वार करना भी कतई गलत नहीं है. पर जनतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि मर्यादाहीनता से बचा जाए. पर हमारे राजनेताओं को मर्यादा का ध्यान रखने की शायद जरूरत ही महसूस नहीं होती. राष्ट्रहित का तकाजा है कि हमारे नेता अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर सोचने की आवश्यकता को महसूस करें. उनका आचरण मर्यादाओं के पालन का उदाहरण होना चाहिए. दुर्भाग्य से, मर्यादाहीनता हमारी राजनीति की पहचान बनती जा रही है. कब हमारा नेतृत्व लच्छेदार भाषा के लोभ से मुक्त होगा? कब उसे यह अहसास होगा कि ओछी भाषा और ओछे विचार राष्ट्र की पहचान को भी ओछा बनाते हैं? नेता यदि यह नहीं समझा पा रहे तो मतदाताओं को उन्हें समझाना होगा.