Blog: सोनभद्र प्रकरण साबित होगा यूपी में कांग्रेस की राजनीति का टर्निंग पॉइंट!
By बद्री नाथ | Published: July 24, 2019 03:03 PM2019-07-24T15:03:29+5:302019-07-24T15:03:29+5:30
सोनभद्र जिले के घोरावल इलाके के उम्भा गावं में हुए नरसंहार मामले में प्रियंका गाँधी की सक्रियता से 1977 और 89 के राजनीतिक दौर की बातें लोगों के जेहन में फिर से ताजा हो गई हैं।
सोनभद्र जिले के घोरावल इलाके के उम्भा गावं में हुए नरसंहार मामले में प्रियंका गाँधी की सक्रियता से 1977 और 89 के राजनीतिक दौर की बातें लोगों के जेहन में फिर से ताजा हो गई हैं। इन तीनों घटनाओं में परिस्थितियां लगभग समान देखी गई। इन घटनाओं में समानता यह है कि कांग्रेस अपने बुरे दौर में पहुँचने के बाद जमीन पर लोगों के बीच सक्रिय हुई।
1977 में जब कांग्रेस पूरे देश से समाप्त हो गई थी तो उसी बीच कांग्रेस के हाथ ऐसा मुद्दा (बिहार के दूर दराज गांव बेलछी में हुआ दलित नरसंहार) लग गया जिसने कांग्रेस को सत्ता में वापसी का मार्ग प्रशस्त किया था। वे रात में ही बेलछी पहुंचने की जिद पर डटी रहीं। उस समय स्थानीय कांग्रेसियों ने इंदिरा जी को बहुत समझाया कि आगे रास्ता बहुत खराब है और रास्ता पानी से लबालब है लेकिन वे पैदल चल पड़ीं। इंदिरा की जिद की वजह से मजबूरन साथी नेताओं को उन्हें जीप में बैठाकर ले जाना पड़ा। रास्ता खराब होने की वजह से जीप कीचड़ में फंस गई। फिर उन्हें ट्रैक्टर में बैठाया गया तो ट्रक्टर भी गारे में फंस गया।
अडिग इंदिरा तब भी नहीं मानीं और अपनी धोती थामकर पैदल ही चल दीं। किसी साथी ने हाथी मंगाकर इंदिरा गांधी और उनकी महिला साथी को हाथी की पर सवार किया। बिना हौदे के हाथी की पीठ पर उस उबड़-खाबड़ रास्ते में इंदिरा गांधी ने अंधेरी रात में जान हथेली पर लेकर पूरे साढ़े तीन घंटे लंबा सफर तय किया था।
वे जब बेलछी पहुंची तो खौफजदा दलितों को ही दिलासा नहीं हुआ बल्कि वे दुनिया भर के अखबारों की सुर्खियों में छा गईं। हाथी पर सवार उनकी तस्वीर सब तरफ नमूदार हुई, अगर उस समय सोशल मीडिया का दौर रहा होता तो वो फोटो जरूर वायरल हो गया होता।
खैर, उस दौर में मीडिया ने अपना काम कर दिया इस ऐतिहासिक घटना ने देश के लोगों को फिर से इंदिरा का दीवाना बना दिया। इस घटना के बाद सबसे बड़ी सफलता कांग्रेस के लिए यह मिली आपात काल के बाद हुए चुनाव में मिले हार के सदमे से घर में दुबके कांग्रेसी कार्यकर्ता निकलकर सड़क पर आ गए। इंदिरा के इस दुस्साहस को ढाई साल के भीतर जनता सरकार के पतन और 1980 के मध्यावधि चुनाव में सत्ता में उनकी वापसी का निर्णायक कदम के रूप में याद किया जाता है।
देश के सबसे युवा प्रधानमन्त्री रहे राजीव गाँधी 1989 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनाव हारने के बाद पूरी तरह बैकफूट पर जा चुकी कांग्रेस को वापस लाने के लिए पूरी तरह से जमीन पर उतर गए थे। शायद इसी का नतीजा था कि पूरे देश में जो माहौल बना था उसे दुनिया के हर देश को पता चल गया था। राजीव गाँधी के जमीन से जुड़ने का ही नतीजा था कि श्रीलंका में सक्रिय आतंकवादी संगठन लिट्टे प्रमुख प्रभाकरन डर गया था कि अब कांग्रेस आने वाली है अगर कांग्रेस आ जाएगी तो राजीव गाँधी 1987 (Indian Peace Keeping Force) के श्रीलंका के फैसले को पुनः प्रभाव में लायेंगे। लेकिन राजीव गाँधी की यही सक्रियता और जनता के बीच पहुँच ने कांग्रेस को यह चुनाव जितवा दिया।
कब-कब मिले ऐसे उदाहरण
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक इतिहास के पन्नो में ऐसे तमाम उदाहरण छुपे हुए हैं जहाँ पर प्रशासन द्वारा रोके या न रोके जाने को आधार बनाकर दलों ने अपनी राजनीतिक मंशा और विचारधारा को साधा है। 25 नवम्बर 2018 को शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने समर्थकों के साथ अयोध्या आने वाले थे। इस समय महाराष्ट्र में बीजेपी के मुख्य विरोधी थे और शिव सेना तथा बीजेपी का वोट बैंक सेम है इसीलिए हिदुत्व को जगाने की इस एक्सरसाइज से शिव सेना को फायदा होता और हुआ भी फिर भी बीजेपी ने नहीं रोका।
बीजेपी अगर रोकती तो पूरा हिन्दू समाज शिव सेना के पक्ष में चला जाता क्योंकि 5 साल बीत जाने पर भी राम मंदिर नहीं बन पाया था पब्लिक शिव सेना के साथ चली जाती। पर यूपी की बीजेपी सरकार ने शिव सेना को न रोककर जाने दिया। मीडिया ने तब इसे आम भ्रमण की तरह दिखाया फलतः शिव सेना को मौका नहीं मिल पाया लेकिन हाँ इससे जो दबाव बना उससे बीजेपी, महराष्ट्र में शिव सेना से गठबंधन करने को मजबूर हुई।
बालाकोट के समय राहुल और प्रियंका शहीदों के घर गए तो उन्हें नहीं रोका गया इस बार रोका गया होता तो बीजेपी को फायदा नहीं नुकसान ही होता। ऐसा ही एक वाक्या तब देखने को मिला था जब उत्तर प्रदेश में मायावती मुख्यमंत्री थी और आडवाणी जी अयोध्या जाने वाले थे। मायावती ने भ्रमण को नहीं रोका बल्कि सुरक्षा के चाक चौबंद इंतजाम किये जिससे यह एक आम घटना बनकर रह गया।
प्रियंका गाँधी को रोकने से कांग्रेस को फायदा
इस पूरे घटनाक्रम में प्रियंका गंधी ने एक मझे हुए राजनीतिज्ञ की भूमिका निभाई है। प्रशासन नें उन्हें जाने से रोका तो धरने पर बैठ गई, मिर्जापुर के डीएम ने एसी ना होने का हवाला देते हुए जब कहा कि आप रात चुनार में बिताइए तो प्रियंका ने कहा इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। फिर 50,000 का बांड भरकर जमानत कराने का दबाव डाला तो उन्होंने कहा कि चाहे मुझे जेल में डाल दो, मैं मृतकों के परिवारों से मिले बगैर नहीं जाउंगी।
इसके बाद तो पूरा माहौल इनके पक्ष में बनने लगा। चुनावी हार और कुशल नेतृत्व की कमी से झूझती कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता जो घरों में दुबक कर बैठ गए थे वो बाहर निकल आये। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के देश के अलग-अलग हिस्सों में कांग्रेस की इकाइयों से जुड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया। अंततः प्रियंका इन परिवारों के परिजनों से मिली और हर मृतक परिवारों को 10 लाख का मुआवजा देने का ऐलान भी कांग्रेस पार्टी की तरफ से किया गया।
अब सवाल यह उठता है कि प्रियंका गाँधी को क्यों रोका गया? प्रियंका को रोकने के पीछे प्रशासनिक मजबूरियां होंगी वो अलग पहलू है पर जो राजनीतिक कारण दिखता है वो ये कि कांग्रेस के इर्द गिर्द सकारात्मक कहानियां बनने से सपा और बसपा का वोट बैंक खिसकेगा और साथ ही साथ बीजेपी से नाराज मतदाता (खासकर सवर्ण मतदाता ) जिनके सपा और बसपा में जाने की सम्भावना बनती वो कांग्रेस में आ जायेंगे। इससे बीजेपी को नुकसान भी नहीं होगा।
बीजेपी को यह भी पता है कि उत्तर प्रदेश में अगर उन्हें सत्ता में बने रहना है तो कांग्रेस का जीवित रहना भी जरूरी है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने जितने वोट पाए वो अगर बीजेपी के खिलाफ चले जाते तो आसानी से गठबंधन को सुल्तानपुर (11,000 वोट से बीजेपी जीती जबकि कांग्रेस उम्मीदवार संजय सिंह को 44,000 से ज्यादे वोट मिले) मछलीशहर (872 वोट से बीजेपी जीती) जैसी 8 और सीटें मिल जातीं। बीजेपी को यह पता है कि कांग्रेस ऐसी स्थिति में नहीं है कि मजबूत प्रतिद्वंदी बन सके। इसीलिए बीएसपी और एसपी को रोकने के लिए कांग्रेस को जीवित रखने के फॉर्मूले पर कार्य करने को प्राथमिकता के आधार पर ले रही है।
क्या प्रियंका बन पाएंगी दूसरी इंदिरा?
बेलछी कांड के बाद उस समय चिकमंगलूर उपचुनाव होने थे और इंदिरा ने यह चुनाव लड़ा और जीता भी था। पूरे देश के राजनीतिक माहौल के बदलने की शुरुआत हो गई थी। अब प्रियंका के लिए भी ठीक वैसा ही समय है। आगामी दिनों में उत्तर प्रदेश के विधान सभा के चुनाव होने हैं। अगर सही में प्रियंका कांग्रेस को वापस लाना चाहती हैं, तो इंदिरा की तरह ही आने वाले विधान सभा के उपचुनाव में लड़े और उत्तर प्रदेश विधान सभा में विपक्ष की आवाज बनें।
प्रियंका को ढूँढना होगा चिकमंगलूर
1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस फर्श पर पहुँच चुकी थी। आलम यह था कि इंदिरा गाँधी खुद भी चुनाव हार गई थी। बिहार के बेलसी कांड में अपनी सक्रियता से मिले जन समर्थन ने उन्हें एक बार फिर से आत्मविश्वास से भर दिया। अंततः उसी आत्मविश्वास से कांग्रेस की वापसी का मार्ग प्रशस्त हुआ था। 1980 के चुनाव जीतने के पहले और बिहार के बिलसी की घटना के बाद हुए कर्नाटक के चिकमंगलूर लोकसभा पर हुए उपचुनाव में जीत हासिल करके लोकसभा में प्रवेश लिया था, और सदन में सरकार के खिलाफ मजबूत बिपक्ष की भूमिका में आकर मजबूत आधार और विकल्प के रूप में कांग्रेस को उभारा था।
इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यूपी में डूबती हुई कांग्रेस को एक महत्वपूर्ण अवसर मिल गया है। विगत 5 साल में यह पहला मौका था जब विपक्ष का कोई नेता जनता की जरूरत के समय जनता के बीच पहुंचा है। संवेदनशीलता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण अवयव होता है। लोकतान्त्रिक देशों की सबसे बडी विशेषता यह होती है कि इस व्यवस्था में विपक्ष के होने से नहीं विपक्ष के दिखने से जनता साथ जुड़ती है।
प्रियंका के इस कदम से अखिलेश और मायावती पिछड़ गए हैं। प्रियंका गाँधी ने आदिवासियों की यह बात उठाकर कांग्रेस को उत्तर प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में भी ला दिया है। बहरहाल राहुल के अध्यक्ष पद छोडने से कांग्रेसियों में जो निराशा थी अब वो बिलकुल समाप्त हो गई है। इससे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में जोश का संचार हुआ हैं।
लेकिन इस जोश को बनाये रखने के लिए प्रियंका को सक्रियता ऐसे ही बरकरार रखनी होगी। ऐसा करते हुए प्रियंका अगर देश के सबसे बड़े सूबे में होने वाले 2022 विधान सभा के चुनाव में कांग्रेस को जिता लेती हैं तो 2024 के लोकसभा चुनाव कांग्रेस प्रियंका को अपने पार्टी के चेहरे के रूप प्रोजेक्ट करने का एक अच्छा अवसर प्राप्त कर सकती हैं।