ब्लॉग: पचहत्तरवें साल में एक जीवित संविधान की याद
By राजेश बादल | Published: February 27, 2024 10:26 AM2024-02-27T10:26:31+5:302024-02-27T10:34:28+5:30
भारतीय संविधान के लागू होने का यह पचहत्तरवां साल चल रहा है। भारत ने अपने लोकतंत्र को जिस तरह बीते पचहत्तर साल में आकार दिया है, उसे समूचा विश्व आज भी हैरत भरी निगाहों से देखता है।
भारतीय संविधान के लागू होने का यह पचहत्तरवां साल चल रहा है। संविधान के इस अमृत महोत्सव वर्ष में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में भारत और बांग्लादेश के संविधान के बारे में एक बेहद संवेदनशील व्याख्या पेश की। बांग्लादेश की राजधानी ढाका में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में उन्होंने कहा कि भारत और बांग्लादेश ने अपने-अपने संविधानों को जीवित दस्तावेज के रूप में मान्यता दी है।
दोनों राष्ट्र संवैधानिक और न्यायिक प्रणाली और परंपराओं को साझा करते हैं और एक-दूसरे की न्यायपालिका के फैसलों का बारीकी से अध्ययन करते हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यही है कि इन देशों में मजबूत राजनीतिक ढांचे की बदौलत संवैधानिक स्थिरता बनी रहे। खास बात यह है कि इन संविधानों को जनता ने खुद अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के जरिये अपने लिए रचा और गढ़ा है।
निश्चित रूप से प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ का यह बयान किसी भी लोकतांत्रिक मुल्क के लिए स्वागत का विषय हो सकता है। भारत तो स्वतंत्रता के बाद से ही मजबूत संविधान की नींव पर टिका है। लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित संविधान सभा ने लगभग तीन साल तक अथक परिश्रम के बाद जब यह अद्भुत दस्तावेज सौंपा तो इसमें मुल्क की आत्मा धड़क रही । इसीलिए इस संविधान को आज संसार का सर्वश्रेष्ठ लिखित संविधान माना जाता है।
भारत ने अपने लोकतंत्र को जिस तरह बीते पचहत्तर साल में आकार दिया है, उसे समूचा विश्व आज भी हैरत भरी निगाहों से देखता है। नहीं भूलना चाहिए कि जब अंग्रेज हिंदुस्तान से गए थे तो वे एक अभिशप्त, खंडित राष्ट्र छोड़ गए थे। तमाम यूरोपीय और पश्चिमी विद्वान तथा राजनयिक उस समय डंके की चोट पर लिख रहे थे कि भारत जल्द ही बिखर जाएगा।
एक देश की अवधारणा का यह असफल प्रयोग होगा लेकिन भारत ने इन सब आशंकाओं को झूठा साबित कर दिया। भारतीय संविधान के पीछे डॉक्टर बाबासाहब आंबेडकर, जवाहरलाल नेहरू, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और उन जैसे अनेक शिखर नेताओं के सपने थे तो बांग्लादेश का संविधान शेख मुजीबुर्रहमान की जम्हूरियत भरी सोच से निकला था।
बांग्लादेश ने अपने जन्म के बाद से ही एक स्थिर और टिकाऊ संविधान के आधार पर चलने का प्रयास किया है। जब तक वह पाकिस्तान का हिस्सा रहा तो चौबीस साल तक अशांत, तनाव से भरा और पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों के भेदभाव भरे निर्णयों का शिकार होता रहा लेकिन लंबे संघर्ष के बाद जैसे ही उसने दुनिया के नक्शे पर स्वतंत्र देश का आकार लिया तो धीरे-धीरे वहां भी एक जिम्मेदार जम्हूरियत पनपती रही।
हालांकि कुछ समय तक वहां भी झंझावात आते रहे और फौजी तानाशाही के घुड़सवारों ने लोकतंत्र पर चढ़ाई करने के प्रयास किए, मगर अवाम ने उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने दिए। बताने की आवश्यकता नहीं कि भारत का लोकतंत्र ही बांग्लादेश की प्रेरणा बनकर चट्टान की तरह इसके पीछे खड़ा रहा।
इसके उलट, पाकिस्तान के अस्तित्व में आने के करीब दस बरस बाद वहां का संविधान बन पाया। उन दस वर्षों के शून्यकाल में पाकिस्तान की सेना की दाढ़ में हुकूमत का ऐसा खून लगा कि वह देश के साथ बार-बार खिलवाड़ करती रही। संविधान बदले जाते रहे। वे दस बरस एक तरह से पाकिस्तान में अराजकता लिए हुए थे। इस कारण आज तक पाकिस्तान में लोकतंत्र की गाड़ी पटरी पर नहीं आई है। संविधान किसी भी सभ्य लोकतंत्र का नियामक दस्तावेज होता है और खेद है कि पाकिस्तान का सैनिक नेतृत्व अभी तक इसे समझ नहीं सका है।
लौटते हैं चंद्रचूड़ के जीवित संविधान वाले कथन पर। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप की परंपरागत न्याय शैली का पुरजोर समर्थन किया। चंद्रचूड़ ने दोनों देशों की साझा संस्कृति के आधार पर जोर देते हुए कहा कि न्यायालयों को मध्यस्थता परंपरा की ओर लौटना चाहिए। हिंदुस्तान में सैकड़ों साल तक पंचायतें इसी मध्यस्थता परंपरा का निर्वाह करती रही हैं। इससे आपसी संबंधों में कड़वाहट नहीं घुलती और शीघ्र ही सब कुछ सामान्य हो जाता है। अरसे तक मुकदमे चलते रहे और उसके बाद एक व्यक्ति जीत जाए, दूसरा हार जाए तो यह कुछ-कुछ जंग में जीत-हार जैसी सोच विकसित करता है।
यह दरअसल औपनिवेशिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। मेरा मानना है कि इसमें अधिनायकवादी बीज छिपे हुए हैं और यह एक स्वस्थ समाज बनाने की ओर देश को नहीं ले जाता। यह एक व्यक्ति को दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है। अंग्रेज हुकूमत यही तो करती थी। उसका कुछ मानसिक प्रभाव हमारी न्याय पद्धति पर आज भी दिखाई देता है। अदालतों पर मुकदमों का भारी-भरकम बोझ संभवतया इसी की देन है। औसत भारतीय संवैधानिक प्रावधानों तथा न्याय कानूनों को सिर्फ सरकार और अदालतों के काम आने वाली प्रक्रिया का हिस्सा समझने लगा है।
वह सोचने लगा है कि उसका इसमें कोई योगदान नहीं है। वह तटस्थ और उदासीन है। इसमें हमारे लोकतंत्र के लिए एक चेतावनी भी छिपी हुई है। भारतीय परंपरागत न्याय प्रणाली का दर्शन ऐसा नहीं है। वह ए और बी के बीच उदारतापूर्वक मध्यस्थता के जरिये मामले का निपटारा करने में भरोसा करती है। इसलिए प्रधान न्यायाधीश की इस बात में दम है कि न्यायालयों को औपनिवेशिक असर की काली छाया से मुक्त होना चाहिए।
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि औपनिवेशिक काल में या यूं कहें कि गुलामी के दिनों में न्यायाधीशों की भूमिका सौ फीसदी निष्पक्ष नहीं थी। उन्हें बहुत से पारिवारिक और सामाजिक मामलों में तो पूर्ण आजादी थी, लेकिन संवेदनशील प्रशासनिक और राजनीतिक मामलों में वे एक तरह से निर्देशित व्यवस्था का पालन करते थे। क्रांतिकारियों और सत्याग्रहियों के मामलों में वे निष्पक्ष नहीं होते थे. उन्हें तंत्र का समर्थन करना ही पड़ता था।