ब्लॉग: दोहरी मतदान प्रणाली चाहता है विपक्ष ?
By अभय कुमार दुबे | Published: December 26, 2023 10:55 AM2023-12-26T10:55:39+5:302023-12-26T11:01:44+5:30
विपक्ष के इंडिया गठबंधन ने एक अधिकारिक प्रस्ताव पारित करके ईवीएम पर बहस की आग में घी डाल दिया है।
विपक्ष के इंडिया गठबंधन ने एक अधिकारिक प्रस्ताव पारित करके ईवीएम पर बहस की आग में घी डाल दिया है। हालांकि इस मोर्चे ने ईवीएम हैकिंग को कांग्रेस की पराजय का जिम्मेदार नहीं ठहराया, लेकिन उसने शक की सुई को इन मशीनों की ओर घुमाते हुए सुझाव दे डाला है कि वीवीपैट (वोटर वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) की पर्चियों को बॉक्स में गिरने देने के बजाय वोटर को थमाया जाना चाहिए ताकि वह अपने वोट की पुष्टि के बाद उसे स्वयं एक मतपेटिका में डाले और फिर उस पेटी में पड़ी हुई सभी पर्चियों की गिनती की जाए यानी यह गठबंधन दोहरी मतदान प्रणाली का आग्रह कर रहा है।
ईवीएम में भी वोट पड़ें और वीवीपैट की पर्चियों के रूप में भी वोटों की गिनती हो। एक तर्क यह भी चल रहा है कि ईवीएम के साथ वीवीपैट जोड़ने से उसकी हैकिंग और आसान हो गई है। खास बात यह है कि वोटिंग मशीनों पर सवालिया निशान लगाने वाली ये सभी बातें तकनीकी अंदाज में विशेषज्ञों की भांति की जाती हैं। इन्हें पढ़ने पर उन लोगों का शक और गहरा हो जाता है जो मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान की लोकतांत्रिक निष्ठाओं को संदेह की दृष्टि से देखते हैं।
इस पूरी चर्चा में एक बात तकरीबन गायब रहती है। कोई विशेषज्ञ और कोई पार्टी हमें यह नहीं बताती कि पार्टी निष्ठाओं की गिरफ्त से आजाद हमारे मतदादा-मंडल का नब्बे फीसदी से ज्यादा हिस्सा इस बारे में क्या सोचता है। क्या वास्तव में उसे ईवीएम वाली चुनाव-प्रणाली पर संदेह है? देश में इतनी सर्वे-एजेंसियां हैं, इतनी रेटिंग-एजेंसियां हैं। ये सालभर सक्रिय रहती हैं लेकिन किसी ने आज तक इन्हें ईवीएम पर सर्वे करने का प्रोजेक्ट नहीं थमाया है।
चुनाव आयोग भी यह काम कर सकता है। एक बड़े और प्रातिनिधिक सैंपल के साथ जब कोई भरोसे वाली एजेंसी सुपरिभाषित और पूर्वघोषित सर्वे पद्धति का इस्तेमाल करेगी, तो उसके नतीजों से कमोबेश पता लग जाएगा कि वोटिंग प्रतशित बढ़ाते रहने वाला हमारा मतदाता-समाज इस विवाद के बारे में क्या सोचता है। जरूरी नहीं कि इससे शंका की सुई हिलनी बंद हो जाए, पर वह कुछ देर के लिए थमेगी जरूर।
यहां मैं ईवीएम पर नीर-क्षीर विवेक कर सकने वाले एक और नजरिये को पेश करना चाहता हूं। मुख्य तौर पर विश्लेषणात्मक होने के साथ-साथ इसका आधार मतदाताओं की न्याय-बुद्धि पर भरोसे में निहित है। सोचने की बात है कि अगर मध्य प्रदेश के वोटरों ने भाजपा की बजाय कांग्रेस को आठ फीसदी वोट ज्यादा दिए होते और ईवीएम से वोट भाजपा के निकलते तो मतदाताओं पर क्या प्रतिक्रिया होती? ऐसा तभी हो सकता था जब मध्यप्रदेश की ऊंची और ओबीसी जातियां भाजपा की बजाय कांग्रेस को पसंद करतीं, साथ ही मध्यप्रदेश की स्त्री-मतदाताओं की प्राथमिकता भी भाजपा की बजाय कांग्रेस ही होती।
क्या अपने वोट को सीधे-सीधे लुटते देख कर इतने बड़े-बड़े मतदाता-मंडल चुपचाप बैठे रहते। उनमें आपसी चर्चा भी नहीं होती। अगर इतनी बड़ी संख्या में मतदाताओं के बीच इस तरह की शंका का आदान-प्रदान होता तो क्या उनकी प्रतिध्वनि राजनीतिक समाज तक नहीं पहुंचती? सामान्य मतदाता भले ही पार्टी-कार्यकर्ताओं की तरह सोच-बोल न पाते हों, क्या हमें उन्हें राजनीतिक रूप से एकदम निष्क्रिय मान लेना चाहिए?
इसी तरह हमें राजस्थान और छत्तीसगढ़ पर भी गौर करना चाहिए। अगर राजस्थान में राजपूतों, गूजरों, ब्राह्मणों और ओबीसी जातियों ने भाजपा को पसंद करने के बजाय कांग्रेस को पसंद किया होता और वोट भाजपा के निकलते तो क्या इन मतदाताओं में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती? मेरा मानना है कि ये मतदाता समुदाय गुस्से में भरकर सड़कों पर निकल पड़ते-और इन्हें संभालना नामुमकिन हो जाता।
समझा जाता है कि जाट-प्रधान निर्वाचनक्षेत्रों में इस बार कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। अगर वहां वोट भाजपा के निकलते तो क्या राजस्थान के जाट ऊंची आवाज में अपना विरोध व्यक्त नहीं करते? इस तरह का चुनावी फर्जीवाड़ा देश में एक राजनीतिक बगावत की स्थिति पैदा कर सकता है। इस बगावती तूफान के सामने कोई सरकार या प्रशासन नहीं टिक पाएगा। हर चुनाव में मुहिम के आखिरी दौर में यह पता लगना शुरू हो जाता है कि कौन जीतने वाला है।
यह आवाज जमीन से आने लगती हैॉ लेकिन, उसे सुनने के लिए आपका जमीन पर खड़ा रहना जरूरी है। दूसरे, हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत समुदायों का लोकतंत्र है यानी, हमारे देश में वोट सामुदायिक हिसाब से पड़ते हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर किसी समुदाय के साठ-सत्तर फीसदी मतदाता एक साथ सोच कर संगठित रूप से किसी पार्टी के पक्ष या विपक्ष में वोट करते हैं।
भले ही उनकी पसंदीदा पार्टी या उम्मीदवार हार जाए, पर उन्हें पता रहता है कि उनके वोटों के दम पर वह चुनावी लड़ाई में कितनी दूर तक टिका रहा। चाहे जिताने वाला वोट हो, या न जिता सकने वाला वोट हो-दोनों ही सूरतों में वोटरों को पता होता है कि उनकी प्राथमिकताओं का परिणाम क्या निकला। वोट मुहर ठोंक कर दिया जाए या बटन दबा कर- वह जमाना गुजर चुका है जब बूथकैप्चरिंग के जरिये वोट लूटे जाते थे।