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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतांत्रिक देश की राजनीति में अशोभनीय भाषा का स्थान न हो

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: November 18, 2020 17:52 IST

गांधी की दुहाई हम बहुत देते हैं, इस बात को एक उदाहरण के रूप में भी सामने रखते हैं कि गांधी के नेतृत्व में हमने अहिंसा के द्वारा आजादी हासिल की थी.

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कभी हर पांच साल बाद होने वाले चुनाव अब कभी भी हो सकते हैं. अभी बिहार के चुनाव खत्म हुए हैं और सामने पश्चिम बंगाल के चुनाव आ गए हैं. फिर ओडिशा में चुनाव होंगे, कर्नाटक में होंगे.. मतलब यह कि देश में हर समय कहीं न कहीं एक माहौल बना रहता है चुनाव का.

इस माहौल में नेताओं के बोल-बचन भी शामिल हैं. पता नहीं क्यों हमारे राजनेताओं को यह लगता है कि उन्हें कुछ भी कहने की आजादी है. वे यह मान कर चलते हैं कि इस संदर्भ में भी वे विशेषाधिकार-प्राप्त व्यक्ति हैं.

राजनीति में विरोधी तो होते ही हैं, पर विरोध करने का मतलब दुश्मनी कैसे हो गया? और दुश्मनी भी ऐसी कि मरने-मारने की बातें होने लगें! चुनावों में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने के लिए उसकी आलोचना करना, उसकी कमजोरियों को सामने लाना, उसकी अपरिपक्वता की बात करना आदि सब तो समझ में आता है, पर यह समझना मुश्किल है कि हमारे राजनेताओं को यह क्यों लगता है कि विरोध करते हुए भाषा की मर्यादा ही भुला दी जाए?

मरने-मारने की राजनीति हम बंगाल और केरल में देख चुके हैं. हमारी जनतांत्रिक परंपरा पर धब्बा हैं ये घटनाएं. बहुत गहरा धब्बा. और जब बड़े नेताओं को यह सब कहते-करते देखते हैं तो सिर्फ शर्म ही नहीं आती, गुस्सा भी आता है.

आखिर क्यों पनपने दिया जाता है ऐसे नेताओं को जो राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए कुछ भी करने की बातें करते हैं?

होना तो यह चाहिए था कि संबंधित पार्टियों के मुखिया अपने सहयोगियों को खुलेआम आगाह करते कि इस तरह भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, पर किसी ने ऐसा कुछ कहा नहीं. उन्हें शायद यह याद रखना भी जरूरी नहीं लगा कि ऐसे मुद्दों पर मौन का अर्थ अक्सर स्वीकृति होता है.

डर लगता है यह सोचकर कि हमारी राजनीति में इस तरह की प्रवृत्तियों को पनपने दिया जा रहा है. यह हिंसा की राजनीति है और जनतांत्रिक व्यवस्था में इसके लिए कोई स्थान नहीं है, होना भी नहीं चाहिए. केरल में और पश्चिम बंगाल में इस तरह की घटनाओं का होना हमारे लिए एक चेतावनी होनी चाहिए.

यह हिंसक प्रवृत्ति इन दो राज्यों में अक्सर दिखने लगी है, पर इसका अर्थ यह नहीं है कि यह इन्हीं राज्यों तक सीमित है. हमने देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग रूप में इस हिंसा को पनपते देखा है.

कभी यह प्रवृत्ति गौहत्या के नाम पर पीट-पीट कर मार देने में दिखती है और कभी बच्चा चोरों का आतंक दिखा कर किसी को मार दिया जाता है. यह अनायास नहीं है कि दो साल पहले पगलाई भीड़ ने सोलह अलग-अलग घटनाओं में सोलह व्यक्तियों को इसलिए पीट-पीट कर मार दिया था कि उन पर बच्चा-चोर होने का शक किया जा रहा था.

गांधी की दुहाई हम बहुत देते हैं, इस बात को एक उदाहरण के रूप में भी सामने रखते हैं कि गांधी के नेतृत्व में हमने अहिंसा के द्वारा आजादी हासिल की थी. पर उसी गांधी की प्रतिमा पर गोली चलाकर, उसे फिर से मारने का नाटक करके, हममें से ही कई यह बताना भी गलत नहीं समझते कि हिंसा हमारी सोच का हिस्सा है.

यह प्रवृत्ति अक्सर हिंसा को भड़काने का काम करती है. हमें यह भी याद रखना होगा कि बार-बार भड़क उठने वाली हिंसा की समस्या का मूल जनतांत्रिक मूल्यों के अभाव में निहित है. जब शासन समाज के गलत तत्वों पर काबू नहीं रख पाता या फिर अपनी ही जनता के खिलाफ हिंसा का इस्तेमाल करने में संकोच नहीं करता तो एक तरह से यह हिंसा को जीवन में हस्तक्षेप करने का एक निमंत्नण ही होता है. 

अपराध है समाज में हिंसक-प्रवृत्ति को पनपने का अवसर देना. हमारी राजनीति का आधार गोली नहीं, वोट है. इसलिए ऐसी हर कोशिश को नाकामयाब बनाना उस हर नागरिक का कर्तव्य है जो जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करता है. हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी प्रकार की हिंसा को स्वीकार नहीं किया जा सकता.

धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण के नाम पर की गई हिंसा साहित्यकार अज्ञेय के शब्दों में संस्कृति की चेतना के मुरझाने का परिणाम है. आज इस चेतना को फिर से खिलने का अवसर देने की आवश्यकता है.

सवाल उठता है यह काम हो कैसे? और इस सवाल का सीधा-सा जवाब है, देश और समाज का नेतृत्व करने का दावा करने वालों को यह बात समझाई जाए कि हिंसा के सहारे अपने विरोधी को हराना अलोकतांत्रिक ही नहीं, अमानुषिक भी है. और नेताओं को समझाने का यह काम किसी विशिष्ट व्यक्ति या व्यवस्था को नहीं, सजग और विवेकशील नागरिक को करना है.

टॅग्स :पश्चिम बंगालओड़िसाकर्नाटकमहात्मा गाँधी
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