डॉ. अमन हिंगोरानी का ब्लॉगः मीडिया ट्रायल, महात्मा गांधी और कानून

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: October 2, 2020 03:56 PM2020-10-02T15:56:56+5:302020-10-02T15:56:56+5:30

Blog of Dr Aman Hingorani Media Trial Mahatma Gandhi and Law | डॉ. अमन हिंगोरानी का ब्लॉगः मीडिया ट्रायल, महात्मा गांधी और कानून

mahatma gandhi

दिनों खबरों में मीडिया ट्रायल का बोलबाला है, जो किसी न किसी मामले को सनसनीखेज बना रहे हैं. न्यूजपेपर ट्रायल सहित मीडिया ट्रायल, समय के साथ इतने व्यवस्थित हो गए हैं कि उन्हें प्राकृतिक और सहज मान लिया गया है. यह इस तथ्य के बावजूद है कि अदालतें हमेशा से इस पर अपनी नाराजगी जताती रही हैं. एक पूर्ववर्ती मामला- ठीक 100 साल पुराना - एक दस्तावेज के प्रकाशन से संबंधित है जो एक लंबित मामले का हिस्सा था और इस तरह के दस्तावेज पर किसी और ने नहीं बल्कि गांधीजी ने अखबार यंग इंडिया में टिप्पणी की थी. 12 मार्च 1920 को सुनाए गए अपने फैसले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था कि अदालत में लंबित कार्यवाही के बारे में कोई टिप्पणी करने का अधिकार अखबारों को नहीं होता है. वर्ष 1919 में कठोर रोलेट कानून आया था, जिसमें सरकार को मनमाने ढंग से गिरफ्तारी करने और संदिग्ध राजनीतिक असंतुष्टों को हिरासत में रखने का प्रावधान था. गांधीजी ने इसके खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया था. उस दौरान गांधीजी ने 6 अगस्त 1919 को यंग इंडिया में एक पत्र प्रकाशित किया था और उस पर टिप्पणी भी की थी. यह पत्र अहमदाबाद के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बी.सी. कैनेडी की ओर से बॉम्बे हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को लिखा गया था. मजिस्ट्रेट कैनेडी द्वारा लिखा गया पत्र अहमदाबाद कोर्ट के वकीलों के बारे में था, जिन्होंने ‘सत्याग्रह प्रतिज्ञा’ पर हस्ताक्षर किए थे और रोलेट एक्ट जैसे कानूनों का पालन करने से सविनय मना किया था. हाईकोर्ट ने तब गांधी और महादेव हरिभाई देसाई पर यंग इंडिया के संपादक और प्रकाशक के रूप में अवमानना की कार्रवाई शुरू की थी. बॉम्बे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने अपने रजिस्ट्रार के माध्यम से, गांधी को 1 अक्तूबर 1919 को पत्र के प्रकाशन और अपनी टिप्पणियों के बारे में स्पष्टीकरण देने के लिए कहा था. गांधी ने 22 अक्टूबर 1919 को कोर्ट को एक पत्र भेजा जिसमें लिखा था कि ‘‘उक्त पत्र को प्रकाशित करना और उस पर टिप्पणी करना एक पत्रकार के रूप में मेरे अधिकारों के तहत था. मेरा विश्वास था कि पत्र सार्वजनिक महत्व का है और उसने सार्वजनिक आलोचना का आह्वान किया है.’’ तब मुख्य न्यायाधीश ने जवाब दिया कि वह ‘‘यह मानने के लिए तैयार हैं कि अखबार के संपादक इस बात से अनजान थे कि वह एक पत्रकार के विशेषाधिकार को पार कर रहे हैं, बशर्ते कि वे यंग इंडिया के अगले अंक में ‘माफी’ का एक प्रपत्र प्रकाशित करें.’’ गांधीजी ने 11 दिसंबर 1919 के अपने पत्र के माध्यम से, सुझाए गए माफी के प्रपत्र को प्रकाशित करने में असमर्थता व्यक्त की और कहा कि पत्र को प्रकाशित करने और टिप्पणी करने में उन्होंने एक उपयोगी सार्वजनिक कर्तव्य निभाया है. माफी मांगने से इनकार करते हुए उन्होंेने कहा कि ‘‘मैं सम्मानपूर्वक उस दंड को भुगतना चाहूंगा जो माननीय मुङो देने की कृपा कर सकते हैं’’. अदालत ने कैनेडी का पत्र प्रकाशित करने और उस पर टिप्पणी करने के मामले में गांधी (और देसाई, जिन्होंने गांधी के साथ सहमति व्यक्त की थी) को अदालत की अवमानना का दोषी पाया. लेकिन कहा, ‘‘यह संभव है कि संपादक, प्रतिवादी गांधी, को एहसास नहीं था कि वह कानून तोड़ रहे हैं ..उत्तरदाताओं ने खुद को कानून तोड़ने वाले के रूप में नहीं बल्कि कानून के निष्क्रिय प्रतिरोधी के रूप में पेश किया है. इसलिए, यह पर्याप्त होगा कि इन मामलों में उनकी कार्यवाही के लिए उन्हें कड़ी फटकार लगाई जाए और उच्च न्यायालय द्वारा दंडित करने की चेतावनी दी जाए.’’ गांधीजी के द्वारा किए जाने वाले कार्यो की यह नैतिक ताकत ही थी जो उन्हें दूसरों से अलग करती थी, चाहे वे कार्य उन्होंने एक वकील के रूप में किए हों, एक पत्रकार या एक सत्याग्रही के रूप में. लेकिन वे गांधीजी थे. न केवल आज के नायक अलग-अलग हैं बल्कि समय भी. लंबित मामलों या दस्तावेजों के समय से पहले प्रकाशन पर टिप्पणी करने से क्या अब अवमानना का मामला दर्ज होता है, जबकि याचिका, शपथ पत्र और साक्ष्य नियमित रूप से सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म, विशेष रूप से कानूनी प्लेटफार्मो पर अपलोड किए जाते हैं, और मामले को अदालत में उठाए जाने से पहले भी प्रसारित किया जाता है? शायद नहीं, एक संवैधानिक लोकतंत्र में न्यायालयों को लोगों को न्याय देने के लिए करदाताओं के पैसे से बनाया जाता है और लोग निस्संदेह हकदार हैं कि उन्हें न्याय की गुणवत्ता से अवगत कराया जाए. इसके अलावा, कई लोग तर्क देते हैं कि अवमानना कानूनों को परिपक्व लोकतंत्रों में खारिज कर दिया गया है और इस तरह के अंतरराष्ट्रीय अभ्यास के अनुरूप, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को शायद ही कभी, संविधान द्वारा प्रदान की गई अपनी अवमानना की शक्तियों का उपयोग करना चाहिए. फिर भी अन्य लोग दावा करेंगे कि अवमानना शक्तियों का प्रयोग स्वाभाविक रूप से व्यक्तिपरक है और कोई वास्तविक उद्देश्य नहीं है. अंतत: तो अदालतों को गरिमा और विश्वसनीयता की मजबूत नींव पर खड़ा होना चाहिए. कुछ लंबित मामलों में समय से पहले दस्तावेजों के प्रकाशन पर टिप्पणी करने से मीडिया ट्रायल हो सकता है और न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप हो सकता है. अगर अवमानना कानून नहीं होगा तो कोई ऐसे मीडिया ट्रायल पर अंकुश किस तरह से लगाएगा? मेरा मानना है कि देश का सामान्य आपराधिक कानून इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त होगा.

Web Title: Blog of Dr Aman Hingorani Media Trial Mahatma Gandhi and Law

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