ब्लॉग: जवाहरलाल नेहरू का नाभा जेल का अनुभव और रिहाई

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: April 11, 2023 10:53 AM2023-04-11T10:53:06+5:302023-04-11T10:55:15+5:30

के. संथानम ने अपने संस्मरण में लिखा है- नाभा जेल में हमारे कारावास के बारे में बाहरी दुनिया को पता नहीं था. इसे लेकर पंडित मोतीलाल नेहरू चिंतित हो गए और पंजाब में विभिन्न अधिकारियों और अन्य लोगों से हमारे ठिकाने का पता लगाने की कोशिश की.

Blog: Jawaharlal Nehru's Nabha Jail Experience and Release | ब्लॉग: जवाहरलाल नेहरू का नाभा जेल का अनुभव और रिहाई

ब्लॉग: जवाहरलाल नेहरू का नाभा जेल का अनुभव और रिहाई

कंचन गुप्ता

मैंने श्री सुरेश भटेवरा का लेख, ‘नेहरू ने अपनी रिहाई के लिए कभी माफी नहीं मांगी’ रुचि के साथ पढ़ा. उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर को गलत साबित करने की कोशिश करते हुए जवाहरलाल नेहरू के नाभा जेल के संस्मरणों को ही संक्षेप में पेश किया है. इसके पीछे कारण हैं कि नेहरू ने अपने नाभा अनुभव को अपनी ‘आत्मकथा’ में एक अलग अध्याय बनाने के लिए क्यों चुना; मैंने उस कारण की खोज की है जो नेहरूवादी इतिहासकारों द्वारा लंबे समय तक दबाए गए प्रति-आख्यान को प्रकट करता है.

1919 में हुए भीषण जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद सिख राजनीति ने एक नया मोड़ लिया. अकालियों द्वारा गुरुद्वारा सुधार और गुरुद्वारों को डेरों से मुक्त कराने के लिए मोर्चा निकाले गए. यहीं से अकाली राजनीति की उत्पत्ति और बाद में एसजीपीसी का गठन हुआ.

नाभा राज्य के राष्ट्रवादी शासक राजा रिपुदमन सिंह ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा अपदस्थ कर दिए गए थे और उनके नाबालिग बेटे को एक ब्रिटिश प्रशासक प्रभारी के साथ सिंहासन पर बिठाया गया था. अकालियों ने रिपुदमन सिंह के समर्थन में रैली की और सितंबर 1923 में जैतो, नाभा में एक विशाल मोर्चे का आयोजन किया. कांग्रेस यह जानना चाहती थी कि क्या हो रहा है. 

जवाहरलाल नेहरू 21 सितंबर 1923 को पार्टी सहयोगियों के. संथानम और आचार्य ए.टी. गिडवानी के साथ सिख मोर्चा देखने गए. संक्षेप में, यह कहानी है कि कैसे जवाहरलाल नेहरू जैतो और फिर नाभा पहुंचे.0

के. संथानम ने अपने संस्मरण ‘हैंडकफ्ड विद नेहरू’ में गिरफ्तारी के बारे में लिखा है : ‘‘हमें (नाभा) जेल के एक अलग और सुनसान हिस्से में रखा गया था, जिसे मिट्टी की दीवारों से बनाया गया था. दीवारें और छत मिट्टी से बने थे और फर्श भी मिट्टी का था. संतरी को हमसे बात करने की अनुमति नहीं थी. तय समय पर हमारे सेल में चपाती और दाल वाला खाना रखा जाता था और हमारे नहाने का कोई इंतजाम नहीं किया गया था. हमारे कपड़े भी हमें नहीं दिए गए. छत से हर समय मिट्टी गिर रही थी. जवाहरलाल इस व्यवहार से बहुत चिढ़ गए और उन्होंने कमरे को साफ रखने की कोशिश करते हुए हर आधे घंटे में फर्श पर झाडू लगाकर अपनी झुंझलाहट को बाहर निकाला.’’

जेल की स्थिति पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है. जवाहरलाल नेहरू ने अपनी ‘आत्मकथा’ में एक अध्याय ‘एन इंटरल्यूड एट नाभा’ शामिल किया, जिसमें उन्होंने लिखा है : ‘‘जब हमें आखिरकार नाभा जेल में पहुंचाया गया तो संयुक्त हथकड़ी और भारी जंजीर हमारे साथ थी. (यह) ऐसा अनुभव नहीं है जिसे मैं दोहराना चाहूंगा. नाभा जेल में हम तीनों को एक बेहद खराब और गंदी कोठरी में रखा गया था. यह छोटी और नम थी. रात को हम फर्श पर सोते थे, जब मैं रात को डर कर उठा तो पाया कि अभी-अभी एक चूहा मेरे चेहरे के ऊपर से गुजरा है.’’

जवाहरलाल नेहरू इसे और सहन नहीं कर सके. मजिस्ट्रेट मामले को लंबा खींच रहे थे. इस बीच, नेहरू पर नाभा राज्य में प्रवेश पर प्रतिबंध के आदेशों का उल्लंघन करने के अलावा साजिश का आरोप भी लगाया गया था. साजिश के आरोप में दो साल की सजा का प्रावधान था. साजिश का आरोप तय करने के लिए अभियोजन पक्ष को चार अभियुक्तों की जरूरत थी. इसलिए उन्होंने एक निर्दोष गरीब सिख को उठाया और उसे जवाहरलाल नेहरू, के. संथानम और आचार्य गिडवानी के साथ शामिल कर दिया. 

नाभा जेल में दो साल बिताने की संभावना से जवाहरलाल नेहरू घबरा गए. के. संथानम ने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘‘नाभा जेल में हमारे कारावास के बारे में बाहरी दुनिया को पता नहीं था. पंडित मोतीलाल नेहरू चिंतित हो गए और पंजाब में विभिन्न अधिकारियों और अन्य लोगों से हमारे ठिकाने का पता लगाने की कोशिश की. कोई जवाब न मिलने पर उन्होंने स्वयं वायसराय से संपर्क किया, जिन्होंने नाभा से सूचना प्राप्त की. इसमें दो से तीन दिन लग गए. नाभा जेल के अधिकारियों ने अचानक अपना रुख बदल लिया और हमारे नहाने का इंतजाम कर दिया गया. हमारे कपड़े हमें दिए गए और बाहर के दोस्तों को फल और अन्य खाने की चीजें भेजने की अनुमति दे दी गई.’’

नेहरू अपनी ‘आत्मकथा’ में लिखते हैं कि उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने वाइसराय को टेलीग्राम किया था. उसके बाद चीजें बदलीं और जहां किसी भी कैदी को परिवार से मिलने की अनुमति नहीं थी, वहीं मोतीलाल नेहरू को नाभा जेल में अपने बेटे से मिलने की अनुमति दी गई.

संक्षेप में, जिन भयानक परिस्थितियों में नेहरू को रखा गया था, मोतीलाल नेहरू के वाइसराय को टेलीग्राम के बाद चमत्कारिक रूप से वह बदल गई. दुर्भाग्य से, यह ज्ञात नहीं है कि उस टेलीग्राम में क्या लिखा था. हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि यह एक पिता की ओर से ब्रिटिश अधिकारियों से अपील थी कि वे उनके बेटे के साथ विशेष अनुग्रह करें. एक तरह से, हम यहां कह सकते हैं कि वीर सावरकर को संभवत: सेल्युलर जेल में अकथनीय अमानवीय यातना से बख्श दिया गया होता अगर उनके पिता उस समय के शक्तिशाली अभिजात वर्ग से जुड़े होते.

कारावास के एक पखवाड़े के बाद, जवाहरलाल नेहरू, के. संथानम, आचार्य गिडवानी और गरीब सिख, जिसे सह-आरोपी बनाया गया था, को निषेधात्मक आदेशों का उल्लंघन करने और साजिश रचने के दोनों मामलों में दोषी ठहराया गया. उन्हें 6 महीने और 18 महीने जेल की सजा सुनाई गई थी. सजा, चमत्कारिक और अनोखे तरीके से, अपील दायर किए बिना, सुनाए जाने के तुरंत बाद निलंबित कर दी गई थी. जवाहरलाल नेहरू, के. संथानम और आचार्य गिडवानी को निर्वासन का आदेश दिया गया और कहा गया कि वे नाभा में फिर से नहीं लौटने की घोषणा करें. नियम के अनुसार तीनों ने बाध्यकारी आदेश पर हस्ताक्षर किए.

नेहरू ने अपनी ‘आत्मकथा’ में जो दावा किया है, वह नाभा के उनके अनुभव के लंबे समय बाद लिखा गया है, बिना सबूत या चश्मदीद गवाहों के, कि उन्हें आदेश नहीं दिखाया गया था या एक प्रति नहीं दी गई थी. लेकिन इतिहासकारों ने उस दावे का खंडन किया है. कम से कम, जेल से रिहा होने से पहले तीनों ने कुछ कागजात या दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे. यह बिल्कुल हीरो जैसी रिहाई नहीं थी जैसा कि कांग्रेस और पार्टी से जुड़े लोगों ने बताया है.

जवाहरलाल नेहरू, के. संथानम और आचार्य गिडवानी ने तुरंत नाभा छोड़ दिया. हालांकि, साजिश के मामले में उनके साथ शामिल किया गया गरीब निर्दोष सिख जेल में रहा और बाद में उसके साथ क्या हुआ, इसका कुछ पता नहीं है. न तो मोतीलाल नेहरू और न ही जवाहरलाल नेहरू ने उसके मामले की पैरवी करने की परवाह की, जबकि दोनों प्रतिष्ठित बैरिस्टर थे. 

दिलचस्प बात यह है कि कुछ हफ्ते बाद आचार्य गिडवानी अकाली मोर्चे में शामिल होने के लिए लौटे और उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया. निलंबित सजा को बहाल कर दिया गया (क्योंकि उन्होंने वापस न लौटने के समझौते का उल्लंघन किया था) और उन्हें नाभा जेल भेज दिया गया.

गौरतलब है कि जवाहरलाल नेहरू अपने दोस्त को बचाने के लिए दौड़े नहीं बल्कि चुपचाप निकल गए. स्पष्ट रूप से उनमें नाभा जेल की भयावहता का फिर से सामना करने का साहस नहीं था, यह भयावहता जो वीर सावरकर को सेल्युलर जेल में झेलनी पड़ी थी, उसका एक छोटा सा अंश थी. 

नेहरू को बाद में अपनी ‘आत्मकथा’ में लिखना पड़ा : ‘‘मैंने दोस्तों की सलाह का आश्रय लिया और इसे अपनी कमजोरी को छिपाने के बहाने के रूप में बनाया. आखिरकार यह मेरी अपनी कमजोरी और फिर से नाभा जेल जाने की अनिच्छा थी जिसने मुझे दूर रखा, और इस तरह एक सहयोगी को छोड़ने में मुझे हमेशा थोड़ी शर्म महसूस होती है. जैसा कि हम सभी के साथ अक्सर होता है, बहादुरी पर विवेक को प्राथमिकता दी गई.’’ क्या यही एकमात्र कारण है? या कुछ और, जिसने उन्हें पीछे खींचा? उनके द्वारा दिया गया कोई वचन? या मोतीलाल नेहरू के द्वारा?

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