ब्लॉग: सीखने के आनंद को समाप्त न करे परीक्षा

By पंकज चतुर्वेदी | Published: January 9, 2024 10:28 AM2024-01-09T10:28:44+5:302024-01-09T10:34:47+5:30

देश में अभी कड़ाके की सर्दी शुरू हुई है और सीबीएसई बोर्ड की इस घोषणा ने किशोरों में गर्मी और घबराहट ला दी कि 15 फरवरी से सीबीएसई के 10वीं और 12वीं के बोर्ड इम्तेहान शुरू होंगे।

Blog: Exams should not take away the joy of learning | ब्लॉग: सीखने के आनंद को समाप्त न करे परीक्षा

फाइल फोटो

Highlightsसीबीएसई बोर्ड की परीक्षा की घोषणा, छात्रों के लिए सर्दी में आ गई गर्मी और घबराहट सीबीएसई ने ऐलान किया है कि 15 फरवरी से शुरू होगी 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षाबोर्ड की होने वाली ये परीक्षाएं अब बच्चों के लिए गलाकाट युद्ध जैसा हो गया है

अभी कड़ाके की सर्दी शुरू हुई है और सीबीएसई बोर्ड की इस घोषणा ने देशभर के किशोरों में गर्मी और घबराहट ला दी कि 15 फरवरी से सीबीएसई के 10वीं और 12वीं के बोर्ड इम्तेहान शुरू होंगे। खुद को बेहतर साबित करने के लिए इन परीक्षाओं में अव्वल नंबर लाने का भ्रम इस तरह बच्चों व उससे ज्यादा उनके पालकों पर लाद दिया गया है कि अब ये परीक्षा नहीं, गलाकाट युद्ध सा हो गया है।

उधर कई हेल्पलाइन शुरू हो गई हैं कि यदि बच्चे को तनाव हो तो संपर्क करें। जरा सोचें कि बच्चों के बचपन, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की कीमत पर एक बढ़िया नंबरों का सपना देश के ज्ञान-संसार पर किस तरह भारी पड़ रहा है। हालांकि नई शिक्षा नीति को आए तीन साल हो गए हैं लेकिन अभी तक जमीन पर बच्चे न तो कुछ नया सीख रहे हैं और न ही जो पढ़ रहे हैं, उसका आनंद ले पा रहे हैं-बस एक ही धुन है या दबाव है कि परीक्षा में जैसे-तैसे अव्वल या बढ़िया नंबर आ जाएं।

सन्‌ 2020 की शिक्षा नीति में भी कहा गया था कि अब बच्चों को परीक्षा के भूत से मुक्ति मिल जाएगी। अब ऐसी नीतियां व पुस्तकें बन गई हैं जिन्हें बच्चे मजे-मजे पढ़ेंगे। 10वीं के बच्चों को अंक नहीं ग्रेड देने का काम कई साल से चल रहा है लेकिन इससे भी बच्चों पर दबाव में कोई कमी नहीं आई है।

बारहवीं बोर्ड के परीक्षार्थी बेहतर स्थानों पर प्रवेश के लिए चिंतित हैं तो दसवीं के बच्चे अपने पसंदीदा विषय  पाने के दबाव में। क्या किसी बच्चे की योग्यता, क्षमता और बुद्धिमत्ता का तकाजा महज अंकों का प्रतिशत ही है?

छोटी कक्षाओं में सीखने की प्रक्रिया के लगातार नीरस होते जाने व बच्चों पर पढ़ाई के बढ़ते बोझ को कम करने के इरादे से मार्च 1992 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश के आठ शिक्षाविदों की एक समिति बनाई थी, जिसकी अगुआई प्रोफेसर यशपाल कर रहे थे। समिति ने देशभर की कई संस्थाओं व लोगों से संपर्क किया व जुलाई 1993 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी।

जिसमें साफ लिखा गया था कि बच्चों के लिए स्कूली बस्ते के बोझ से अधिक बुरा है न समझ पाने का बोझ। सरकार ने सिफारिशों को स्वीकार भी कर लिया और एकबारगी लगा कि उन्हें लागू करने के लिए भी कदम उठाए जा रहे हैं फिर देश की राजनीति में सरकारें बदलती रहीं और हर सरकार अपनी विचारधारा जैसी किताबों के लिए ही चिंतित रही।

बच्चों की नीरस सीखने की प्रक्रिया पर रिपोर्ट की सुध किसी ने नहीं ली। वास्तव में परीक्षा का वर्तमान तंत्र आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा है। इसके स्थान पर सामूहिक गतिविधियों को प्रोत्साहित, पुरस्कृत किया जाना चाहिए. यह बात सभी शिक्षाशास्त्री स्वीकारते हैं, इसके बावजूद बीते दो दशक में कक्षा में अव्वल आने की गलाकाट स्पर्धा में न जाने कितने बच्चे मौत को गले लगा चुके हैं।

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