ब्लॉग: फ्री स्पीच की आड़ में विभाजनकारी एजेंडा! 'द केरल स्टोरी' जैसी फिल्में कला नहीं बल्कि शुद्ध प्रचार और प्रोपेगेंडा टूल हैं
By कपिल सिब्बल | Published: May 31, 2023 08:46 AM2023-05-31T08:46:21+5:302023-05-31T08:47:04+5:30
मुद्रित शब्द चलचित्रों की तुलना में कम प्रभावी होते हैं. चलचित्र हमारी आंखों को लुभाते हैं और हमारी भावनाओं को भी प्रभावित करते हैं. कहानियां, फिर वह तथ्यों पर आधारित हों या कल्पनाओं पर- हमारे मन-मस्तिष्क को प्रभावित करती हैं. चलचित्रों यानी फिल्मों को सूचना देने के इरादे से प्रदर्शित किया जा सकता है, या ऐसी कहानी दिखाने लिए जो अब तक नहीं बताई गई है, काल्पनिक कहानी दिखाने के लिए, धोखा देने के लिए, प्रचार करने के लिए या शायद कला के इस रूप को प्रोपेगेंडा टूल के रूप में इस्तेमाल करने के लिए किया जा सकता है.
यह सबकुछ अभिव्यक्ति के अधिकार के नाम पर और संविधान रक्षित एक मौलिक अधिकार के नाम पर किया जाता है. हालांकि अभिव्यक्ति के अधिकार सहित कोई भी अधिकार असीमित नहीं है.
‘कश्मीर फाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ की स्क्रीनिंग के साथ ही कला के इस रूप का उन उद्देश्यों के लिए उपयोग किया गया है जिनका कला से बहुत कम और वैचारिक मतारोपण से अधिक लेना-देना है. चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के दौरान इस तरह की रिलीज का समय ऐसे सवाल खड़े करता है जिनका जवाब दिया जाना जरूरी है.
कर्नाटक में चुनाव से ठीक पहले जारी की गई ‘द केरला स्टोरी’ केरल में उन हिंदू और ईसाई महिलाओं की दुर्दशा को दर्शाने का दावा करती है, जिन्हें इस्लाम अपनाने और उसके बाद आईएसआईएस में शामिल होने के लिए लुभाया गया. कहानी ऐसी है कि इससे उस समुदाय के प्रति भावनाएं भड़कने और घृणा पैदा होने की आशंका है, जिसे आतंकवादियों की मदद के लिए महिलाओं को धर्मांतरित करने की साजिश के रूप में देखा जाता है.
निर्माताओं ने दावा किया और यह टीजर में भी शामिल था कि केरल में 32,000 महिलाएं इस तरह के धर्मांतरण का शिकार हुई थीं. जब केरल उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई तो फिल्म के निर्माता टीजर को हटाने के लिए तैयार हो गए, लेकिन कहा कि यह उन तीन महिलाओं की सच्ची कहानी है, जो केरल के विभिन्न हिस्सों से हैं और अपना धर्म परिवर्तित कर चुकी हैं. केरल उच्च न्यायालय ने फिल्म की सामग्री को देखे बिना इसकी स्क्रीनिंग के खिलाफ अंतरिम आदेश पारित करने से इनकार कर दिया.
जब एक फिल्म, कथित रूप से काल्पनिक, सांप्रदायिक रूप से विभाजनकारी एजेंडे का प्रचार करती है, विशेष रूप से आसन्न चुनाव के संदर्भ में तो न्यायपालिका को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी चाहिए. सबसे पहले न्यायाधीशों को फिल्म की सामग्री का प्रकार और गुणवत्ता का आकलन करने के लिए फिल्म को देखना चाहिए. निष्पक्षता के दृष्टिकोण से कोई अन्य प्रक्रिया अनुचित होगी. आखिरकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी असीमित नहीं है.
भले ही यह एक मौलिक अधिकार है, लेकिन इसमें देश की सुरक्षा, विदेशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता और नैतिकता, अदालत की अवमानना, मानहानि, अपराध के लिए उकसाना और भारत की संप्रभुता और अखंडता को ध्यान में रखते हुए कुछ प्रतिबंध भी हैं.
जिस जज ने पूरी निष्पक्षता के साथ फिल्म नहीं देखी है, उसे इस तरह का आदेश नहीं देना चाहिए. यदि किसी फिल्म को उसकी सामग्री को देखे बिना प्रदर्शित किया जाता है, तो इससे अपूरणीय क्षति हो सकती है. जब तक फिल्म के गुण-दोषों के आधार पर इसकी स्क्रीनिंग को चुनौती दी जाती है, तब तक नुकसान हो चुका होता है. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि फिल्म के कुछ दृश्य और संवाद विभाजनकारी और घृणित हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बेल्लारी में अपने चुनावी भाषण में आतंकवाद की बदलती प्रकृति की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसे केरल में चल रही आतंकवादी साजिश पर आधारित फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ में दिखाया गया है. चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री का यह बयान दो वजहों से अहमियत रखता है. पहला, यह कल्पना को तथ्य मानता है. ऐसी घटनाएं कभी हुई ही नहीं. दूसरा, यह राजनीतिक लाभ के लिए कहानी में निहित विभाजन का फायदा उठाने का प्रयास करता है. प्रधानमंत्री का बयान हजारों युवाओं को फिल्म की कहानी को सच मानते हुए इसे देखने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है.
ऐसी फिल्में कला नहीं बल्कि शुद्ध प्रचार होती हैं. ये प्रचार एक ऐसी कहानी का हिस्सा है जो ‘हमें’ ‘उनके’ खिलाफ खड़ा करता है. दोनों राज्यों के चुनावों में और 2024 में लोकसभा चुनावों के लिए एक भावनात्मक ध्रुवीकरण करता है, जो भाजपा की राजनीतिक रणनीति के केंद्र में है.
उच्च संवैधानिक प्राधिकारियों द्वारा ‘द केरला स्टोरी’ का बिना सोचे-समझे समर्थन करना हमारी राजनीति को कुछ इस तरह से प्रभावित करता है जिससे सामाजिक समरसता के नष्ट होने का खतरा है. लोगों को प्रभावित करने वाले वास्तविक मुद्दे जैसे बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, महंगाई और जीवन की दैनिक परेशानियों को दरकिनार कर दिया गया है. यह सर्वविदित ‘हम’ बनाम ‘वे‘ का मसला है, जो उन लोगों के लिए चुनावी परिणाम सुनिश्चित करने में मदद करता है जो ‘हम’ का ‘उनके’ खिलाफ दुरुपयोग करते हैं.
मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. सुनवाई के दौरान, अदालत का ध्यान फिल्म के कुछ संवादों की ओर खींचा गया. अदालत ने जुलाई 2023 में इस मामले की सुनवाई करने का फैसला करते हुए, फिल्म निर्माता से स्क्रीन पर इस आशय का एक डिस्क्लेमर दिखाने के लिए कहा कि कहानी पूरी तरह काल्पनिक है. सामूहिक धर्मांतरण के संबंध में किसी प्रामाणिक आंकड़े या 32,000 महिलाओं के धर्मांतरण के किसी स्थापित आंकड़े पर आधारित नहीं है.
इस तथाकथित कला रूप का और दोहन करने के लिए इस सरकार के एक मंत्री ने तो यहां तक कह दिया कि जो लोग इस फिल्म का विरोध करते हैं, वे आईएसआईएस का समर्थन कर रहे हैं. मंत्री के इस कथन को मैं नुकसान पहुंचाने के इरादे के रूप में देखता हूं. दुर्भाग्य से शासक वर्ग इस पर भरोसा करता है. निर्माता अब स्वीकार करते हैं कि फिल्म काल्पनिक है और विरोध करने वाले आईएसआईएस के समर्थक हैं!