Blog: ट्विटर सीईओ जैक डोरसे को इन बातों की समझ होती तो नहीं थामते 'Smash Brahmanical Patriarchy' वाला पोस्टर!

By अनंत नारायण | Published: November 22, 2018 02:24 PM2018-11-22T14:24:15+5:302018-11-22T14:24:15+5:30

Blog: विचारों की लड़ाई और प्रगतिशील समाज की गहमागहमी के बीच नया विवाद जुड़ा ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे द्वारा उठाये गए प्लेकार्ड से. समझें, क्यों जैक को ये प्लेकार्ड उठाना गैरजरूरी था.

Blog: ‘Brahmanical patriarchy’ and Twitter CEO Jack Dorsey’s poster controversy | Blog: ट्विटर सीईओ जैक डोरसे को इन बातों की समझ होती तो नहीं थामते 'Smash Brahmanical Patriarchy' वाला पोस्टर!

Blog: ट्विटर सीईओ जैक डोरसे को इन बातों की समझ होती तो नहीं थामते 'Smash Brahmanical Patriarchy' वाला पोस्टर!

विचारों की लड़ाई और प्रगतिशील समाज की गहमागहमी के बीच नया विवाद जुड़ा ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे द्वारा उठाये गए प्लेकार्ड से. विवाद ट्विटर पर ही बढ़ा, जिसमें लिखा था ‘Smash Brahmanical Patriarchy’. अब इसका मतलब जैक को समझ में नहीं आया, जिन्होंने करवाया उनका काम पूरा हुआ, जिनको समस्या हुई उन्होंने आवाज़ उठाई, जिसे ट्रॉल्स नाम दिया गया. बहरहाल, 2016 के बाद जिस तेजी से भारतीयों की मौजूदगी सोशल मीडिया पर बढ़ी है, गाहे बगाहे रोज़ नया विवाद पैदा होता ही है. 

अब शब्द पर गौर करें- 'SMASH BRAHAMANICAL PATRIARCHY'. हिंदी में इस शब्द का मतलब हुआ ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को बंद करो. अब पहले शब्द SMASH का अर्थ यहाँ विवादित है, जिसका मतलब हुआ नष्ट करना, दूसरा शब्द BRAHMANICAL का अर्थ हुआ ब्राह्मणवादी, तीसरा PATRIARCHY का अर्थ पितृसत्ता. पितृसत्ता से ही शुरुआत करें तो इसका अर्थ हुआ, कि समाज के प्रत्येक कार्यगति में पुरुषों का वर्चस्व, संविधान के होते हुए दंभ से लबरेज़ शब्द. शब्द के रचनाकार और लड़ाके तर्क ये देते हैं, कि यह समाज पितृसत्तात्मक है. बात शत प्रतिशत तो नहीं, किन्तु सत्य है. 

इतिहासकार लिखते हैं कि सभ्यता की शुरुआत में जब भोजन की खोज में प्रतिस्पर्धा घटी और संग्रह की सुविधा बढ़ी तो समय की बचत और सुविधा ने सम्बन्ध का रूप लिया, जिसमें महिला, बूढ़े और बच्चों के भोजन के लिए मेहनत करने का काम कर सकने योग्य पुरुषों ने अपने हाथ में लिया. शायद यहीं पर महिला को दुर्बल पुष्ट करने की जड़ है. किन्तु आज का आधुनिक समाज पितृसत्ता जैसी चीज़ से कतई वास्ता नहीं रखता, कम से कम खुले तौर पर तो नहीं. पढ़ी-लिखी औरतें आज प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, वैज्ञानिक, निदेशक और क्या नहीं बन रही हैं और जब महिलाएं ये सब बन रही हैं, तो प्रश्न ये है, कि पितृसत्ता कहाँ है? तर्क दिया जाता है कि यह लोगों की सोच में है और भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में यह ब्राह्मणवादी सोच में है.

ब्राह्मणवाद क्या है?

दलित चिंतकों का कहना है कि वह सोच जो दलितों के खिलाफ़ है वह ब्राह्मणवादी है. बात इतनी ही हो तो उस सोच को ख़त्म करने में प्रत्येक प्रगतिशील प्राणी यथोचित योगदान ज़रूर देगा, किन्तु उसके खात्मे की आड़ में उन चीज़ों को निशाना बनाया जाता है, जिससे लोगों की भावनाएं जुड़ी होती हैं. भावना इसलिए क्योंकि समाज बराबरी का नहीं है, समाज जाति में बंटा हुआ है, इसलिए संविधान है, जो किसी खास जाति को अनेकों तरह की सुविधा देता है, क्योंकि सबने माना कि ग़लती समाज से हुई है, जिसकी भरपाई होनी चाहिए और वह हुई. समाज में सिर्फ वही जाति नहीं है, जो सदियों से शोषित है वह भी है जिसको शोषक का दर्ज़ा मिला है. इस शोषक समाज में सिर्फ़ निशाना बनाया जाता है ब्राह्मणों को, क्योंकि कथानक के पात्र यही कहते हैं, कि इन बाहरी लोगों ने मूलनिवासियों (नयी बहस है जो यह कहती है कि सवर्ण जाति के लोग बाहरी हैं और शूद्र ही यहाँ के मूलनिवासी) पर यह दासता थोपी है. 

जब इतिहास उठाया जाये तो पता यह चलता है, कि आर्य यूराल पर्वत श्रेणी के निचले हिस्से जो कि वर्तमान के मध्य एशिया का हिस्सा है, से आए और उन्होंने यहाँ के लोगों को दास बनाया. मतान्ध यह सिद्ध भी कर देते हैं, अंग्रेजों को तो बाहरी सिद्ध कर देते हैं, किन्तु इतिहास प्रवर्तक बड़ी चालाकी से इस्लामिक आक्रान्ताओं को यहीं का सिद्ध कर देते हैं, यह मैं नहीं राष्ट्रीय शैक्षिक एवं अनुसन्धान परिषद (NCERT) की पुस्तकें कहती हैं. 

खैर, यह अन्य दिनों के बहस का विषय है. इस द्रविण एवं आर्यन सिद्धांत (पुरानी बहस) के प्रतिपादक जर्मनी निवासी मैक्स मूलर ने यह सिद्ध किया भाषा, शारीरिक बनावट और नस्ल के आधार पर, जिसको तत्कालीन ब्रिटिश प्रभुत्व ने अपने फ़ायदे और आगे अन्य सभी ने जिसमें हिटलर भी शामिल है, इस्तेमाल किया. आर्यों (सवर्णों) ने मनुस्मृति लिखी जिसमें शूद्रों और महिलाओं के लिए अपमानजनक या कहें उन्हें दबाये रखने की बात कही गयी है. यदि इन्हीं चिंतकों से उसके अन्य श्लोकों के बारे में बात की जाये तो 80% को पता ही नहीं होता कि उसमें और क्या लिखा है? हाँ उसमें शूद्रों एवं महिलाओं के खिलाफ़ कुछ बुरा लिखा है, यह जरूर पता रहता है -रटा रहता है.

मनुस्मृति मूल रूप में क्या थी? कोई नहीं जानता यह शत-प्रतिशत सत्य है. मनुस्मृति में मनु-शतरूपा से ज्यादा भृगु का जिक्र है, अब यह कहाँ से आया यह कौन बताये? शायद शेल्डन पोलाक या वेंडी डोनिगर ही बता सकती हैं. मनुस्मृति अंग्रेजों की सुविधा के लिए इस्तेमाल की गयी, इसकी पुष्टि भी NCERT ही करती है, जो यह कहती है, कि पंडितों ने अंग्रेजों को मनुस्मृति भेंट की और कहा, कि यह हिन्दू समाज के नियम कानून की पुस्तक है, जिसका इस्तेमाल आप दण्ड संहिता के रूप कर सकते हैं. अब बाहरी जो आपके ऊपर राज करने आया है, वह इसका इस्तेमाल किस तरह करेगा, आज पता चलता है. WHITE MAN’S BURDEN THEORY वाले अंग्रेज जो यह भी कहते थे, अंग्रेजों ने सती प्रथा बंद करवाई, किसी खास जगह पर एकाध किस्सों को पूरे भारत के बारे में प्रचलित किया गया और हमारे देश के सबसे ऊँचे ओहदे के पद धारकों को यह पढ़ना पड़ता है, कि अंग्रेजों ने सती प्रथा को बंद करवाया. इनमें से किसी ने यह रिसर्च करने की सोची भी नहीं, कि क्या सच में ऐसा होता था?

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता और पितृसत्ता में क्या अंतर है?

सफाई आई कि ब्राह्मण, ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता में अंतर है. ब्राह्मण जाति है, ब्राह्मणवादी जो ब्राह्मण जाति की सर्वोच्चता में विश्वास रखता है, ब्राह्मणवादी पितृसत्ता- क्योंकि ब्राह्मण ऊँचे ओहदे पर थे, इसलिए उन्होंने नियम बनाये और उन नियमों ने ही महिलाओं को दबाया. ब्राह्मणवादी पितृसत्ता अपने यौन सुख के लिए महिला को घर की चारदीवारी में कैद रखना चाहता है. ब्राह्मणवादी पितृसत्ता औरत को सिर पर पल्लू रखकर चलने को बाध्य करता है, क्योंकि वह उसे खुले में जाने नहीं देना चाहता. अगर यह बात भारतीय परिप्रेक्ष्य में ही कही जा रही है, तो-

- क्यों नहीं इसे हिन्दू पितृसत्ता कहा गया?
- अगर महिला को घर की इज्ज़त मान कर मात्र उसके ही सगे सम्बन्धी के सामने पल्लू रखने को कहा जाता है, तो यह कौन सा बुरा है?
- यदि उसी कन्या को हम नवरात्र में घर पर बुलाकर चरण वंदना करते हैं तो कौन सा बुरा करते हैं?
- अगर उसी कन्या को अपने घर की लक्ष्मी मानते हैं तो कौन सा बुरा करते हैं?
- यदि कोई यह सोचता है, कि सिर्फ लड़की के घर से भागने पर ही बवाल होता है, तो आप अधूरी जानकारी रखते हैं, हकीकत क्या है? केस पर दर्ज होता है? जेल कौन जाता है?
- यदि माँ-बाप बच्चे को पैदा करें, बड़ा करें, जो आप मांगें वो पूरा करें और आपकी ज़िन्दगी में सिर्फ विवाह का फैसला माँ-बाप लें, तो यह क्या बुरा है?

समाज तेजी से बदल रहा है, इस तेज़ी में कुछ अच्छा हो रहा है, लेकिन दूसरे को नीचा दिखाते हुए ही. ब्राह्मण को यदि खुद पर गर्व है, तो क्षत्रिय को अपने ऊपर, वैश्य को अपने धनबल पर. शुद्र कहाँ छूट गए इस विमर्श में? क्योंकि शूद्र शायद दलित बन गए, वाल्मीकि, वेद व्यास पर शूद्रों को गर्व नहीं तो इसमें ब्राह्मणों का दोष नहीं, दोष उनका है, जिसने वर्ण की जगह जाति का रूपक तैयार किया. शुद्र यदि कर्मठ थे और श्रमिक थे और इस समाज को लगता है, कि भारत आज भी 2000 साल पुराने उसी उसी ब्राह्मण नियम कानून से चल रहा है, तो शायद वे अतिज्ञानी हैं या निश्चित अबोध. 

2000 साल पहले भी आश्रम व्यवस्था नाम की चीज़ थी, कितने प्रतिशत लोग उसका पालन करते थे? 

16 संस्कारों में से कितने का पालन होता था या है? किसी ब्राह्मण को ब्राह्मण होने पर गर्व क्यों न हो? इसलिए कि उसके पुरखों ने शूद्रों को सताया है. विचारों की आड़ और रीति रिवाज़ को ढकोसला बता कर देवताओं के ऊपर पेशाब करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मान लेना उचित है? 

एक ओर संविधान यह कहता है, कि किसी भी व्यक्ति के साथ उसके लिंग, धर्म, जन्मस्थान, जाति एवं निवास स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा, किन्तु फिर भी अल्पसंख्यकों एवं अनुसूचित जाति के लिए विशेष उपबंध किये गए हैं, यह सवर्णों को स्वीकार्य है, क्योंकि शूद्रों के साथ ग़लत हुआ है, लेकिन इसमें कल पैदा होने वाले सवर्ण जाति के लड़के/लड़की की क्या गलती है? यदि ब्राह्मण अपने ज्ञान पर गर्व न करे, क्षत्रिय अपने बाहुबल के शौर्य पर न गुमान करे तो किस बात का इतिहास?

ट्विटर एक विश्वव्यापी सोशल मीडिया प्लेटफार्म है, यदि आप उस पर किसी ख़ास मुहिम का समर्थन करते हैं, तो बाकी लोग तो उस पर चिल्लायेंगे ही. बिना जाने किसी देश के आतंरिक रीति-कुरीति का विरोध समर्थन आपके लिए परेशानी का सबब बनेगा ही. यदि आप ऐसा करते हैं, तो कैसे मानें कि आप निरपेक्ष हैं, आप हेट स्पीच को रोकने का काम करेंगे? 

खैर, जैक की टीम ने माना, कि यह उनसे गलती से हुई अनजाने में उन्होंने किसी विषय को समर्थन दे दिया और इसके लिए वह माफ़ी भी मांगते हुए दिखे, लेकिन विरोध को सिर्फ ट्रोल कह देना समस्या का समाधान नहीं होगा. यह एक अच्छी बहस है, जाति व्यवस्था निश्चित तौर पर ख़त्म होनी चाहिए. उसके लिए सार्थक प्रयास जरूरी है, लेकिन छोटे-छोटे मुद्दे पर ध्यान भटकाने से काम नहीं चलेगा, इसके लिए समेकित प्रयास करना होगा. 

यहाँ पर अम्बेडकर की जगह गाँधी ज्यादा समीचीन प्रतीत होते हैं, जिसमें उन्होंने कहा था, कि दलित उत्थान नीचे के बजाय ऊपर से लाने का प्रयास किया जाए, जिसमें सवर्णों के ह्रदय परिवर्तन को निशाना बनाया जाए, लेकिन अम्बेडकर ने इसे नकार दिया. अम्बेडकर निश्चित ही सफल हुए हैं, लेकिन मुझे लगता है, गाँधी इस जगह अम्बेडकर से ज्यादा सफल हुए, क्योंकि 1950 के भारत में सवर्ण निश्चित ही बड़ी ताकत थे और उनकी दरियादिली ने ही अनुसूचित जाति/ जनजाति  को यह लाभ लेने दिया, जो हक़ बन चुका है. बहरहाल, मुद्दा आज ये है कल कुछ और होगा, लेकिन संवाद, सेफ्टी वाल्व और ट्रॉल्स रुकने नहीं चाहिए, क्योंकि ये नज़रिया हैं और आज के समय में सबको कहने का हक है.

(यह लेखक के स्वतंत्र विचार हैं। इससे लोकमत न्यूज  की सहमति  आवश्यक नहीं।)

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