राजेश बादल का ब्लॉगः चुनावी ढपलियों पर निकलता राम मंदिर का राग  

By राजेश बादल | Published: November 6, 2018 12:38 AM2018-11-06T00:38:20+5:302018-11-06T00:38:20+5:30

1991 में आम चुनाव से पहले राममंदिर बनाने के मुद्दे पर लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली तो माना गया कि भाजपा राम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। बात सही थी। पार्टी को उसका फायदा भी हुआ। रामलला के पड़ोसी राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने तो आस बंधी।

bjp raised ram mandir issue before 5 state assembly elections | राजेश बादल का ब्लॉगः चुनावी ढपलियों पर निकलता राम मंदिर का राग  

राजेश बादल का ब्लॉगः चुनावी ढपलियों पर निकलता राम मंदिर का राग  

राजेश बादल, वरिष्ठ पत्रकार
  
उधर पांच राज्यों में चुनाव का ऐलान हुआ, इधर साढ़े चार साल से सोया राम मंदिर का मुद्दा जाग उठा। दो प्रदेशों-मिजोरम और तेलंगाना में इसका असर न हो, मगर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में यह मसला लोगों के दिमागों पर असर डालता है। हालांकि पिछले दो- तीन लोकसभा चुनाव में इसे उतने जोरशोर से नहीं उठाया गया था। लगता था जैसे भाजपा को इस मुद्दे के नाम पर झपकी लग गई है। बात भी काफी हद तक सच थी। श्रद्धालु मानने लगे थे कि मंदिर का मुद्दा अब राजनेताओं को खेलने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। इस जनधारणा के पीछे ठोस आधार भी है। 

1991 में आम चुनाव से पहले राममंदिर बनाने के मुद्दे पर लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली तो माना गया कि भाजपा राम के सहारे चुनावी वैतरणी पार करना चाहती है। बात सही थी। पार्टी को उसका फायदा भी हुआ। रामलला के पड़ोसी राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने तो आस बंधी। भाजपा के समर्थन से उनकी सरकार बनी थी। मगर पार्टी ने चुप्पी ओढ़ ली। इसके बाद प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में भाजपा ने फिर सरकार बनाई। मंदिर मुद्दा सोता रहा।  

ताज्जुब होता है कि जिस पार्टी में आंतरिक अनुशासन इतना सख्त हो कि कार्यकर्ता पार्टी लाइन से बाहर जाने की सोच भी न सकता हो, वहां इतने संवेदनशील मसले पर अलग-अलग धुनें निकल रही हैं। एक कानून बनाने की बात करता है तो दूसरा अध्यादेश लाने की। तीसरा दिसंबर से मंदिर निर्माण शुरू करने का ऐलान करता है तो चौथा अदालत के फैसले का इंतजार करने की बात करता है तो पांचवां सुप्रीम कोर्ट की मंशा पर ही सवाल उठाता है। छठवां चुनाव से पहले मंदिर बनाने का अल्टीमेटम देता है तो सातवां  कोर्ट से बाहर समझौते की बात करता है आठवां  संसद में प्राइवेट बिल लाने की बात करता है तो नवां जन आंदोलन छेड़ने की बात करता है। इस सबका अर्थ क्या निकाला जाए ? 

क्या इनका राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव से कोई रिश्ता है ? तीनों राज्य भाजपा शासित हैं। दो में यह पार्टी अपने तीन कार्यकाल पूरा कर चुकी है। तीसरे में 1998 के बाद से हर चुनाव में पार्टी बदलने की परंपरा है। तीनों राज्यों में पिछले चुनाव तब हुए थे, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं थे अर्थात् प्रधानमंत्री बनने के बाद खांटी हिंदी बेल्ट के तीन राज्यों में पहला इम्तिहान। ये तीनों उन प्रदेशों में हैं, जहां पार्टी की जड़ें और संगठन बहुत मजबूत है। लेकिन इन राज्यों से आ रहे चुनाव पूर्व अनुमान या सर्वेक्षण पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं दे रहे हैं। इसकी दो वजहे हैं। एक तो 2014 के बाद जितने राज्यों में चुनाव हुए हैं, उनमें पार्टी ने अधिकतर जीते हैं और इनमें जानबूझकर राष्ट्रीय मुद्दों और प्रधानमंत्री मोदी को ही प्रोजेक्ट किया गया। 

दूसरी वजह केंद्रीय नेतृत्व के गले की फांस है। तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री उतने ही पुराने हैं जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री होते थे। एक ही केंद्रीय नेतृत्व ने इन सभी को कमान सौंपी थी। आडवाणी ने तो शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्री पद के लिए योग्य प्रत्याशी  बताया था। 

वसुंधरा राजे सिंधिया और रमनसिंह भी मोदी की पहली पसंद नहीं हैं। इन मुख्यमंत्रियों के समर्थक उम्मीदवारों को इस बार के चुनाव में निराशा और हताशा मिल रही है। ऐसे में एक भाजपा के भीतर दो भाजपा बन गई है। अब  केंद्रीय स्तर पर ही कॉमन मुद्दों के आधार पर चुनाव जीतना पार्टी आलाकमान की मजबूरी है। राम मंदिर का मसला इसी श्रेणी का है। मैदान के बाहर से फुटबॉल सीधे गोल में डालने का प्रयास नैतिक नहीं  है। 

मजबूरी यह है कि इन राज्यों में धर्म के आधार पर वोट नहीं मांगे जा सकते। कानूनी कार्रवाई का डर है। इसलिए दिल्ली के तालकटोरा में संतों का सम्मेलन होता है और लखनऊ में मंदिर पर बयानबाजी तेज की जाती है। किसी भी बहाने मंदिर मुद्दा गरमाया रहे चाहे वो कुछ भी बोला जाए। एक ही आर्केस्ट्रा के अलग-अलग वाद्य अलग-अलग धुनें निकाल रहे हैं लेकिन राग तो राम मंदिर का ही है।

जब लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाली थी तब भी यह मुद्दा उठा था कि राम-रथ में कमल चुनाव चिह्न के साथ राम की तस्वीर भी थी। लेकिन उस समय आचार संहिता लागू नहीं  थी। भाजपा को इसका फायदा मिला था। चुनाव वाले राज्यों में आचार संहिता लागू है इसलिए बाहर से ही राम मंदिर की दुंदुभि बजाई जा रही है। विडंबना है कि भारतीय लोकतंत्र जवान हो रहा है और राजनेता मतदाताओं को बुर्जुआ समझ रहे हैं। तीस बरस पहले के हिंदुस्तान में राम मंदिर एक गंभीर मसला था। आज की चुनौतियों में रोजगार, सड़क, स्वास्थ्य, पानी और शिक्षा की जरूरत सबसे पहले है। राम तो इस देश के आराध्य  हमेशा रहेंगे।

Web Title: bjp raised ram mandir issue before 5 state assembly elections

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