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ब्लॉग: मन्नू भंडारी ने मौन रहकर रचा महत्वपूर्ण साहित्य

By कृपाशंकर चौबे | Updated: November 16, 2021 09:56 IST

किसी भी कहानी की श्रेष्ठता की कसौटी है- किस्सागोई और बलवान चरित्नों का निर्माण, यथार्थ पर पैनी दृष्टि, आदर्श और यथार्थ, भोगा हुआ यथार्थ, बदला हुआ यथार्थ, भाषा की व्यंजना, शैली की प्रांजलता, युग बोध, उद्देश्य एवं रचनाकार का दृष्टिकोण और कहानी में आज के लिए उपयोगी मूल्य. ये सभी विशेषताएं मन्नू दी के साहित्य में मौजूद हैं. 

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ठळक मुद्देमन्नू भंडारी ‘महाभोज’ उपन्यास से मशहूर हुईं.मन्नू दी ने स्त्री की केवल बाहरी नहीं, उनकी नितांत निजी, आंतरिक और गोपनीय परतों को भी खोला है.मन्नू भंडारी के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था, मगर लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम चुना.

मन्नू भंडारी (3 अप्रैल 1931-15 नवंबर 2021) हिंदी की समृद्ध साहित्य परंपरा की ऐसी महत्वपूर्ण हिस्सेदार थीं जिनके बिना साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जा सकता. 

तात्पर्यपूर्ण यह है कि मन्नू दी ने मौन रहकर महत्वपूर्ण रचा और निरंतर समय के विपर्यय का सामना अपनी रचनाओं में किया. मन्नू दी के उपन्यास ‘स्वामी’ और ‘कलवा’ समय सापेक्षता, कहानी कहने की शैली, चित्रण की शैली और वर्णन की शैली के कारण बेजोड़ हैं. 

हालांकि, वे मशहूर हुईं ‘महाभोज’ उपन्यास से. ‘महाभोज’में उन्होंने मूल्यहीनता को जिस तरह परत-दर-परत उघाड़ा, वह सतत बेचैन करनेवाला है. इस उपन्यास में उन्होंने राजनीतिक-सामाजिक जीवन में आई मूल्यहीनता, तिकड़मबाजी, शैतानियत का विकल करनेवाला चित्रण किया. 

यह उपन्यास बताता है कि सरोहा गांव में बिसेसर नामक व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसे केंद्र में रखकर सभी राजनेता अपना-अपना स्वार्थ कैसे सिद्ध करते हैं. यह उपन्यास नौकरशाही और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच पिसते आम आदमी की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति भी करता है. 

मन्नू दी ने अपने कथाकार पति राजेंद्र यादव के साथ ‘एक इंच मुस्कान’ उपन्यास लिखा जो शिक्षित तथा आधुनिकता पसंद लोगों की दुखभरी प्रेमगाथा है. राजेंद्र यादव के साथ मन्नू दी का वैवाहिक जीवन सफल नहीं रहा. वे उनसे अलग रहने लगीं. 

राजेंद्र यादव का जब निधन हुआ, तब भी वे अलग ही रहती थीं. मन्नू दी ने विवाह टूटने की त्रासदी पर घुट-घुट कर जी रहे एक बच्चे को केंद्रीय विषय बनाकर एक उपन्यास लिखा ‘आपका बंटी’. यह उपन्यास स्त्री विमर्श की मजबूत बुनियाद रखता है तो शिशु विमर्श की भी.

वातावरण की सृष्टि और उसके जीवंत चित्रण के मामले में मन्नू दी की कहानियों का भी कोई जोड़ नहीं. मन्नू दी की कहानी ‘अकेली’ की केंद्रीय पात्र सोमा बुआ पास-पड़ोस से घुलने-मिलने के यत्र के बावजूद अकेली पड़ जाती हैं. 

वे अकेली इसलिए हैं क्योंकि परित्यक्ता हैं, वृद्ध हो चली हैं तथा उनका बेटा भी उन्हें छोड़कर जा चुका है. मन्नू दी ने स्त्री की केवल बाहरी नहीं, उनकी नितांत निजी, आंतरिक और गोपनीय परतों को भी खोला है. उनकी रचनाओं की स्त्री पात्र अपना जीवन अपनी तरह जीने के क्रम में भयावह मानसिक-भावनात्मक बदलावों से गुजरती हैं और नई चुनौतियों से जूझते हुए एक नई स्त्री के रूप में उनका रूपांतरण होता है. 

‘मैं हार गई’, ‘तीन निगाहों की एक तस्वीर’, ‘एक प्लेट सैलाब’, ‘यही सच है’, ‘आंखों देखा झूठ’, ‘नायक खलनायक विदूषक’ और ‘त्रिशंकु’ संग्रहों की कहानियों में भोगा हुआ यथार्थ है तो बदला हुआ यथार्थ भी. 

यही बात उनके नाटक ‘बिना दीवारों का घर’ के लिए भी सही है. आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ और प्रौढ़ शिक्षा के लिए ‘सवा सेर गेहूं’ में मन्नू भंडारी ने समय को तटस्थ होकर देखा है.

किसी भी कहानी की श्रेष्ठता की कसौटी है- किस्सागोई और बलवान चरित्नों का निर्माण, यथार्थ पर पैनी दृष्टि, आदर्श और यथार्थ, भोगा हुआ यथार्थ, बदला हुआ यथार्थ, भाषा की व्यंजना, शैली की प्रांजलता, युग बोध, उद्देश्य एवं रचनाकार का दृष्टिकोण और कहानी में आज के लिए उपयोगी मूल्य. ये सभी विशेषताएं मन्नू दी के साहित्य में मौजूद हैं. 

उनके साहित्य में आज के समय के लिए भी उपयोगी मूल्य हैं. समय का समग्र राजनीति-बोध और समाज-बोध उनकी कथा कृतियों में प्रतिबिंबित हुआ है. मन्नू दी ने वैविध्यपूर्ण व नए-नए कथा प्रयोग किए और युगीन यथार्थ व नए मानवमूल्यों की अभिव्यक्ति की. कहानी ही नहीं, उपन्यास को भी उन्होंने शिल्प, संवेदना और भाषा की नई ताकत दी. 

उन्होंने हिंदी गद्य के क्लासिक रंग को पकड़ा और हिंदी के जातीय गद्य को पुनर्प्रतिष्ठित किया. मन्नू दी की रचनाओं की भाषा इतनी सहज है कि शुरू से आखिर तक वह पाठक को बांधे रखती है और उत्सुकता जगाए रखती है. यह विशेषता उनकी रचना को कलात्मक उत्कर्ष देती है. सिनेमा और नाटक के लिए भी मन्नू दी अपरिहार्य बनी रहीं. 

उनके उपन्यास ‘महाभोज’ का उषा गांगुली मंचन करती थीं. नाट्य रूपांतर स्वयं मन्नू दी ने किया था. मन्नू दी की लिखी एक कहानी ‘यही सच है’ पर बासु चटर्जी ने 1974 में ‘रजनीगंधा’ फिल्म भी बनाई थी.

3 अप्रैल 1931 को मध्य प्रदेश के मंदसौर में जन्मी मन्नू भंडारी के बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था, मगर लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम चुना क्योंकि बचपन में सब उन्हें इसी नाम से पुकारते थे और आजीवन वह मन्नू भंडारी के नाम से ही मशहूर रहीं. 

उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद मन्नू दी ने अध्यापन को वृत्ति के रूप में चुना. उन्होंने 1952 से 1961 तक कोलकाता के बालीगंज शिक्षा सदन तथा 1961 से 1965 तक कोलकाता के रानी बिड़ला कॉलेज में अध्यापन किया. 

उसके बाद वे दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज में लंबे समय तक पढ़ाती रहीं. उनके निधन से साहित्य और शिक्षा जगत को अपूरणीय क्षति हुई है. उनकी स्मृति को नमन.

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