ब्लॉग: जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की कोशिश
By विश्वनाथ सचदेव | Published: March 14, 2024 11:10 AM2024-03-14T11:10:37+5:302024-03-14T11:13:23+5:30
चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था जबसे हुई थी, उसके औचित्य पर सवालिया निशान लग रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि मतदाता को यह जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है कि किसने किस राजनीतिक दल को कितना पैसा दिया है।
चुनावी बॉन्ड की व्यवस्था जबसे हुई थी, उसके औचित्य पर सवालिया निशान लग रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय दिया कि मतदाता को यह जानकारी प्राप्त करने का अधिकार है कि किसने किस राजनीतिक दल को कितना पैसा दिया है। इसके साथ ही न्यायालय ने चुनावी बॉन्ड जारी करने वाले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को एक निश्चित तिथि तक यह सारी जानकारी देने का निर्देश भी दिया था।
लेकिन आश्चर्य की बात है कि उस तिथि के एक दिन पहले स्टेट बैंक ने न्यायालय को यह बताया कि जानकारी उपलब्ध कराने के लिए उसे अधिक समय की आवश्यकता है। उच्चतम न्यायालय ने बैंक को निर्देश दिया कि एक दिन में ही सारी जानकारी चुनाव-आयोग को उपलब्ध कराये और चुनाव-आयोग को भी निर्देश दे दिए गए कि वह भी एक निश्चित दिन तक यह जानकारी देश के मतदाता तक पहुंचा दे।
न्यायालय की इस कार्रवाई और निर्णय को जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा की कोशिश के रूप में समझा जा रहा है। चुनावी बॉन्ड के बारे में बरती जा रही गोपनीयता ही सवालों के घेरे में नहीं थी। कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले चंदे की सीमा का समाप्त किया जाना भी संदेह उत्पन्न करने वाला था। बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता लाने में मददगार सिद्ध होगा। लेकिन, इस संदर्भ में जो कुछ हुआ है, उससे यह सवाल तो उठता ही है कि स्वायत्त सरकारी एजेंसियां सरकार के दबाव में तो काम नहीं कर रहीं।
आखिर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने जानकारी देने के लिए इतना अधिक समय क्यों मांगा। क्या कोई दबाव था उस पर। आयकर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई जैसी शक्तिशाली एजेंसियों पर सरकारी दबाव में काम करने के आरोप लगते ही रहते हैं, ऐसा नहीं है कि बैंकों पर सरकारें दबाव नहीं डालती रहीं, पर यदि चुनावी बॉन्ड मामले में स्टेट बैंक जैसी समर्थ संस्था पर सरकारी दबाव का ऐसा आरोप लगना जागरूक नागरिकों के लिए अतिरिक्त चिंता का विषय होना चाहिए।
चुनाव-आयोग के गठन का मसला भी कम महत्वपूर्ण नहीं। पहले उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और लोकसभा में नेता विपक्ष मिलकर आयोग के सदस्यों का चुनाव करते थे, लेकिन अब संसद में बहुमत का सहारा लेकर सरकार ने नया कानून बनाया है, मुख्य न्यायाधीश चयन-समिति में नहीं रहे, उनकी जगह प्रधानमंत्री द्वारा किसी मंत्री को उसमें शामिल किया गया है। यह स्थिति भी संदेह और भ्रम उत्पन्न करने वाली है. चयन समिति में मुख्य न्यायाधीश का न होना समिति को कमजोर ही बनाता है। जनतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता बहुत महत्वपूर्ण है, उसकी रक्षा होनी ही चाहिए। तभी व्यवस्था में भरोसा बनेगा, बढ़ेगा।