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विधानसभा चुनावः यूपी में सपा अक्तूबर से पहले न के बराबर ही सक्रिय थी, कांग्रेस और बसपा का हाल सभी को पता, कमजोर और आलसी विपक्ष का लाभ उठा रही है भाजपा

By अभय कुमार दुबे | Updated: March 28, 2022 15:43 IST

Assembly elections: उप्र में सपा और उत्तराखंड व गोवा में कांग्रेस को सत्ता में लाने के बजाय वोटरों ने सोचा कि क्यों न इनसे कुछ कम खराब पार्टी को ही दोबारा मौका दे दिया जाए.

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ठळक मुद्देकम खराब रिकॉर्ड वाली सत्तारूढ़ पार्टी बाजी मार ले जाएगी.राज्यों में पार्टी को टिके रहने के लिए केंद्र की काफी मदद की जरूरत पड़ती है.कई राज्यों में भाजपा की प्रादेशिक इकाइयां अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकतीं.

Assembly elections: हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों से स्पष्ट हो गया है कि अगर विपक्ष दुर्बल या प्रमादी होगा तो सरकार बदलने की वोटरों की इच्छा का वाहक नहीं बन पाएगा. उत्तर प्रदेश में सपा अक्तूबर से पहले राजनीतिक रूप से तकरीबन न के बराबर ही सक्रिय थी.

बसपा तो रहस्यमय ढंग से आखिर तक सक्रिय रही ही नहीं. इसी तरह अगर विपक्ष के साथ अतीत में शासन-प्रशासन के अपने खराब रिकॉर्ड के कारण नकारात्मक स्मृतियां जुड़ी होंगी, तो भी उससे कम खराब रिकॉर्ड वाली सत्तारूढ़ पार्टी बाजी मार ले जाएगी.

उप्र में सपा और उत्तराखंड व गोवा में कांग्रेस को सत्ता में लाने के बजाय वोटरों ने सोचा कि क्यों न इनसे कुछ कम खराब पार्टी को ही दोबारा मौका दे दिया जाए. साथ ही एक नतीजा यह भी निकलता है कि भाजपा की चुनावी राजनीति में राज्यों का पक्ष कमजोर है. राज्यों में पार्टी को टिके रहने के लिए केंद्र की काफी मदद की जरूरत पड़ती है.

कई राज्यों में भाजपा की प्रादेशिक इकाइयां अपने दम पर चुनाव नहीं जीत सकतीं. चुनाव से पहले आकलन किया जा रहा था कि किसान आंदोलन और गन्ना के दाम न मिलने से पैदा हुई नाराजगी की वजह से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट-गुजर-सैनी किसानों के ज्यादातर वोट इस बार भाजपा के खिलाफ जाएंगे.

दूसरा आकलन था कि योगी सरकार द्वारा चलाया गया प्रशासनिक ठाकुरवाद भाजपा के ऊंची जातियों में आधार को सिकोड़ देगा. खासकर ब्राrाण मतदाताओं का एक हिस्सा या तो हताश होकर घर बैठ जाएगा या भाजपा के साथ निष्ठा को छोड़ अपने पसंदीदा उम्मीदवारों को वोट देगा.

तीसरा अहम आकलन था कि अखिलेश यादव द्वारा किए जा रहे पिछड़ी जातियों की एकता के प्रयास भाजपा से गैर-यादव पिछड़े वोटों के एक बड़े हिस्से को छीन लेंगे. चौथा आकलन यह था कि मायावती का ग्राफ भले ही नीचे जा रहा हो, लेकिन जाटव मतदाता हर हालत में कम से कम इस बार बहनजी के वोटर ही साबित होंगे.

ऐसी बात नहीं कि ये सभी आकलन सौ फीसदी गलत साबित हुए हों. लेकिन यह मानना  पड़ेगा कि भले ही कुछ आकलन आंशिक तौर पर सही निकले हों, परंतु कुछ पूरी तरह से गलत साबित हुए हैं. मसलन, पिछड़ी जातियों की भाजपा विरोधी एकता का सूचकांक बहुत कमजोर निकला. इसके उलट ऊंची जातियों की भाजपा समर्थक एकता का सूचकांक बहुत मजबूत और ऊंचा साबित हुआ.

पश्चिमी उप्र में किसानों के वोट भाजपा को एकतरफा नहीं मिले, लेकिन जो वोट खिलाफ गए, उनकी संख्या कम रही. तो क्या भाजपा की उप्र सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बेंसी थी ही नहीं - या थी तो कितनी और कैसी थी? सीएसडीएस का चुनाव-उपरांत सर्वेक्षण बताता है कि उप्र में तकरीबन 39 फीसदी लोग सरकार बदलने के हामी थे.

उससे केवल पांच फीसदी ज्यादा यानी 44 फीसदी वोटर ही सरकार की वापसी चाहते थे. कुल मिला कर सरकार के प्रति नेट सैटिस्फैक्शन का आंकड़ा केवल +7 था. जाहिरा तौर पर एंटी-इनकम्बेंसी और प्रो-इनकम्बेंसी में बहुत बड़ा अंतर नहीं था. उत्तराखंड में यह नेट सैटिस्फैक्शन केवल +8 था. गोवा में तो यह आंकड़ा निगेटिव यानी -2 तक चला गया था.

इसके बावजूद दोनों जगहों पर सत्तारूढ़ दल की वापसी हुई. मतलब सरकार बदलने की जमीन तैयार थी, पर सरकार विरोधी राजनीतिक शक्तियां इस एंटी-इनकम्बेंसी को अपनी कोशिशों से बढ़ाने में नाकाम रहीं.विपक्ष के लगातार कमजोर होते चले जाने और नरेंद्र मोदी के वर्चस्व के और घनीभूत होते चले जाने में एक सीधा रिश्ता है.

इस लिहाज से मौजूदा प्रधानमंत्री काफी किस्मत वाले हैं कि जिस जमाने में वे राजनीति कर रहे हैं वह एक विचारहीन, रणनीतिविहीन, आलसी, सांगठनिक रूप  से कमजोर, दूरंदेशी और परस्पर एकता के अभाव से पीड़ित चुनावी विपक्ष के जमाने की तरह भी जाना जाएगा. पुरानी कहावत है कि चुनाव के जरिये जनता लोकतंत्र में सत्ता की रोटी को उलटती-पलटती है.

इसके साथ जोड़ कर यह भी कहा जा सकता है कि लोकतंत्र की बेहतरी तब होती है जब  जो आज बहुमत है, वह कल अल्पमत में बदल जाए और जो आज अल्पमत है, वह कल बहुमत प्राप्त करके सत्ताधारी नजर आने लगे. अगर ऐसा नहीं होगा तो संख्याबल के दम पर एक पार्टी, एक समुदाय या एक ही तरह के धर्मावलंबियों की सरकार बनती रहेगी. ऐसा होना उस समय और भी चिंताजनक लगने लगता है जब एंटीइन्कम्बेंसी की मौजूदगी के बावजूद कोई पार्टी सत्ता में बार-बार वापसी करती रहती है.

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