अश्वनी कुमार का ब्लॉग: कोरोना की तीसरी लहर के बचने के लिए क्या तैयार है देश?

By अश्वनी कुमार | Published: May 27, 2021 08:45 PM2021-05-27T20:45:16+5:302021-05-27T20:45:16+5:30

कोरोना की भयावह मार झेल लेने के बाद क्या हम इस महामारी की तीसरी लहर के लिए तैयार हैं? क्या सभी हकदार व्यक्तियों का टीकाकरण इस ‘वेव’ से पहले हो पाएगा? क्या बच्चों पर कोरोना के प्रहार के लिए देश तैयार है?

Ashwani Kumar blog coronavirus situation and challenges for human being | अश्वनी कुमार का ब्लॉग: कोरोना की तीसरी लहर के बचने के लिए क्या तैयार है देश?

कोरोना से निपटने की चुनौती (फाइल फोटो)

यह लेख हृदय की उस अपार पीड़ा की अभिव्यक्ति का प्रयास है जिसको शब्दों में बयान करना कठिन है. परंतु हृदयविदारक दर्द का यदि कोई इलाज है, तो वह उसकी अभिव्यक्ति ही है. अत: दुख की लहर सैलाब न बन जाए, इसलिए पीड़ा की अपनी भावना को देशवासियों के साथ बांट रहा हूं. जिस दौर से संसार आज गुजर रहा है, इसका दूसरा उदाहरण इतिहास के पन्नों पर दर्ज नहीं है.

जिस तरह की हृदय घातक स्थिति ‘राम राज्य’ की परिकल्पना से जुड़े हमारे देश में आज है, उसको शब्दों में कैसे बयान करूं, सोच रहा हूं. पर फिर शब्द ही तो हमारी भावनाओं का पहनावा हैं, और इतिहास के साक्षी भी. शब्द ही सत्य का दर्पण है और मानवता की गवाही भी.

वर्तमान की वास्तविकता की दर्द भरी कहानी कुछ प्रश्नों के रूप में इस लेख के माध्यम से दोहरा रहा हूं ताकि जो भाग्यशाली हैं और महामारी के प्रकोप से सुरक्षित हैं, जनता की असाधरण पीड़ा को समझकर उनके दर्द में भागीदार बन सकें. संवेदना ही तो भारतीय संस्कृति की मूल पहचान है.

यह प्रलय क्यों प्रभु जिसमें पिता जवान बच्चों के धरती से भारी बोझ को अपने कांधे पर उठाने को मजबूर है, बिलखती माताएं अपने नन्हें बच्चों को ममता के आंचल से महरूम रखने पर विवश हैं.

असहाय बुजुर्ग जीवन के अंतिम पड़ाव में अपनों के स्नेह और सेवा से क्यों वंचित हैं? जीवन और मृत्यु के बीच इस सर्वनाशकारी युद्ध में अकेले क्यों? क्यों एक बेटे को अपनी मां का शव कांधे पर उठाकर श्मशान तक दूर का सफर अकेले ही तय करना पड़ा? क्यों मृत पिता के शव को श्मशान में जगह न मिलने पर दो दिन तक घर में रखना पड़ा.

दिल में धड़कन की तरह बसने वाले अपने, जिनकी मुस्कान हमारे जीवन को पूर्ण करती है, उनकी डूबती सांसें और जिंदगी की भीख मांगती अंधेरी आंखों का असहनीय दृश्य क्यों प्रभु? क्या गंगा मां को अंत्येष्टि बिना, बहाए गए शवों के पाप का बोझ उठाना जरूरी था?

क्यों हजारों कर्मचारी अपने कर्तव्यों को निभाते हुए बिना इलाज कोरोना का शिकार हो गए और अपने बच्चें को बिलखता छोड़ गए? अनाथ और असहाय बच्चों को सजा क्यों प्रभु? यह कैसा सामाजिक न्याय है कि बीमारी और बेरोजगारी से पस्त लाखों देशवासियों को अपनी गरिमा को दो वक्त की रोटी के लिए ताक पर रखकर लंबी कतारों में खड़ा होना पड़ रहा है?  

कोरोना की तीसरी लहर के लिए क्या तैयार है देश?

इतना सब होने के बाद भी क्या हम कोरोना की तीसरी लहर के लिए तैयार हैं? क्या सभी हकदार व्यक्तियों का टीकाकरण इस ‘वेव’ से पहले हो पाएगा जबकि अब तक केवल 4 प्रतिशत से कम भारतीयों को दोनों टीके लग सके हैं? क्या बच्चों पर कोरोना के प्रहार के लिए देश तैयार है?

आंकड़ों के अनुसार देश में 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की संख्या 16.5 करोड़ है. यदि पांच प्रतिशत बच्चों को भी अस्पताल में इलाज की आवश्यकता पड़ी तो देश में बच्चों के इस्तेमाल के लिए 1.65 लाख आईसीयू बेड्स की जरूरत होगी जबकि इस समय देश भर में केवल दो हजार ऐसे बेड ही हैं.

क्या आपदा के समय संवेदना की मलहम की जगह जन सेवा कर रहे नेताओं और समाज सेवियों को कारावास की धमकी देना लोकतांत्रिक मर्यादा के अनुकूल है? और यह विडंबना नहीं तो क्या है कि जिस समय मानवता ही ताक पर है, अहम और वर्चस्व की लड़ाई ने हमारे राजनेताओं को अंधा किया हुआ है?

इन कठिन प्रश्नों को पूछना आवश्यक है. परंतु यह भी स्पष्ट है कि कोरोना के साथ आर-पार की लड़ाई, जनता के सहयोग के साथ सरकार ही लड़ सकती है. इस परीक्षा में सरकारें तभी सफल होंगी जब वह रचनात्मक सुझावों को कटाक्ष न मानकर समय पर उचित निर्णय लें.

सरकार को समझना होगा कि राष्ट्र की आत्मा देशवासियों की गरिमा में निहित है, जिसके साथ राजनैतिक खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. प्रधानमंत्रीजी कैसे भूल सकते हैं कि दबी हुई जन पीड़ा व मूक आक्रोश की गर्जना सत्ता पलटने का ऐलान है?

इन प्रश्नों में उत्तर भी निहित है. वर्तमान की वास्तविकता, संवेदनशील सरकार और सक्षम राष्ट्र का दर्शन तो नहीं हो सकती. दिल को दहला देने वाली राष्ट्रीय पीड़ा की गूंज हर गली, मोहल्ले में सुनाई दे रही है. मानो देश कह रहा हो-
‘‘गीत अश्क बन गए/ छंद हो दफन गए/साथ के सभी दिए/धुआं पहन-पहन गए’’

बीमारी और मृत्यु के साये में जीवन की तलब, कवि गुलजार की पंक्तियों में इस तरह दर्शित हैं-

‘‘आहिस्ता चल जिंदगी/ अभी कुछ कर्ज चुकाना बाकी है/ कुछ दर्द मिटाना बाकी है/ कुछ फर्ज निभाना बाकी है.’’

मैं जानता हूं कि अंतत: पुरुषार्थ और धैर्य की विजय होती है, परंतु इस महाकाल में केवल आशावादी होना ही पर्याप्त नहीं. इस विध्वंसकारी समय में, परमेश्वर की कृपा व करुणा ही संकटमोचन हो सकते हैं.

समर्पण की इस भावना सहित, राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की रचना ‘रश्मि रथी’ की पंक्तियों से लेख समाप्त कर रहा हूं- ‘‘हे दयानिधे, रथ रोको अब!/ क्यों प्रलय की तैयारी है/ यह बिना शस्त्र का युद्ध है, जो/ महाभारत से भी भारी है/ राघव-माधव-मृत्युंजय/ पिघलो यह अर्ज हमारी है.’’

Web Title: Ashwani Kumar blog coronavirus situation and challenges for human being

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