अश्वनी कुमार का ब्लॉग: अयोध्या: सामाजिक सद्भाव के अनुरूप निर्णय

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: November 30, 2019 09:06 AM2019-11-30T09:06:12+5:302019-11-30T09:06:12+5:30

निर्णय की आम तौर पर यह कहते हुए प्रशंसा की गई है कि दोनों पक्षों के दावों को देखते हुए यह संतुलित फैसला है

Ashwani Kumar blog: Ayodhya Verdict is according to social harmony | अश्वनी कुमार का ब्लॉग: अयोध्या: सामाजिक सद्भाव के अनुरूप निर्णय

अश्वनी कुमार का ब्लॉग: अयोध्या: सामाजिक सद्भाव के अनुरूप निर्णय

एक ऐसा देश, जो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने और धार्मिक भावनाओं को उभारे जाने की राजनीति से थक चुका है, अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से राहत की सांस ले सकता है. खुद न्यायालय ने इसे ‘इतिहास, पुरातत्व और धर्म के विविध अंगों को स्पर्श करने वाले अनोखे प्रकरण का निपटारा’ माना है.

निर्णय की आम तौर पर यह कहते हुए प्रशंसा की गई है कि दोनों पक्षों के दावों को देखते हुए यह संतुलित फैसला है. हालांकि कुछ आलोचकों को यह भी लगता है कि न्याय देने में बहुसंख्यकों के प्रति झुकाव दिखाया गया है.

अधिकांश न्यायिक फैसलों पर टीका-टिप्पणी होती है और अयोध्या का फैसला, जिसमें ‘मानव इतिहास और गतिविधि की जटिलताएं’ हैं, भी अपवाद नहीं है. फिर भी, ‘प्रबल सबूतों’ पर आधारित निर्णय को इसकी संपूर्णता में पढ़ा जाए तो आलोचनाएं उचित नहीं जान पड़तीं.

दोनों पक्षों की न्याय की मांग के प्रति संतुलन साधते हुए, अदालत ने अयोध्या शहर के भीतर पांच एकड़ जमीन को मुस्लिमों को आवंटित करने का आदेश दिया, जबकि विवादित भूमि को राम मंदिर के निर्माण के लिए दे दिया गया. 

न्यायालय ने इस मामले में ‘पूर्ण न्याय’ करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकार का उपयोग किया. न्यायालय का फैसला एक समतामूलक समाधान खोजने के उद्देश्य से प्रेरित है, जिसका समाधान पिछले कई दशकों से टलता आ रहा था. निर्विवाद रूप से एक नैतिक और दार्शनिक आयाम के साथ यह फैसला हमें याद दिलाता है कि यह बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक लोगों का देश है. 

एक न्यायसंगत और व्यावहारिक समाधान के लिए न्यायालय की स्पष्ट इच्छा को देखते हुए, उस कानूनी आधार में दोष निकाल पाना मुश्किल है, जिस पर  न्यायालय का फैसला टिका है. यह फैसला सर्वसम्मति के दुर्लभ हो चले मामलों की वजह से भी ध्यान खींचता है.  

सर्वोच्च न्यायालय में हमारे विश्वास को बनाए रखने के लिए यही उचित है कि हम न्यायिक निर्णय को मंजूर करें. भले ही वह परिपूर्ण न लगे, यही वह आदर्श तरीका है, जिससे हम अनुभव, कानून और तर्क के रूप में आगे बढ़ सकते हैं. हमें स्वीकार करना चाहिए कि हम लोगों की तरह, न्यायाधीश भी इतिहास या समाज से अलग नहीं हैं और सत्य व न्याय की कालानुरूप बदलती व्याख्या की अनदेखी नहीं कर सकते.  

सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की बाध्यकारिता पर संवैधानिक अराजकता की कीमत पर ही सवाल उठाया जा सकता है. मामले को फिर से खोलने का निर्थक प्रयास केवल उस घाव को ही गहरा करेगा, जो हमारे धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को पहले लगा है और अनावश्यक रूप से अदालत के बोझ को बढ़ाएगा. 

Web Title: Ashwani Kumar blog: Ayodhya Verdict is according to social harmony

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