ठीक दशहरे के मौके पर अमृतसर में दो रेलगाड़ियों से कुचल कर हुई वीभत्स मौतों ने उत्सवी माहौल के बीच पूरे देश को उदासी में डुबो दिया। इस मसले को लेकर केंद्र और राज्य सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी चल रहे हैं और तमाम दूसरे सवाल भी उठ रहे हैं।
रावण दहन के दौरान घटी इस घटना में अगर बारीकी से देखें तो राज्य सरकार, रेल प्रशासन, स्थानीय निकाय और आम लोग सभी दोषी नजर आते हैं।
अगर थोड़ी सावधानी बरती गई होती तो इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को टाला जा सकता था। लेबल क्रॉसिंग पर सारी व्यवस्थाओं के बाद भी दुर्घटनाओं की गुंजाइश बनी रहती है, इस घटना ने इस बात का साफ संकेत दे दिया है। इस नाते लेबल क्र ॉसिंगों को समाप्त करने की रेलवे की नीति में कुछ ठोस एहतियाती उपाय लाजिमी हैं।
रेलवे ने कहा है कि उसे दशहरा कार्यक्र म की सूचना नहीं दी गई थी और रेल लाइन पर भारी भीड़ का एकत्र होना सीधे अतिक्रमण का मामला बनता है। रावण दहन और पटाखे फूटने के बाद भीड़ में से कुछ लोग रेल पटरियों की ओर बढ़ने लगे जहां पहले से ही बड़ी संख्या में लोग खड़े थे। उसी समय दो विपरीत दिशाओं से आई दो ट्रेनों ने लोगों को कुचल दिया। रेलवे को यह सुनिश्चित करना था कि इस खंड पर ट्रेन की रफ्तार धीमी रहे, क्योंकि पटाखों के शोर से ट्रेन की सीटी की आवाज लोगों को सुनाई नहीं पड़ी।
वास्तव में रेल पटरियों पर खूनी खेल की यह पहली घटना नहीं है। दिनेश त्रिवेदी के रेल मंत्री काल में गठित काकोदकर कमेटी ने पाया कि देश में हर साल पंद्रह हजार से अधिक लोग रेल की पटरियां पार करते हुए रेलगाड़ी से कटकर मर जाते हैं।
काकोदकर समिति ने पांच साल के भीतर सभी रेलवे क्रॉसिंग को खत्म कर पुलों का निर्माण करने को कहा था। इस पर करीब 50 हजार करोड़ रु। का खर्च आंका गया था। रेल मंत्रलय ने इस दिशा में धीमी गति से सही लेकिन पहल की है और बड़ी लाइन पर सारे रेलवे अनमैंड लेबल क्रॉसिंग को समाप्त करने की दिशा में काम हो रहा है।
2016-17 के रेल बजट में शून्य दुर्घटना मिशन आरंभ किया गया। रणनीति बनी कि तीन-चार वर्षो में बड़ी लाइन के सभी मानव रहित फाटकों को समाप्त किया जाएगा।
संसद में दिए गए रेल मंत्री के जवाबों के अध्ययन से पता चलता है कि 2009 से 2011 के बीच भारतीय रेल की पटरियों पर कुल 41,474 लोग मारे गए। रेल दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले लोगों की तुलना में ट्रैक या रेलवे लाइन पार करते समय होने वाली दुर्घटनाओं में कहीं ज्यादा मौतें होती हैं।
लेकिन हकीकत यह है कि रेलवे के पास केवल उन्हीं यात्रियों की मौत का आंकड़ा होता है जो रेल दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं और वे मुसाफिर होते हैं। इसी तरह रेलवे लाइनों पर मरम्मत के दौरान भी कई गैंगमैन और दूसरे रेलवे कर्मचारियों की भी मौतें होती हैं। लेकिन रेल दुर्घटना से ज्यादा गलत तरीके से लाइन पार करने से मौतें होती हैं।
बारीकी से गौर करें तो साफ होता है कि इन मौतों में रेलवे की भी गलती है और आम लोगों की भी। खास तौर पर जहां रेलवे के ऊपरी पुल या दूसरे इंतजाम हैं, वहां भी बड़ी संख्या में लोग पटरियां पार करते हैं। कई बार वे तेज रफ्तार से आ रही रेलगाड़ी की चपेट में आ जाते हैं। जब किसी खास हादसे में अधिक लोग मर जाते हैं तो सवाल उठते हैं। ये सवाल रेल मंत्रलय और राज्य सरकार दोनों की भूमिकाओं पर उठते हैं, लेकिन आम लोगों की भूमिका भी इसमें कम नहीं है। बहुत से लोग यह जानते हुए पटरियां पार करते हैं कि कभी भी रेल आ सकती है और उनकी जान जा सकती है।
जहां पुल बने हैं, वहां उनका उपयोग कम हो रहा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि रेलवे में सबसे निचले पायदान पर खड़े तमाम गैंगमैन रेलों के सुरक्षित संचालन के लिए जान तक दे देते हैं। कुछ साल पहले बिहार में सहरसा जिले में तेज रफ्तार से आ रही राज्यरानी एक्सप्रेस से कट कर हुई तीन दर्जन से अधिक मौतों और तमाम लोगों के घायल होने के बाद ऐसे ही सवाल उठे थे जो पंजाब में उठ रहे हैं।
तब रेल मंत्रलय और राज्य सरकार ही नहीं आम लोगों की भूमिकाओं पर भी सवाल उठे। इस घटना में यात्री पैदल पटरी पार करके दूसरी तरफ कात्यायनी मंदिर जा रहे थे जहां सावन का अंतिम सोमवार होने के कारण मेला लगा था और मंदिर में भारी भीड़ थी।
यह सालाना मेला होता है और वहां रेलवे को ऊपरीपुल बनाना चाहिए था। लेकिन तब भी इस बात की गारंटी नहीं थी कि लोग पटरियां पार न करते।
राज्य सरकार के पास भारी भीड़ का आकलन था लेकिन पहले से सुरक्षा इंतजाम नहीं हुआ। ऐसी बहुत सी घटनाएं बताती हैं कि अभी तस्वीर बहुत बदलने की जरूरत है और इसके लिए भारी निवेश के साथ केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर काम करना होगा।