अरविंद कुमार सिंह का ब्लॉग: आखिर कब तक आंदोलित होते रहेंगे किसान?
By अरविंद कुमार | Published: June 15, 2021 07:22 PM2021-06-15T19:22:22+5:302021-06-15T19:22:22+5:30
भारत में किसान आंदोलनों की कड़ी बहुत पुरानी है. महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल से लेकर कई दिग्गज नेताओं ने किसान आंदोलनों में अपनी भागीदारी अंग्रेजी राज में की थी और बहुत कुछ सीखा भी था।
दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलित किसानों का धरना 14 जून को 200 दिन पूरा कर गया. देश के कई हिस्सों से किसान सीमाओं पर डटे हैं. कोरोना काल में बनाए गए तीन कृषि कानूनों को रद्द करने और एमएसपी पर खरीद की गारंटी का नया कानून बनाने की मांग को लेकर चल रहा यह आंदोलन अपनी धार को और तेज कर रहा है. लेकिन असली सवाल तो यह है कि आखिर किसान कब तक सड़क पर बैठे रहेंगे?
भारत में किसान आंदोलनों की कड़ी बहुत पुरानी है. महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल के द्वारा चलाए आंदोलन सफल रहे थे. लेकिन आजादी के बाद ऐसा आंदोलन दिल्ली में इतने दिन नहीं चला जिसमें किसानों ने सरकार की और सरकार ने किसानों के धैर्य की ऐसी परीक्षा ली हो. सवाल यह है कि सरकार कब तक किसानों की मांग की अनसुनी करते हुए उनकी उपेक्षा जारी रखेगी?
किसान आंदोलन में अब तक 500 से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है. दिल्ली की सरहदों से कहीं आगे जाकर हरित क्रांति वाले इलाकों से होते हुए देश के प्रमुख कृषि प्रधान राज्यों तक यह अपना असर दिखा रहा है. भारतीय किसान संघ को छोड़ दें तो करीब हर राज्य में इस आंदोलन के समर्थन में कुछ न कुछ प्रमुख किसान संगठन खड़े हैं. दिल्ली में किसानों के आंदोलन के समर्थन में कई राज्यों में किसान अलग-अलग तरीके से सहयोग दे रहे हैं. गांवों से ही इस आंदोलन के लिए सारे साजोसामान जुट रहे हैं.
किसानों की नाराजगी देखते हुए तीन राज्यों में भाजपा के नेता सार्वजनिक सभाएं करने से कतरा रहे हैं. वहीं किसान दिल्ली की सीमाओं पर कड़ाके की ठंड, आंधी-तूफान, चिलचिलाती गर्मी और बारिश में भी डटे हैं. धान की बुआई का मौसम शुरू होने के बावजूद बड़ी संख्या में किसान फिर सीमाओं पर पहुंच गए हैं.किसान आंदोलन की अगली कड़ी 26 जून को ‘कृषि बचाओ लोकतंत्न बचाओ’ दिवस होगा जिसमें राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन की तैयारी चल रही है. उस दिन आंदोलन का सात महीना पूरा होगा. यह दिन आपातकाल की 46वीं वर्षगांठ भी है और महान किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती की पुण्यतिथि भी.
किसान संगठनों ने 26 जून को पूरे भारत में जिला और तहसील स्तर पर विरोध प्रदर्शनों के साथ राज्यों के राजभवनों में धरने की योजना बनाई है. विभिन्न संगठनों से भी वे देशव्यापी विरोध प्रदर्शन में सहयोग मांग रहे हैं.किसान जिन चार मुद्दों को लेकर आंदोलित हैं, उसे लेकर सरकार और किसानों के बीच वार्ता का पहला आधिकारिक दौर 14 अक्तूबर 2020 को चला था. 13 नवंबर को दूसरी वार्ता हुई जबकि दिसंबर 2020 में चार और जनवरी 2021 में पांच वार्ताओं के साथ ग्यारहवें दौर की वार्ता 22 जनवरी 2021 को टूट गई.
आंदोलन के 176 वें दिन 21 मई 2021 को संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्नी को पत्न लिख कर बातचीत आरंभ करने को कहा. उससे पहले संसद के बजट सत्न के पूर्व सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्नी ने कहा था कि सरकार वार्ता के लिए तैयार है. 22 जनवरी को जब सरकार ने इन कानूनों पर 18 माह तक रोक लगाने का प्रस्ताव दिया था तो लगा था कि अब आंदोलन सिमट जाएगा. लेकिन किसान संगठनों ने आपसी संवाद के बाद फैसला किया कि अगर बाद में कानून यथावत रहा और सरकार मुकर गई तो ऐसा आंदोलन फिर खड़ा करना संभव नहीं होगा. तीनों केंद्रीय कृषि कानूनों को पूरी तरह रद्द करने और सभी किसानों के लिए सभी फसलों पर लाभदायक एमएसपी के लिए कानून बनाने की अपनी मांग पर वे कायम रहे. उससे पहले 8 जनवरी 2021 की बैठक में कृषि मंत्नी नरेंद्र सिंह तोमर ने साफ कह दिया था कि सरकार कानून रद्द नहीं करेगी, बेहतर होगा कि आप लोग सुप्रीम कोर्ट जाएं. लेकिन किसान संगठनों ने इसे ठुकरा दिया.
किसान आंदोलन के दौरान संसद के दो सत्न हुए. इसमें बजट सत्न में कांग्रेस समेत 19 विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति के अभिभाषण का बहिष्कार किया. विपक्षी सांसदों के दबाव के नाते ही राष्ट्रपति के अभिभाषण पर दोनों सदनों में हुई चर्चा भी किसान आंदोलन पर केंद्रित रही. कई राजनीतिक दल तीनों कानूनों को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद की गारंटी का कानून बनाने की मांग कर रहे हैं. किसान आंदोलन के नाते ही भाजपा और अकाली दल का साथ टूट गया. पंजाब के नगर निकायों के चुनाव से लेकर उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों में भाजपा को भारी नुकसान उठाना पड़ा. अगर इस आंदोलन के राष्ट्रीय नहीं क्षेत्नीय स्वरूप को देखें तो पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजनीति का आधार किसान हैं. इस कारण अधिकतर दल कृषि कानूनों के खिलाफ एकजुट हैं.