ब्लॉग:सत्ता विरोधी लहर बनाम सत्ता समर्थक लहर

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 8, 2023 10:05 AM2023-12-08T10:05:24+5:302023-12-08T10:05:30+5:30

यह अदृश्य लहर इतनी प्रबल थी कि कई जिलों में कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका और कुछ भाजपा उम्मीदवारों ने 60,000 से अधिक मतों के भव्य अंतर से जीत हासिल की।

Anti-incumbency wave vs pro-incumbency wave | ब्लॉग:सत्ता विरोधी लहर बनाम सत्ता समर्थक लहर

फाइल फोटो

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत हासिल करना कई लोगों के लिए शायद आश्चर्यकारक नहीं होगा लेकिन भाजपा पर नजर रखने वाले कई लोगों को इस बात से बहुत हैरानी हुई कि उस दल ने मध्यप्रदेश में मजबूत सत्ता विरोधी लहर को प्रभावी ढंग से बेअसर कर दिया।

कांग्रेस ने तो ईवीएम से छेड़छाड़ का आरोप ही लगा दिया लेकिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा की जोरदार जीत पर खुद भाजपा नेताओं को भी यकीन नहीं हो रहा है। यदि आप मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के वर्षों की गणना करें तो मध्य प्रदेश के सबसे कद्दावर नेता चौहान, नरेंद्र मोदी से भी थोड़े वरिष्ठ हैं।

आम तौर पर लोग जितना जानते-मानते हैं, उससे कहीं अधिक चतुर राजनेता चौहान आसानी से लालकृष्ण आडवाणी का खेमा बदल कर 2013-14 में मोदी खेमे में शामिल हो गए और नितिन गडकरी, राजनाथ सिंह, अमित शाह से लेकर जे.पी. नड्डा तक कई अध्यक्षों के अधीन बेहतर तालमेल से काम किया।

वर्ष 2005 के बाद से, वह एक अनुभवी राजनेता के रूप में विकसित हुए, जो ‘अंदर के दुश्मनों’ को चतुराई से निपटा गए और उमा भारती, कैलाश विजयवर्गीय, प्रभात झा, प्रह्लाद पटेल, राकेश सिंह, जयंत मलैया, नरेंद्र सिंह तोमर और नरोत्तम मिश्रा जैसे बड़ी संख्या में राज्य के नेताओं को किनारे कर दिया।

दूसरे शब्दों में, उन्होंने 18 वर्षों तक उनमें से किसी को भी प्रदेश के सर्वोच्च पद के करीब नहीं आने दिया। वह मध्य प्रदेश के अब तक के सबसे खराब भर्ती और प्रवेश घोटाले (व्यापमं) से भी लगभग बेदाग बच निकले।

मध्य प्रदेश के चुनावों से पहले, अगर भाजपा नहीं तो शिवराज सिंह के खिलाफ तो अवश्य ही लोगों में नाराजगी की भावना थी-यही कारण था कि पार्टी आलाकमान ने उन्हें सीएम के रूप में प्रोजेक्ट करने से इनकार कर दिया था। याद रखें कि उनके नेतृत्व में पार्टी 2018 में चुनाव हार गई थी। सभी स्तरों पर भ्रष्टाचार, महिलाओं के खिलाफ अत्याचार, मंत्रियों का अहंकार जैसे मुद्दे-सब मिलकर एक ऐसी ताकत बन गए जिसने मोदी की पार्टी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं।

कम से कम एक साल पहले मुख्यमंत्री को बदलने में पार्टी की असमर्थता भी भाजपा के इस चुनाव में कठिन चुनौती का सामना करने के लिए जिम्मेदार थी लेकिन फिर कई अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह, मार्च 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के सौजन्य से सत्ता में वापस आने के बाद शिवराज ने भी कोविड-19 की चुनौती को प्रभावी ढंग से संभाला।

वास्तव में 2018 में भाजपा की मामूली हार के बाद, अगर चौहान ‘ऑपरेशन लोटस’ को अंजाम देने वाली भाजपा के पसंदीदा बने रहे तो यह उनका अनुभव और राज्य, वहां के समाज और राजनीति के बारे में उनका गहन ज्ञान था। लेकिन राज्य के खजाने को जल्द ही एक तरह की चुनावी रेवड़ी के लिए खोल दिया गया।

जनहितकारी कार्यों (या लाभार्थियों, जैसे लाडली बहना की फौज खड़ी करना) ने भाजपा की जरूर मदद की, परंतु कांग्रेस के नारों और वचनों को जनता ने अनदेखा कर दिया।

यह जानना दिलचस्प है कि भाजपा ने शिवराज के लंबे शासन से पैदा हुई सत्ता-विरोधी भावनाओं (एंटी-इनकंबेंसी) को सत्ता के पक्ष (प्रो-इनकंबेंसी) में कैसे बदल दिया।

तेलंगाना में बीआरएस और छत्तीसगढ़ व राजस्थान में कांग्रेस सत्ता विरोधी लहर से निपट नहीं सकी और हार गई लेकिन भाजपा ने सबसे अधिक 230 विधानसभा सीटों वाले मध्य भारतीय राज्य में इसे अच्छी तरह से प्रबंधित किया और तगड़ी जीत हासिल की।

तेजतर्रार मोदी-शाह की जोड़ी को यह अहसास हो गया था कि भाजपा के चेहरे के रूप में शिवराज के चेहरे के साथ मध्यप्रदेश जीतने की कोशिश करना आत्मघाती होगा लेकिन आखिरी चरण में उन्हें हटाने में भी बड़ा जोखिम था. इसलिए उन्होंने चरण-दर-चरण उनके पर कतरे। आधुनिक समय के ‘चाणक्य’ अमित शाह ने चुनाव को अपने हाथों में ले लिया।

उन्होंने भरोसेमंद मंत्रियों-भूपेंद्र यादव और अश्विनी वैष्णव-को मध्य प्रदेश भेजा, जो नियमित रूप से शाह को विस्तृत व जमीनी जानकारियां देते रहे। फिर मतदाताओं को भ्रमित करने के लिए बड़े नेताओ नरेंद्र सिंह तोमर, फग्गन सिंह कुलस्ते, प्रह्लाद पटेल और कैलाश विजयवर्गीय को चुनाव लड़ने के लिए दिल्ली से भेजा गया। स्पष्ट संदेश यह था कि अगर भाजपा जीती तो उनमें से कोई एक मुख्यमंत्री बन सकता है और जरूरी नहीं कि शिवराज ही बनें। इससे मतदाताओं को शायद कुछ राहत मिली हो।

इसके साथ ही, आरएसएस ने छोटे समूहों और समुदायों की बड़ी संख्या में बैठकें कीं; 70,000 से अधिक स्वयंसेवकों ने लगभग 4.25 करोड़ मतदाताओं से जुड़ने और उनमें हिंदू एकता की आवश्यकता होने की भावना भरने के लिए काम किया।

अंत में मोदी ने बड़े पैमाने पर रैलियां कीं और उन क्षेत्रों और सीटों पर ध्यान केंद्रित किया जो मुश्किल थीं। उनकी गारंटी और चुनावी गीत ‘एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी’ ने जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की और परिणामों ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।

सामूहिक रूप से इन सभी कारकों ने एक मजबूत सत्ता विरोधी लहर को सत्ता समर्थक लहर में बदल दिया, जिससे भाजपा को 48.55% वोटों के साथ 163 सीटें मिलीं-जो इस राज्य में अब तक का सबसे अधिक मतों का प्रतिशत रहा है। यह अदृश्य लहर इतनी प्रबल थी कि कई जिलों में कांग्रेस का एक भी उम्मीदवार नहीं जीत सका और कुछ भाजपा उम्मीदवारों ने 60,000 से अधिक मतों के भव्य अंतर से जीत हासिल की।

कमलनाथ और दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस अपने प्रतिद्वंद्वी की बहुविध गतिविधियों को भांप ही न सकी। शाह की रणनीतिक सोच और मोदी की गजब लोकप्रियता की बराबरी करने वाला भी उनके पास कोई नहीं था इसलिए एक चतुर और लोकप्रिय माने जाने वाले मुख्यमंत्री को हटाए बिना, दिल्ली के भाजपा रणनीतिकारों ने मध्य प्रदेश को फिर से जीत लिया। 

Web Title: Anti-incumbency wave vs pro-incumbency wave

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