आलोक मेहता का ब्लॉग: कोरोना महामारी को मात दे रही है वनवासी शक्ति
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: June 16, 2020 05:36 AM2020-06-16T05:36:28+5:302020-06-16T05:36:28+5:30
अपने देश में सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार लगभग दस करोड़ आदिवासी यानी अनुसूचित जनजाति आबादी है. यों तो इन इलाकों में अन्य जातियों और विभिन्न धर्मावलम्बियों के लोग भी रहते हैं.
कोविड-19 महामारी संकट काल में देश-दुनिया की सुर्खियों में भारत के झारखंड, छत्तीसगढ़, असम, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम जैसे प्रदेशों के आदिवासी क्षेत्रों में अन्य संपन्न शहरों की तुलना में संक्रमण बहुत कम होने और प्रभावित लोगों के शीघ्र स्वस्थ होने की खबरें मीडिया में प्रमुखता से नहीं दिखाई दीं.
अपने देश में सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार लगभग दस करोड़ आदिवासी यानी अनुसूचित जनजाति आबादी है. यों तो इन इलाकों में अन्य जातियों और विभिन्न धर्मावलम्बियों के लोग भी रहते हैं. हम और हमारे नेता अपनी संस्कृति और आदिवासियों पर गौरव करते हैं. राजनेता उन्हें समय-समय पर वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते हैं.
हम राष्ट्राध्यक्षों, प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, विदेशी मेहमानों के आदिवासियों के साथ गाते-नाचते झूमते फोटो-वीडियो प्रमुखता से मीडिया में प्रचारित-प्रसारित करते हैं. फिर ऐसा क्यों है कि कोरोना संकट काल में अधिक अनुशासन, संयम से रहने वाले आदिवासियों के सफल संघर्ष और उनके स्वस्थ रहने के राज की बातों को विशेष तरजीह राष्ट्रीय स्तर पर नहीं दिखाई दी.
महामारी से बचने या स्वस्थ समाज के लिए अधिकाधिक जानकारी देना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन इसका आतंक पैदा करना कतई उचित नहीं है. भारत में कोरोना संक्रमण से मृतकों की संख्या के बजाय अब तक बीमारी से मुक्त हुए और सर्वाधिक स्वस्थ साबित हो रहे लोगों की संख्या के प्रचार-प्रसार से अन्य भोले-भाले गरीब या कमजोर, बुजुर्गों में आत्मविश्वास भी पैदा होता.
न्यूजीलैंड, स्वीडन, नार्वे में कोरोना के सबसे कम प्रभाव और सामान्य जीवन की सूचनाएं सुर्खियों में प्रसारित हुर्इं. जबकि न्यूजीलैंड जैसे देशों की तुलना में अधिक आबादी वाले हमारे कुछ आदिवासी क्षेत्रों की स्थिति उनसे बेहतर रही है. महानगरों और संपन्न शहरों की अपेक्षा आदिवासी इलाकों में संक्रमण का प्रभाव बहुत कम रहा.
झारखंड में अब तक करीब 1600 के आसपास कोरोना के मामले सामने आए और गोड्डा जैसे स्थान पर केवल एक व्यक्ति संक्रमित हुआ. असम में करीब 3300 संक्रमित हुए और करीब 1500 स्वस्थ होकर निकले. मेघालय में केवल 44 प्रभावित हुए और 15 ठीक हो गए. मणिपुर में 311 संक्रमित हुए, लेकिन अब तक 63 स्वस्थ होकर घर लौटे.
वनवासी क्षेत्रों में बस्तर सर्वाधिक चर्चा में रहता है. बहुत कम लोगों ने इस तथ्य की खबर पर ध्यान दिया होगा कि लॉकडाउन से पहले ही महामारी की सूचना के बाद दंतेवाड़ा के हॉट बाजार में आदिवासी भाई-बहन स्वयं बाकायदा गोल घेरा बनाकर दूरी रखते हुए सामान बेचते-खरीदते दिख रहे थे.
मैंने प्रदेश के एक स्थानीय चैनल में यह खबर देखी, लेकिन उसी ग्रुप के संपन्न राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार चैनल में ऐसी खबर नहीं दिखाई दी. मैंने उस क्षेत्र के एक पत्रकार से इस तरह की जागरूकता का रहस्य जानने के लिए फोन किया. तब पता चला कि एक सौ वर्ष पहले स्पेनिश बुखार के समय इस इलाके में सेवा करने वाले डॉक्टर ने ही आदिवासियों को संक्रामक बीमारी से बचने के लिए एक-दूसरे से दूरी रखने की सलाह और दवाइयां बांटी थी.
दो पीढ़ियां अपने बच्चों को यह बात सिखाती रही हैं. यही नहीं इस इलाके में उस समय लगातार घूमकर सेवा करने वाले डॉक्टर की एक गांव में मृत्यु हो गई थी, उनकी समाधि सी बनाकर लोग आज भी फूल चढ़ाने जाते हैं. दूसरी पराकाष्ठा यह है कि शिलांग के एक अस्पताल में कोरोना से संक्रमित अमेरिकी व्यक्ति ने टेस्ट - इंजेक्शन आदि का विरोध करते हुए डॉक्टर-नर्स के साथ न केवल मारपीट की, वार्ड में फर्नीचर तक को तोड़फोड़ दिया. बहरहाल, फिर भी उसका इलाज किया गया.
छत्तीसगढ़ में पिछले 10-15 वर्षों के दौरान स्वास्थ्य केंद्रों में सुधार का लाभ कोरोना काल में दिख रहा है. संकट के इस दौर में राजनीतिक दलों और समाज को यह भी देखना चाहिए कि वनवासी बहुल आबादी वाले राज्यों का नेतृत्व किसी आदिवासी समर्पित व्यक्ति को दिया जाए. पूर्वोत्तर राज्यों में यह होता है और उसका लाभ जनता को मिल रहा है.
मोदी सरकार की स्वास्थ्य, आवास, अनाज वितरण की योजनाओं का सबसे अच्छा उपयोग उन्हीं राज्यों में हो रहा है. इसी तरह आदिवासी इलाकों की जड़ी- बूटियां, सब्जी-फल, महुआ भी सामान्य रोग और कोरोना प्रकोप में भी बचाव करने लायक शक्ति दे रहे हैं. आखिरकार उतनी शुद्धता और कहां मिल सकती है. वन और वनवासी ही हमारे सबसे बड़े रक्षक हैं. उनका ध्यान, सम्मान, सेवा सबका कर्तव्य भी है.