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आलोक मेहता का ब्लॉग: विशेषाधिकार के बावजूद संसद में उदासीनता

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 23, 2019 12:50 IST

लोकसभा के कार्यक्रम पहले से तय होते हैं और सदस्यों को भी सूचना होती है कि वह अपने सवाल किस दिन पूछ सकते हैं. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और दोनों सदनों के सभापति तथा उपसभापति सांसदों की बैठक में निरंतर इस बात पर जोर  देते रहे हैं कि सदस्य सदन में उपस्थिति सुनिश्चित करें.

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मेरा सौभाग्य रहा है कि 1972 से संसद की कार्यवाही को देखने और रिपोर्टिग करने के अवसर मिले. वर्षो तक यह देख कर बहुत अच्छा लगता था कि संसद में प्रधानमंत्नी इंदिरा गांधी, उनके वरिष्ठ सहयोगी और प्रतिपक्ष में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु लिमये,  राज नारायण,  भूपेश गुप्ता और पीलू मोदी जैसे नेता अधिकांश समय सदन में उपस्थित रहते थे. घंटों तक गर्मागर्म बहस होने के बावजूद सदन स्थगित नहीं होता था. अधिक हंगामा होने पर लोकसभा में अध्यक्ष और राज्यसभा में सभापति सांसद को सदन से बाहर भी निकलवा देते थे. लेकिन हाल के वर्षो में लगातार चर्चाओं के बावजूद अनुभव यह बताता है कि अपने विशेषाधिकार एवं सुविधाओं को लेकर सांसद निरंतर सक्रिय रहते हैं, वहीं महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा के समय उपस्थिति बहुत कम हो जाती है. ऐसे अवसर भी आते हैं जब कोरम के अभाव में सदन ही नहीं संसदीय समितियों तक की बैठक स्थगित करनी पड़ती है. 

लोकसभा के कार्यक्रम पहले से तय होते हैं और सदस्यों को भी सूचना होती है कि वह अपने सवाल किस दिन पूछ सकते हैं. प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और दोनों सदनों के सभापति तथा उपसभापति सांसदों की बैठक में निरंतर इस बात पर जोर  देते रहे हैं कि सदस्य सदन में उपस्थिति सुनिश्चित करें. आश्चर्य की बात  यह है कि कोई निर्देश सांसद याद नहीं रखते. इस बार लोकसभा में कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता अधीर रंजन चौधरी ने देश के किसानों की गंभीर समस्या पर चर्चा से अधिक महत्व देते हुए अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की सुरक्षा के लिए एसपीजी के बजाय जेड प्लस व्यवस्था के  मुद्दे पर सदन की कार्यवाही रोकने का प्रयास किया.

बहरहाल असली मुद्दा संसद में गंभीर विषय पर चर्चा के समय भागीदारी का है. अमेरिका या यूरोपीय देशों  में संसदीय समितियों की बैठक भी बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है और अमेरिका में तो उनका प्रसारण भी टेलीविजन पर होता है.   भारत में महत्वपूर्ण संसदीय समितियों ने कई बार संसद और सरकार के निर्णय के लिए अच्छा योगदान दिया है. दूसरी तरफ हाल के वर्षो में यह विवाद भी सामने आने लगे हैं कि संसद या विधानसभाओं की समितियों की  बैठक  सैर-सपाटे के लिए उपयोग में आने लगी है अथवा केवल औपचारिकताएं पूरी होती हैं. संसद की कार्यवाही के टीवी प्रसारण से पूरा देश यह भी देखता रहता है कि उनके सांसद कैसा व्यवहार कर रहे हैं. इस कारण चुनाव के दौरान कुछ क्षेत्नों में मतदाता भी उदासीन होकर वोट देने से बचने लगे हैं. लोकतंत्न के लिए यह स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती.  

संसद में अनर्गल आरोप और अशोभनीय व्यवहार के लिए कुछ वर्ष पहले लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और राज्यसभा में सभापति तथा उपराष्ट्रपति भैरोंसिंह शेखावत ने अपने इस्तीफे देने तक की चेतावनी दी थी. यों संसद ने  अपने छह दशकों में विश्व के सर्वश्रेष्ठ राजनेता, अर्थशास्त्नी,  वैज्ञानिक,  समाजसेवी,  साहित्य और संस्कृति के अग्रणी लोगों को देखा है. इसी संसद के नेताओं के संयुक्त राष्ट्र महासभा को चमत्कृत करने वाले वक्ता भी हमने देखे और सुने हैं.संसद में जो आरोप लगाए जाएं वे अपेक्षित दस्तावेजों,  सदस्य द्वारा  प्रमाणित होने चाहिए. सदस्य को आरोपों को सिद्ध करने के लिए तैयार रहना चाहिए. लेकिन हाल के वर्षो में ऐसे नियमों का पालन नहीं हो रहा है.  जब सदस्य अपने ही बनाए नियमों और कानूनों का पालन नहीं करेंगे तब जनता से यह कैसे अपेक्षा की जा सकेगी कि वह कानून का पालन करे?  

संसद के उच्च सदन राज्यसभा की गरिमा तो और भी अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है. राज्यसभा के 250 सत्न होने के अवसर पर प्रधानमंत्नी नरेंद्र मोदी और वरिष्ठ नेताओं ने सदन की महत्ता को गौरवशाली बताया. इस तरह की चर्चा में सभी दलों के सदस्य प्रसन्नता के साथ हिस्सा लेते हैं लेकिन अगले ही दिन उनके तेवर बदल जाते हैं. संविधान निर्माताओं ने शक्ति संतुलन की दृष्टि से राज्यसभा का प्रावधान किया. लक्ष्य यह था कि लोकसभा में बहुमत वाली सरकार कभी जल्दबाजी में कुछ फैसला करवा सकती है और राज्यसभा में उस पर चिंतन मनन का समय मिल सकता है. समाज के अनुभवी लोग सही दिशा भी दे सकते हैं.

इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि  हाल के वर्षो में राज्यसभा में बहुमत न होने पर व्यापक राष्ट्रीय हितों वाले प्रस्ताव और विधेयक महीनों और वर्षो तक अटक जाते हैं.  अपेक्षा की  जाती है कि राजनीतिक पूर्वाग्रह और संख्या बल के कारण फैसलों में  रुकावट न डाली जाए. संसद की गरिमा और भविष्य सांसदों के हाथों में ही सुरक्षित रहेगा. लोकतंत्न में चुनाव और संसद के प्रति जनता में गहरा विश्वास कायम करना भी सबका दायित्व है.

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