आलोक मेहता का ब्लॉग: मंदिरों में दर्शन के लिए भाव-ताव और वीआईपी संस्कृति

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: October 20, 2019 04:08 PM2019-10-20T16:08:23+5:302019-10-20T16:08:23+5:30

Alok Mehta's Blog: Emotions and VIP Culture for Visiting Temples | आलोक मेहता का ब्लॉग: मंदिरों में दर्शन के लिए भाव-ताव और वीआईपी संस्कृति

आलोक मेहता का ब्लॉग: मंदिरों में दर्शन के लिए भाव-ताव और वीआईपी संस्कृति

बात 1976 की है. उस समय मैं एक प्रतिष्ठित साप्ताहिक में संवाददाता के रूप में कार्य कर रहा था. अपने संपादक और प्रसिद्ध लेखक मनोहर श्याम जोशी के साथ लखनऊ जाना हुआ. राजनीतिक मुद्दों पर नेताओं के साथ चर्चाओं के अलावा देश के सुप्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर के निवास पर जा कर मिलने का अवसर भी मिला.

मेरे संपादक लेखन में नागरजी को अपना गुरु मानते थे,  इसलिए लंबी बातचीत हुई और नागरजी ने बताया कि इन दिनों वह श्रीराम की जन्म भूमि अयोध्या में हो रहे पुरातत्व के खोजपूर्ण कार्य के अध्ययन के लिए नियमित रूप से अयोध्या जाते रहते हैं.  तय हुआ कि अगले दिन हम उनके साथ एक दिन के लिए अयोध्या की यात्ना भी कर आएं. अयोध्या पहुंचने पर हमने देखा कि जन्मभूमि क्षेत्न में बने मंदिर में ताला लगा हुआ है.

पूरे परिसर में सन्नाटा था. पास में ही खुदाई का काम चल रहा था. इस दरम्यान जोशीजी और नागरजी अयोध्या, भारतीय संस्कृति, इतिहास, हिंदू और मुगल शासकों पर लंबी बातचीत करते रहे. तब मंदिर- मस्जिद को लेकर कहीं कोई राजनीतिक विवाद नहीं दिख रहा था. अदालत में वर्षो से चल रही कार्यवाही पर कहीं कोई सार्वजनिक चर्चा भी सुनने को नहीं मिलती थी. समय बदला और लगभग दस वर्षो के बाद राजनीतिक निर्णय के तहत मंदिर के दरवाजे खोल दिए गए. 1990 से 1992 के राजनीतिक और जनआंदोलनों ने अयोध्या का इतिहास और भूगोल ही बदल दिया.

एक लंबे अंतराल के बाद अयोध्या का एक नया अध्याय लिखा जा रहा है. भारतीय समाज, सम्पूर्ण राजनीतिक और न्यायिक व्यवस्था, धर्मावलंबियों की भावनाओं की परीक्षा भी अंतिम चरण में है. इसमें भी कोई शक नहीं कि अयोध्या का मुद्दा करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा हुआ है. आधुनिकता के इस दौर में पर्यटन की सुविधाएं बढ़ जाने के कारण धार्मिक स्थानों तक पहुंचना आसान हो गया है. इसलिए दर्शनार्थियों की संख्या लाखों में पहुंचने लगी है.

लेकिन हाल के वर्षो में एक नई व्यवस्था और परंपरा कुछ प्रमुख मंदिरों में देखने को मिल रही है. हुआ यह है कि कुछ मंदिरों में दर्शन और पूजा के रेट तय हो गए हैं. जिसके पास अधिक खर्च करने की क्षमता है वह बाकायदा ढाई सौ रु पए से लेकर दस हजार रु पए तक की पूजा अर्चना की टिकट लेकर सीधे भगवान की मूर्ति के चरणों के पास पहुंचने का लाभ उठा सकता है. एक समय था जब हम सोच नहीं सकते थे कि मंदिर में अनुशासित भावना से प्रवेश करने के अलावा जेब में कितने पैसे होने चाहिए!

ऐसा भी नहीं है कि बिना पैसे दिए गरीब लोगों को दर्शन नहीं हो सकेंगे, लेकिन निश्चित रूप से उन्हें घंटों इंतजार करना होगा. मतलब मंदिरों में आर्थिक आधार पर भेदभाव बढ़ता जाएगा. वीआईपी संस्कृति का असर भारत में पहले भी रहा है और अब लगता है कि उपासना स्थलों में भी वीआईपी की श्रेणियां बन रही हैं. मंदिर प्रबंध समितियों का यह तर्क भी अनुचित ही लगता है कि रखरखाव के लिए इस प्रकार की रेटिंग जरूरी है.

आखिरकार इतने वर्षो से गरीब और अमीर अपनी श्रद्धा या क्षमतानुसार धन चढ़ाते रहे हैं. प्रसिद्ध मंदिरों में करोड़ों रुपया और आभूषण जमा हैं. ऐसी व्यस्वस्था क्यों नहीं हो सकती कि जिन स्थानों पर अधिकाधिक धन और संपत्ति है, उसका उपयोग अन्य स्थानों पर भी हो सके? सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि मंदिर में दर्शन और पूजा के लिए वर्ग भेद किसी भी तरह रोका जाए. मंदिर निर्माण के लिए आज से नहीं, प्राचीन काल से ही गरीबों ने सर्वाधिक त्याग और दान दिया है. इस योगदान का कोई मूल्य नहीं हो सकता लेकिन उपासना स्थलों के लिए कोई आचार संहिता राष्ट्रीय स्तर पर क्यों नहीं बन सकती?

Web Title: Alok Mehta's Blog: Emotions and VIP Culture for Visiting Temples

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