आलोक मेहता का ब्लॉग: कोरोना की वजह से गांव से परदेस तक अपनों का संकट
By आलोक मेहता | Published: May 12, 2021 12:39 PM2021-05-12T12:39:28+5:302021-05-12T12:39:28+5:30
कोरोना संकट ने भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था की कलई एक बार फिर खोल दी है. सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा कोई नई बात नहीं है पर इस संकट की घड़ी में सवाल प्राइवेट अस्पतालों से भी पूछे जाने चाहिए. क्या वे अरबों रुपयों की कमाई के लिए ही चलते रहेंगे?
दिल्ली-मुंबई ही नहीं, सुदूर गांवों तक कोरोना महामारी के संकट से हाहाकार है. मेरे परिजनों, मित्रों के संदेश देश के दूरदराज हिस्सों के साथ ब्रिटेन, जर्मनी, अमेरिका से भी दिन-रात आ रहे हैं. विदेश में बैठे परिजन तो और अधिक विचलित हैं, क्योंकि उन्हें भयानक सूचनाएं, खबरें मिल रही हैं. कोई बचाव स्पष्टीकरण नहीं सुना जा सकता.
यह महायुद्ध सरकार के साथ संपूर्ण भारतीय समाज के लिए है. हफ्तों से घर में बंद होने से पुरानी बातें भी याद आती हैं. बहुत छोटे से गांव में जन्म हुआ, फिर शिक्षक पिता जिन गांवों में रहे वहां अस्पताल, डॉक्टर तो दूर, सड़क, तक नहीं थी.
शिक्षक रहते हुए भी आरएमपी (रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टीशनर) की परीक्षा-प्रशिक्षण लेकर पिताजी छोटी-मोटी बीमारी, बुखार आदि की दवाइयां, इंजेक्शन जरूरत पड़ने पर उस या आसपास के गांवों के लोगों को दे देते थे. आठ वर्ष की आयु के बाद उससे बड़े गांव उन्हेल में रहे और बारह वर्ष की आयु में कस्बा शहर उज्जैन आना हो पाया.
साठ साल में वे गांव तो बदल गए हैं, लेकिन मुझे अपनी यात्राओं से पता है कि अब भी देश के अनेक गांवों की हालत कमोबेश वैसी है. इसलिए मुझे लगता है कि इस संकट काल में उन सैकड़ों गांवों के लिए भी प्राथमिकता से अलग अभियान चलना जरूरी है.
सरकारों की कमियों, गड़बड़ियों, राजनेताओं की बयानबाजी, आरोप-प्रत्यारोपों से हम ही नहीं, सामान्य जनता भी बहुत दुखी होती है. कोरोना के परीक्षण और टीकों को लेकर भी घमासान छिड़ गया. भारत जैसे विशाल देश में डेढ़ सौ करोड़ लोगों को क्या तीन महीने में टीके लगाए जा सकते हैं?
इस संकट में डॉक्टरों, चिकित्सा कर्मियों ने अपनी जान की परवाह न कर निरंतर सेवा की और लगातार कर रहे हैं. उनकी सराहना के साथ सरकारों अथवा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने यह सुनिश्चित क्यों नहीं किया कि दूसरों को मौत से बचाने वाले डॉक्टरों नर्सों को कोरोना से पीड़ित होने पर उसी अस्पताल में अनिवार्य रूप से इलाज मिले. खासकर नामी और सबसे महंगे अस्पतालों ने अपने डॉक्टरों को ही बिस्तर नहीं होने का जवाब देकर उनके भाग्य को परिजनों पर छोड़ दिया.
सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा कोई नई बात नहीं है. लेकिन पांच सितारा और देश भर में चेन अस्पतालों के प्रबंधन इस डेढ़ साल में समय से पहले आॅक्सीजन प्लांट नहीं लगा सकते थे या उन्हें एक-एक रुपए में जमीन देने वाली राज्य सरकारें और पानी बिजली देने वाली निगम/पालिकाएं आदेश नहीं दे सकती हैं?
ऐसे अस्पताल एक दिन की आमदनी से ऑक्सीजन प्लांट लगा सकते हैं. दिन-रात सहायता में जुटी भारतीय सेना के जवानों ने और लाखों अन्य लोगों ने अपनी एक दिन की कमाई महामारी से लड़ने के लिए दान में दे दी तो ये बड़े अस्पताल क्या केवल महामारी से अरबों रुपयों की कमाई के लिए ही चलते रहेंगे?