अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: डिजाइनर बेबी के जन्म से उठता विवाद
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: November 30, 2018 16:23 IST2018-11-30T16:23:04+5:302018-11-30T16:23:04+5:30
यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि दुनिया में अब जो करिश्मे होने हैं, उनमें सबसे बड़ी भूमिका साइंस की ही होगी. वैज्ञानिक चमत्कारों का यह सिलसिला काफी पहले शुरू हुआ था और इसकी ताजा कड़ी में चीन में जीन एडिटिंग की मदद से पैदा कराई गई दो जुड़वां बच्चियों का किस्सा है.

अभिषेक कुमार सिंह का ब्लॉग: डिजाइनर बेबी के जन्म से उठता विवाद
यह उम्मीद बेमानी नहीं है कि दुनिया में अब जो करिश्मे होने हैं, उनमें सबसे बड़ी भूमिका साइंस की ही होगी. वैज्ञानिक चमत्कारों का यह सिलसिला काफी पहले शुरू हुआ था और इसकी ताजा कड़ी में चीन में जीन एडिटिंग की मदद से पैदा कराई गई दो जुड़वां बच्चियों का किस्सा है.
इनके बारे में वहां के एक रिसर्चर ने दावा किया है कि दुनिया में पहली मर्तबा जीन संवर्धन (जीन मॉडिफिकेशन) तकनीक से पैदा कराई गई ये बच्चियां एचआईवी-एड्स के संक्र मण से महफूज रहेंगी क्योंकि इनकी आनुवांशिक संरचनाओं में फेरबदल कर एचआईवी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता पैदा कर दी गई है.
इस दावे की अभी परख होनी है, पर यदि ये वास्तव में डिजाइनर बेबीज हैं तो निश्चय ही यह एक क्र ांतिकारी पहल है. हालांकि इस अत्यंत विवादास्पद प्रक्रिया को लेकर दुनियाभर में नाराजगी सामने आने के बाद इस प्रयोग पर रोक लगा दी गई है.
बेशक आज की दुनिया में एचआईवी का खतरा रोकने वाली कई कारगर दवाइयां उपलब्ध हैं, लेकिन जीन एडिटिंग से इस पर काबू पाने के एक खास मायने हैं. असल में एड्स के लिए सीसीआर 5 नामक जीन जिम्मेदार होता है जो एचआईवी वायरस को शरीर में संक्रमण फैलाने में मदद करता है.
इससे यह वायरस कोशिकाओं में प्रवेश कर जाता है और पूरे शरीर को संक्रमित कर देता है. माता-पिता में से किसी को एड्स की बीमारी रही हो तो भी इसकी आशंका रहती है कि उनके बच्चों में एचआईवी का वायरस चला जाए. हे जियानकुई ने जीन एडिटिंग की एक खास तकनीक क्रिस्पर- कैस9 का इस्तेमाल किया और कोशिका के स्तर तक जाकर डीएनए से रोगाणु वाले जीन को काटकर बाहर निकाल दिया.
क्रि स्पर कैस9 एक तरह की आणविक (एटमी) कैंची है, जिसका इस्तेमाल वैज्ञानिक बीमारी पैदा करने वाले जीन को हटाने के लिए करते हैं. इसके तहत सिर्फ स्वस्थ भ्रूणों को ही विकसित होने दिया जाता है. ध्यान रहे कि शोध में शामिल इन बच्चियों को जन्म देने के लिए जिन मां-बाप के अंडाणु और शुक्र ाणु लिए गए थे, उनमें से पुरुष एड्सग्रस्त थे (जिनसे रोगाणु जींस बच्चियों में आए) जबकि महिलाएं इससे सुरक्षित थीं. यह भी समझना होगा कि डीएनए के स्तर पर जाकर जींस की काट-छांट कतई आसान नहीं है. मानव क्रोमोसोम में डीएनए के 25 लाख के करीब जोड़े होते हैं, जिनमें रोगग्रस्त या संक्रमित डीएनए की पहचान कर उसकी काट-छांट करना भूसे के ढेर में सुई खोजने से भी जटिल काम है.
जीन एडिटिंग तकनीक से अतीत में पहले भी कुछ प्रयोग हो चुके हैं. जैसे पिछले ही साल अगस्त, 2017 में साइंस मैगजीन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिकी और दक्षिण कोरियाई वैज्ञानिकों की टीमों ने हृदय की मांसपेशियों की मोटाई बढ़ाने वाली जीन को जीन-एडिटिंग की तकनीक क्रिस्पर कैस9 से ही हटाया था, जिसके कारण हर 500 में से एक व्यक्ति हाईपरट्रॉपिक कार्डियोमायोपैथी नामक बीमारी की चपेट में आकर अपनी जान गंवा देता है.
इस बीमारी में हृदय की मांसपेशीय दीवारें मोटी हो जाती हैं. इस सफलता के बाद माना गया कि जीन एडिटिंग से वैज्ञानिक और डॉक्टर कैंसर जैसी बीमारियों को भी कोशिका के स्तर से ही गायब कर देंगे. इस कामयाबी के साथ दावा किया गया था कि जीन एडिटिंग से करीब 10 हजार आनुवांशिक गड़बड़ियों के इलाज का रास्ता भी खुलेगा, जिनमें से बहुत सी बीमारियों को लाइलाज की श्रेणी में रखा जाता है और जो कई पीढ़ियों तक अपना असर डालती हैं. जीन एडिटिंग से जुड़ी जिस एक अन्य पहलकदमी का उल्लेख यहां जरूरी है, वह 2003 का ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट है.
इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक दावा कर चुके हैं कि उन्होंने इंसान के पूरे जीनोम को पढ़ लिया है और अब वे पूरे जीनोम को लिख रहे हैं. दूसरे शब्दों में वैज्ञानिक अब उस जगह पहुंच गए हैं, जहां वे उन निर्देशों को लिख सकते हैं, जो हमारी कोशिकाओं को चलाते हैं. इन शोधों की बदौलत हम अब मानव विकास को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाए हैं.
अब हमारे पास इसकी काफी जानकारी है कि कैंसर, दिल का दौरा और सिजोफ्रेनिया जैसी बीमारियां क्यों होती हैं. यह भी पता चल गया है कि हमारे दो प्रतिशत जींस ही प्रोटीन उत्पादन के काम आते हैं, बाकी 98 प्रतिशत की भूमिका को अच्छी तरह समझने के लिए हमें जींस खुद बनाकर देखने होंगे. तभी यह मालूम चल सकेगा कि जींस और जीनोम किस तरह काम करते हैं, कैसे नियंत्रित होते हैं और कोई बीमारी या संक्रमण उनमें कैसे घुसपैठ कर लेता है. फिर भी ये सारे शोध और परियोजनाएं जिस एक सवाल पर आकर ठहर जाते हैं, वह यह है कि क्या हमें इंसान की जिंदगी की बेहतरी के साथ-साथ इन प्रयोगों से जुड़ी नैतिकताओं पर विचार नहीं करना चाहिए.
फिलहाल स्थिति यह है कि चीनी करिश्मे पर कुछ को छोड़कर दुनियाभर के वैज्ञानिकों ने चिंता जता दी है. निश्चय ही अब यह तय करने का काम समाजों और सरकारों का है कि वे जीन एडिटिंग को नैतिक-सैद्धांतिक पहलुओं पर तौलें और बताएं कि क्या वे ऐसे प्रयोगों के पक्ष में हैं, जिनसे इंसान की बेहतरी का मार्ग प्रशस्त होता है या कुछ नैतिक अड़चनें बताते हुए सामाजिक दबावों के शिकार हो जाएं.