अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: हमारी भाषाओं और राष्ट्रवाद के बीच संबंध
By अभय कुमार दुबे | Published: September 12, 2019 06:36 AM2019-09-12T06:36:03+5:302019-09-12T06:36:03+5:30
हमारे राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का भाषाई विरोधाभास. मुङो याद आता है कि उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के समय कांग्रेस में गांधीजी की पहलकदमी पर एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि कांग्रेस अधिवेशनों की कार्यवाही हिंदी या हिंदुस्तानी में चलाई जाएगी.
अभी पिछले हफ्ते मुङो दिल्ली में लोकतंत्र और राष्ट्रवाद पर व्याख्यान देने का मौका मिला. मुख्य अतिथि के तौर पर सबसे पहले मुझसे दीप प्रज्जवलित करने के लिए कहा गया. इसके बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुए. पहला कार्यक्रम सरस्वती वंदना पूरी तरह से संस्कृतनिष्ठ कविता का एक उदाहरण था. दूसरा कार्यक्रम बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के संस्कृतनिष्ठ बांग्ला में रचित गीत ‘वंदेमातरम्’ को सितारवादन द्वारा प्रस्तुत करना था.
तीसरा कार्यक्रम था दो छात्रओं द्वारा प्रस्तुत उत्तर भारतीय गंगा-जमुनी संस्कृति के उत्कृष्ट प्रतीक कत्थक नृत्य का. बीस-पच्चीस मिनट चले इस सुरुचिपूर्ण सांस्कृतिक कार्यक्रम के बाद जैसे ही संचालक ने राष्ट्रवाद और लोकतंत्र पर चर्चा का आह्वान किया, पूरा का पूरा सभागार भारतीय परंपरा, संस्कृतनिष्ठ काव्य और शास्त्रीय नृत्य-संगीत से सीधे छलांग मारकर अंग्रेजी की दुनिया में पहुंच गया. मानो संस्कृत और फारसी समेत सभी भारतीय भाषाओं में लोकतंत्र और राष्ट्रवाद जैसे विषयों पर विमर्श करने लायक सामग्री और सुविधा हो ही नहीं.
यह है हमारे राष्ट्रवाद और लोकतंत्र का भाषाई विरोधाभास. मुङो याद आता है कि उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के समय कांग्रेस में गांधीजी की पहलकदमी पर एक प्रस्ताव पारित किया गया था कि कांग्रेस अधिवेशनों की कार्यवाही हिंदी या हिंदुस्तानी में चलाई जाएगी.
क्या ऐसा हो पाया? नहीं. इस प्रस्ताव के बावजूद कांग्रेस कार्यसमिति और अधिवेशन का सब कुछ अंग्रेजी में ही होता रहा. कुल मिला कर उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन का नारा यह था कि पार्टी का नेतृत्व अंग्रेजी में विचार-विमर्श करता था, और जनता के बीच हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं का व्यवहार होता था. कांग्रेस में ही नहीं, मुस्लिम लीग में भी यही हालत थी. जिन्ना तो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेजीदां थे. उन्होंने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में मुश्किल से उर्दू का एक वाक्य बोला था. क्या उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के दौरान जनता को अंग्रेजी में संबोधित किया जा सकता था?
असलियत यह है कि पार्टयिों के आलाकमान की बैठकों के बाहर सारा का सारा आंदोलन हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओंे में ही चलाया जाता था. बीस के दशक की शुरुआत में जैसे ही गांधीजी के हाथ में कांग्रेस की बागडोर आई, उन्होंने भांप लिया कि विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और जातीयताओं में बंटा यह देश केवल स्थानीय भाषाओं को प्रमुखता दे कर ही राजनीतिक रूप से एक किया जा सकता है.
इसलिए उन्होंने कांग्रेस का सांगठनिक गठन भाषावार किया.अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत चलाने के लिए देश को जिस तरह से बांटा था, उससे अलग हटते हुए कांग्रेस ने हिंदुस्तानी, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, गुजराती, मराठी, असमी और ओड़िया जैसी भाषाओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए भारत के भौगोलिक विभाजन को कल्पित किया. अंग्रेजों की अगर चलती तो वे भारत की भाषाई विविधता को तीन प्रभु भाषाओं में सीमित कर देते.
ये थीं हिंदी, तमिल और बांग्ला. लेकिन उपनिवेशवादी आंदोलन के इस भाषाई मास्टर स्ट्रोक ने चालीस के दशक के आखिरी वर्षो में आजादी को संभव कर दिखाया. 1947 के बाद कांग्रेस सत्ता हाथ में आते ही भारत की यह समृद्ध भाषाई बनावट भूल गई. फलवस्वरूप महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पंजाब जैसे प्रदेशों को बनवाने के लिए आंदोलनकारी दबाव पड़ा. हमें पता है कि आजादी के बाद नेहरू और कांग्रेस को थोड़े हीले-हवाले के साथ राज्यों के भाषावार गठन के लिए राजी होना पड़ा.
आज का भारत इन्हीं भाषाई पहचानों का एक संयुक्त रूप है. मुख्य तौर से यही है वह खास बात जो भारतीय राष्ट्रवाद को पश्चिम के राष्ट्रवाद से अलग करती है. भारतीय राष्ट्रवाद बहुभाषी है, और पश्चिमी राष्ट्रवाद एकभाषी. इसीलिए पश्चिमी राष्ट्रवाद अपने आंतरिक स्वभाव में अलोकतांत्रिक और समरूपीकरण का पैरोकार है. यह देख कर अत्यधिक क्षोभ होता है कि जिस देश ने अपनी आजादी अपनी भाषाओं के जरिये की गई राजनीतिक गोलबंदी के आधार पर हासिल की, वही ज्ञान-रचना और राज्य-निर्माण के लिए आज भी अंग्रेजी का मोहताज है.
उच्च-शिक्षा में अंग्रेजी को माध्यम बनाए रखने का परिणाम यह निकला है कि देशभर में एक भाषाई दरार पैदा हो गई है. एक तरफ मुट्ठी-भर अंग्रजी बोलने-बरतने वाले हैं, और दूसरी तरफ सौ करोड़ से ज्यादा भारतीय भाषाओं के लोग हैं जो अंग्रेजी न जानने के कारण हीन भावना के शिकार हैं.
यह नजारा उच्च-शिक्षा के दायरे में सबसे ज्यादा दिखाई पड़ता है. दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी देश की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित शिक्षा संस्था को ही ले लीजिए. वहां के राजनीति शास्त्र विभाग में पैंसठ फीसदी छात्र हिंदी माध्यम के हैं. पर प्रोफेसरगण कक्षा में अंग्रेजी बोलते हैं, क्योंकि उनके पास हिंदी में पढ़ाने का प्रशिक्षण ही नहीं है. छात्रों को
आधी बात समझ में आती है, आधी नहीं.
इसी स्थिति के कारण भारतीय भाषाएं रचनात्मक साहित्य, मनोरंजन, पत्रकारिता और राजनीतिक प्रचार तक सिमट कर रह गई हैं. भारत एक ऐसा समाज है जो अपना ज्ञान अपनी भाषाओं में पैदा नहीं करता. उसके लोकतांत्रिक राज्य की नियमावलियां, उसके कानून और उसकी राजाज्ञाएं उसकी अपनी भाषाओं में जारी नहीं होतीं. जब तक यह चलता रहेगा, हमारा राष्ट्रवाद और लोकतंत्र अधूरा ही रहेगा.