अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जातिगत जनगणना और आरक्षण की पेचीदगी

By अभय कुमार दुबे | Published: August 25, 2021 11:05 AM2021-08-25T11:05:27+5:302021-08-25T11:05:27+5:30

पुराने प्रकरण बताते हैं कि जातियां गिनना कितने झंझट का काम है, और उसके लिए सही-सही पद्धति का आविष्कार न तो अंग्रेज कर पाए थे, और न ही हमारी सरकार कर पाई है.

Abhay Kumar Dubey Issue of caste census, reservation and difficulties | अभय कुमार दुबे का ब्लॉग: जातिगत जनगणना और आरक्षण की पेचीदगी

भारत में जातिगत जनगणना और आरक्षण की पेचीदगी (फोटो- ट्विटर)

1931 के बाद पहली बार 2011 में आजाद भारत की सरकार ने सोशियो-इकोनॉमिक एंड कास्ट सेंसस (एसईसीसी) करने की विशाल कवायद की. नतीजा क्या निकला? जातियों की संख्या में एक हजार गुना बढ़ोत्तरी दर्ज हुई. 

जातियों, उपजातियों, तरह-तरह के जातिगत उपनामों, गोत्रों और कुनबों के नामों को दर्ज करने की क्रिया में यह नतीजा निकला. दस साल गुजर चुके हैं कि लेकिन जनगणना का जातिगत पक्ष अभी तक सरकार लोगों के सामने पेश नहीं कर पाई है.

कारण यह बताया जा रहा है कि जातियां गिनने में सेंसस करने वालों से सवा आठ करोड़ गलतियां हो गईं. इन्हें ठीक करने की क्रिया चलाई गई और अब कहा जा रहा है कि दस साल में पौने सात करोड़ त्रुटियां दुरुस्त कर दी गई हैं. लेकिन, अभी भी करीब डेढ़ करोड़ गलतियां ठीक होनी बाकी हैं. 

इसलिए अब सरकार की तरफ से कह दिया गया है कि 2011 की जनगणना त्रुटिपूर्ण थी और अब पुरानी पड़ चुकी है इसलिए उसके आंकड़े जारी नहीं किए जाएंगे. क्या यह प्रकरण नहीं बताता कि जातियां गिनना कितने झंझट का काम है, और उसके लिए सही-सही पद्धति का आविष्कार न तो अंग्रेज कर पाए थे, और न ही हमारी सरकार कर पाई है.

जातिगत जनगणना की दिक्कत वाली बातों में एक यह भी है कि आजादी के पहले से कई कारीगर जातियां द्विज जातियों के उपनाम लिखने लगी हैं. शर्मा एक ऐसा ही उपनाम है जो कभी ब्राह्मण के मूल उपनाम ‘शर्मन’ से निकला है. इसी तरह वर्मा उपनाम है जो राजपूतों के मूल उपनाम ‘वर्मन’ की देन है. 

इसी तरह लोधी जैसी ओबीसी जाति अपने नाम के साथ राजपूत उपनाम लिखती है. भूमिहार जातियां स्वयं को द्विज जातियों की श्रेणी में मानती हैं. उन्होंने वर्षो तक यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त करने की मुहिम चलाई है. बंगाल के राजवंशी आदिवासियों ने स्वयं को क्षत्रिय घोषित कर रखा है. 

कुछ जानकार लोगों ने बताया है कि कर्नाटक और तमिलनाडु में तो कुछ ब्राह्मण जातियां भी तिकड़म लगाकर ओबीसी आरक्षण की सूची में घुस गई हैं. हो सकता है कि ब्राह्मण उपनाम वाली ये जातियां वास्तव में कामगार समुदायों से निकली हों, और बाद में अपने सामाजिक रुतबे को उठाने के लिए उन्होंने ब्राह्मण उपनाम अपना लिए हों. कुल मिलाकर जातिगत संरचना इतनी जटिल है कि उसे किसी सेंसस में यथातथ्य व्यक्त किया जाना नामुमकिन लग रहा है.

पिछड़ी जातियों की सूची तैयार करने का अधिकार राज्यों को सौंपने के संबंध में संविधान संशोधन करने के लिए सांसदों ने अभूतपूर्व एकता दिखाई है. लेकिन, ऐसा करते हुए वे मंडल कमीशन की रपट के इतिहास के एक अहम वाकये को भूल गए. अगर वे इसे निगाह में रखते तो पिछड़े समुदायों के बीच उनके आरक्षण के प्रतिशत का न्यायसंगत बंटवारा सुनिश्चित कर सकते थे. 

सांसदों को याद रखना चाहिए था कि आयोग की रपट सर्वसम्मत नहीं थी. उसमें एक असहमति का स्वर भी था. यह था आयोग के एकमात्र दलित सदस्य आर.एल. नाईक का. नाईक ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को एक सुचिंतित सुझाव दिया था कि अन्य पिछड़े वर्ग को दो हिस्सों में बांट दिया जाना चाहिए. 

एक हिस्सा उन जातियों का हो जो भूस्वामी हैं. ये किसान जातियां आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से अपेक्षाकृत मजबूत हैं. दूसरा हिस्सा उनका हो जो कारीगर जातियां हैं. ये निहायत गरीब समुदाय है जिनकी विपन्नता और वंचना कुछ मामलों में दलितों से भी ज्यादा होती है.

अगर नाईक की बात मान ली जाती तो क्या होता? आज अन्य पिछड़े वर्गो को मिलने वाले आरक्षण की नीति काफी बड़े हद तक विवादों से मुक्त होती. अन्य पिछड़े वर्गो पर अगर संख्या की दृष्टि से निगाह डाली जाए तो साफ हो जाता है कि यह वर्ग अपेक्षाकृत खुशहाल और बेहद विपन्न जातियों में पचास-पचास फीसदी बंटा हुआ है. 

चूंकि नाईक की बात नहीं मानी गई इसलिए हुआ यह कि आरक्षण के ज्यादातर लाभ संख्याबल में मजबूत और राजनीतिक गोलबंदी में अधिक सक्षम जातियों के हाथ में सिमटते चले गए. धीरे-धीरे पिछड़ों में ‘अपर’ और ‘लोअर’ के बीच खाई बढ़ती चली गई. देर-सबेर इसके राजनीतिक परिणाम निकलने लाजिमी थे. 

आज स्थिति यह है कि अतिपिछड़ी जातियों ने भी अपनी अलग पार्टियां बना ली हैं, और वे ‘अपर’ ओबीसी नेताओं के साथ गठजोड़ करने से पहले सौ बार सोचती हैं. दरअसल, अतिपिछड़ों को राजनीतिक नुमाइंदगी देने वाली शक्तियों को ऊंची जातियों की  प्रधानता वाली  पार्टियों से गठजोड़ करने में कम आपत्ति होती है, क्योंकि उन्हें पता है कि वे उनके साथ किसी किस्म की होड़ में नहीं हैं.

आज पिछड़े वर्ग की राजनीति के बिखरे होने और अतिपिछड़ी जातियों की जारी वंचना का एक बड़ा कारण मंडल द्वारा नाईक की सिफारिश न मानना तो है ही, इन सिफारिशों को लागू करते समय विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा भी इसकी उपेक्षा करने की इसमें ऐतिहासिक भूमिका है. 

संशोधन विधेयक पारित करने में दिखाई गई संसदीय एकता का एक परिणाम यह भी निकल सकता है कि राज्यों द्वारा पिछड़ी जातियों की सूची बनाते समय उनमें और भी अधिक प्रबल और  प्रभुत्वशाली जातियां अपने दबदबे के दम पर घुसपैठ कर लेंगी. एक तरह से यह फैसला आरक्षण-नीति की विकृतियों को और बढ़ा सकता है.

Web Title: Abhay Kumar Dubey Issue of caste census, reservation and difficulties

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